कर्णवेध : : कर्णवेध संस्कार का अर्थ होता है कान को छेदना। इसके पांच कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से ज्योतिषानुसार राहु और केतु के बुरे प्रभाव बंद हो जाते हैं। तीसरा इससे एक्यूपंक्चर होता जिससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होने लगता है। चौथा इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है। पांचवां इससे यौन इंद्रियां पुष्ट होती है।

समझा जाता है अंतड़ियों और अंडकोष  स्वास्थ्य के लिए कन छेदन मुफ़ीद साबित होता। जबकि दस में से एक बालकों में शिशुओं में एक में अंडकोष सोजिश का अस्थाई दोष देखा जाता है। 

आम तौर पर यह रोगप्रतिरोधन क्षमता (इम्युनिटी )में इज़ाफ़ा करता है। महिलाओं में मासिक स्राव (मासिक धर्म )मुश्किल दिनों को आसान बनाने वाला समझा गया है कर्ण  छेदन। 

प्रजनन स्वास्थ्य के लिए अच्छा समझा गया है इस परम्परा को सांस्कृतिक बोध से तो यह जुड़ा ही है महिलाओं के। 

प्रसव को सह्यक्रिया बनाता है एअर पियर्सिंग। महिला प्रजनन तंत्र के लिए वामाओं में वाम कर्ण का छेदन इसीलिए पहले किया जाता है सुश्रुत संहिता में इसका संकेत किया गया है। 

पांच बरस की उम्र तक बालकों के मस्तिष्क का पूर्ण विकास संपन्न  हो जाता इसको और पुष्ट करता है नौनिहालों में कर्णछेदन। 

ये आकस्मिक नहीं है महज़ सजना संवरना नहीं है कि आजकल लड़के भी बालियां पहने रहते हैं कई तो लम्बी चोटी भी धरे हैं। 

मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी
किती बार मोहि दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी ॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी-मोटी ।
काढ़त-गुहत-न्हवावत जैहै नागिनि-सी भुइँ लोटी ॥
काँचौ दूध पियावति पचि-पचि, देति न माखन-रोटी ।
सूरज चिरजीवौ दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी ॥

भावार्थ :-- (श्यामसुन्दर कहते हैं-) `मैया ! मेरी चोटी कब बढ़ेगी ? मुझे दूध पीते कितनी देर हो गयी पर यह तो अब भी छोटी ही है । तू जो यह कहती है कि दाऊ भैया की चोटी के समान यह भी लम्बी और मोटी हो जायगी और कंघी करते, गूँथते तथा स्नान कराते समय सर्पिणी के समान भूमि तक लोटने (लटकने) लगेगी (वह तेरी बात ठीक नहीं जान पड़ती)। तू मुझे बार-बार परिश्रम करके कच्चा (धारोष्ण) दूध पिलाती है, मक्खन-रोटी नहीं देती ।'(यह कहकर मोहन मचल रहे हैं ।) सूरदास जी कहते हैं कि बलराम घनश्याम की जोड़ी अनुपम है, ये दोनों भाई चिरजीवी हों ।

वापसी हो रही है परम्परा की ओर  हिंदुत्व की ओर। 

ऊर्जा प्रवाह को सक्षम बनाते हैं षोडश संस्कार कनछेदन उनमें से ही एक महत्वपूर्ण संस्कार है। इसे पाचन को दुरुस्त रखने वाला भूख खोलने वाला भी बतलाया गया है।  

हिन्दू धर्म के पवित्र सोलह संस्कार इस प्रकार हैं :


हिन्दू धर्म भारत का सर्वप्रमुख धर्म है। इसमें पवित्र संपन्न किए जाते हैं। हिंदू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही उसे 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है। 
बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी भी व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित किया गया धर्म नहीं, बल्कि प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का बड़ा समुच्चय है। के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक संपन्न किए जाते हैं। जो निम्नानुसार है :- 
 
1. गर्भाधान : गर्भाधान संस्कार महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न और पुष्ट रहना गर्भधारण के लिए आश्यक है इसलिए स्त्री एवं पुरुष को हमेशा उत्तर भोजन करना चाहिए और सदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन उत्साह, प्रसन्नता और स्वस्थ्यता से भरा होना चाहिए। उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है। माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है।  गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है।  
2. पुंसवन : : पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि गर्भ में तीन महीने के पश्चात गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होने लगता है। इस समय पुंसवन संस्कार के द्वारा गर्भ में पल रहे शिशु के संस्कारों की नींव रखी जाती है। मान्यता के अनुसार शिशु गर्भ में सीखना शुरू कर देता है, इसका उदाहरण है अभिमन्यु जिसने माता द्रौपदी के गर्भ में ही चक्रव्यूह की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। 
3. सीमंतोन्नायन सीमंतोन्नायन संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। इस दौरान शांत और प्रसन्नचित्त रहकर माता को अध्ययन करना चाहिए।>  
4. जातक्रम : बालक का जन्म होते ही जातकर्म संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।>  
5. नामकरण : जातकर्म के बाद नामकरण संस्कार किया जाता है। जैसे की इसके नाम से ‍ही विदित होता है कि इसमें बालक का नाम रखा जाता है। शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। बहुत से लोगों अपने बच्चे का नाम कुछ भी रख देते हैं जो कि गलत है। उसकी मानसिकता और उसके भविष्य पर इसका असर पड़ता है। जैसे अच्छे कपड़े पहने से व्यक्तित्व में निखार आता है उसी तरह अच्छा और सारगर्भित नाम रखने से संपूर्ण जीवन पर उसका प्रभाव पड़ता है। ध्यान रखने की बात यह है कि बालक का नाम ऐसा रखें कि घर और बाहर उसे उसी नाम से पुकारा या जाना जाए।  
6. निष्क्रमण : इसके बाद जन्म के चौधे माह में निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। निष्क्रमण का अर्थ होता है बाहर निकालना। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि से बना है जिन्हें पंचभूत कहा जाता है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।
 
7. अन्नप्राशन : अन्नप्राशन संस्कार संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। प्रारंभ में उत्तम प्रकार से बना अन्न जैसे खीर, खिचड़ी, भात आदि दिया जाता है। 
 
8. चूड़ाकर्म : सिर के बाल जब प्रथम बार उतारे जाते हैं, तब वह चूड़ाकर्म या मुण्डन संस्कार कहलाता है। जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवें या सातवें वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। 
 
9. कर्णवेध : : कर्णवेध संस्कार का अर्थ होता है कान को छेदना। इसके पांच कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से ज्योतिषानुसार राहु और केतु के बुरे प्रभाव बंद हो जाते हैं। तीसरा इसे एक्यूपंक्चर होता जिससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होने लगता है। चौथा इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है। पांचवां इससे यौन इंद्रियां पुष्ट होती है।
 
10. यज्ञोपवीत : यज्ञोपवित को उपनय या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। प्रत्येक हिन्दू को यह संस्कार करना चाहिए। उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है। साथ ही उसमें आध्यात्मिक भाव जागृत होता है।
 
11. वेदारंभ : इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है।
 
12. केशांत : केशांत का अर्थ है बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत या कहें कि मुंडल किया जाता है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। प्राचीनकाल में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद भी केशांत संस्कार किया जाता था।
 
13. समावर्तन : समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
 
14. विवाह : उचित उम्र में विवाह करना जरूरी है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान ही नहीं दिया जाता बल्कि व्यक्ति के आध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए भी यह जरूरी है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से भी मुक्त होता है।
 
15. आवसश्याधाम 
16. श्रोताधाम 
 
इस प्रकार हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार किए जाते हैं। : अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है।  


Karna Vedha or ear piercing ceremony is an ancient Indian practice that takes place to facilitate the wearing of ornaments. This ancient Indian practice of piercing babies’ ears is well explained in Ayurveda and has been followed to this day. Well, it is mentioned to be one among the 16 samskaras or sacraments, sacrifices, and rituals to exhibit the various stages of human life as well as to denote the cultural heritage and proper upbringing. This practice has to be done either on the 10th, 12th, or 16th day or in the 6th or 7th or 8th month, or odd years from the year of childbirth.

While it has a lot of procedures to follow, it is mentioned that Monday, Wednesday, Thursday, and Friday are auspicious days as per the ancient Ayurvedic text Susruta Samhita. Apart from this, it also said Karna Vedha should be started with the right ear first and then the left for the male child whereas, for the female child, it should be started from the left ear to the right. Meanwhile, you could have seen the babies screaming while going through this process or custom of ear piercing, it would provide surprising health benefits like enhancing the health of the intestines and cure the swelling of testicles in males, a condition which might affect one of the ten baby boys. Since many of you know about this famous ancient ear-piercing custom, you still do not know how it impacts health. Just check them out here!

BOOSTS IMMUNITY: While you get major benefits by getting your ears pierced, boosting immunity is one of them. Well, the middle area of the ear influences the level of immunity in the body and it would also help deal with health issues including irregular menstruation in women.

PROMOTES REPRODUCTIVE HEALTH: According to Ayurveda, the lobe of the ear has an essential marma point which is found in the middle of the lobe which in turn is considered to be the most important spot for reproductive health both in men and women. Even piercings could lower the menstrual pain to some extent as well as reduces the pain during childbirth and make it easier for women. Since the left side of the body is associated with the vitality of the female reproductive organ, getting the left ear piercing would stimulate the overall vitality of the body.

IMPROVES THE BRAIN’S HEALTH: When it comes to ear piercing, it would improve the brain’s health of the children when they go through the process at a young age. The meridian points present in the lobes of the ears are bridged from the left hemisphere of the brain to the right. These areas in turn are activated due to the piercing process. Above all, it would also enhance memory.

BOOSTS ENERGY: As per Ayurveda, the energy flow is highly maintained if an individual wears earrings. This is the reason why both males and females are getting their ears pierced and wear earrings at their young stage itself.

INCREASES BETTER EYESIGHT: Even the center of the ears is linked with the vision in the eye. The pressure points would regulate better vision that directly benefits your eyes as per the acupuncture.

PROVIDES DIGESTIVE HEALTH: The ear-piercing process could maintain the digestive health of the person. Howbeit, the pressure points on the ears would even kick start hunger naturally.

Disclaimer: This tool does not provide medical advice. The content is intended for informational purposes only and it is not a substitute for the advice of a doctor or professional medical advice or other health advice. It is neither intended nor implied to be so. Please do not ignore professional medical advice because you have read this content.


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