आज प्रस्तुत है डॉ.जी.डी.प्रदीप के लिखे 'डी. एन. ए की खोज 'लेख का भाग-३ : क्रोमोज़ोम्स में डी•एन•ए• की उपस्थिति का ज्ञान अनुसंधा...
आज प्रस्तुत है डॉ.जी.डी.प्रदीप के लिखे 'डी. एन. ए की खोज 'लेख का भाग-३:
हालांकि डी•एन•ए• के सर्व प्रथम एक्स रे डिफ्रैक्शन चित्र विलियम आस्टबरी ने 1938 में लिए थे¸ लेकिन इनके पास उपलब्ध डी•एन•ए• सूखा हुआ था। फलतः ये चित्र इतने अच्छे नहीं थे कि कुछ निश्चित निष्कर्ष निकाला जा सके। 1950 में विल्किंस को रूडॉल्फ सिग्नर के बर्न स्थित प्रयोगशाला से विशुद्ध डी•एन•ए• के नमूने प्राप्त हुए। ये नमूने गीले चिपचिपे जेल के रूप में थे। विल्किंस ने ग्लास की छड़ी से इसे कुरेद कर जब छड़ी को बाहर निकाला तो मकड़ी के जाले के तंतु के समान डी•एन•ए• के बहुत ही पतले तंतु छड़ी से चिपके हुए बाहर आ गए।
keywords: dna genetic material, dna genetic code, dna genetic engineering, dna genetic material ppt, dna genetic testing, dna genetic ancestry testing, dna genetic seeds, dna genetic testing diseases, dna genetic information, dna genetic testing reviews, genetic engineering, genetic disorders, genetic code, genetic counselling
क्रोमोज़ोम्स में डी•एन•ए• की उपस्थिति का ज्ञान अनुसंधानकत्तार्ओं को 1920 तथा 1930 के दशक में ही हो गया था। साथ ही उन्हें यह भी पता चल गया था कि डी•एन•ए• के साथ–साथ क्रोमोज़ोम्स की संरचना में प्रोटीन्स का भी योगदान होता है। किसी भी जीव में हजारों अनुवांशिकीय लक्षण होते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित होते रहते हैं। साथ ही वातावरण के प्रभाव के कारण इनमें अचानक परिवर्तन (म्यूटेशन्स) भी होते रहते हैं जो जैविक विकास की प्रक्रिया के लिए आवश्यक है। रासायनिक अणु इन लक्षणों के वाहक हैं और इन्हीं अणुओं के रूप में ही लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित होते हैं तो ऐसे रसायन में तीन गुण अवश्य होने चाहिए।
1-यदि एक लक्षण एक ही प्रकार के रासायनिक अणु द्वारा वहन किए जाएं तब भी एक ही जीव के हजारों लक्षणों को वहन करने के लिए ऐसे रसायन के अणुओं के हजारों रूप उपलब्ध होने चाहिए¸ जो न केवल अनुवांशिक लक्षणों से संबंधित सूचनाओं का संग्रह कर सकें बल्कि अगली पीढ़ी में उन्हें अभिव्यक्त भी कर सकें।
2-चूंकि कोशिका विभाजन के फलस्वरूप एक कोशिका से दो नई कोशिकाओं का उत्पादन होता है अतः विभाजित होने वाली कोशिका में अनुवांशिक लक्षणों का वहन करने वाले सभी रासायनिक अणुओं में स्वयं की प्रतिकृति बनाने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए। तभी दोनों नई कोशिकाओं में विभाजित होने वाली कोशिका के सभी लक्षण पूरी तरह स्थानांतरित हो सकने की संभावना बनती है।
3-म्यूटेशन की प्रक्रिया को चलाते रहने के लिए यह आवश्यक है कि अनुवांशिक रसायन वातावरण के प्रति संवेदनशील हों जिससे समय–समय पर आवश्यकतानुसार इनकी संरचना में परिवर्तन संभव हो। संरचना में परिवर्तन के फलस्वरूप ही नए लक्षणों की उत्पत्ति संभव है।
![]() |
फ्रेडरिक ग्रिफिथ [1928] |
डी•एन•ए• की संरचना तथा प्रकृति संबंधी संपूर्ण ज्ञान के अभाव एवं पूर्व—अवधारणा के कारण¸ उस समय प्रोटीन्स के अणुओं को ही अनुवांशिक लक्षणों का वाहक मान लिया गया। 20 विभिन्न प्रकार के एमीनो एसिड्स के हजारों प्रकार के संयोजन के फलस्वरूप प्रोटीन्स के असीमित रूप संभव हैं। यह गुण अनुवांशिक लक्षणों का वहन करने वाले रसायन के अपेक्षित गुणों में कम से कम पहली शर्त को अवश्य पूरा करते हैं। इस अवधारणा को तोड़ने तथा डी•एन•ए• ही वास्तविक अर्थों में अनुवांशिक गुणों का वाहक है – इस अवधारण को पूरी तरह से स्थापित करने में 1950 का दशक आ गया।
डी•एन•ए• को अनुवांशिक लक्षणों के वाहक के रूप में स्थापित करने में एक ब्रिटिश चिकित्सक फ्रेडरिक ग्रिफिथ द्वारा 1928 में चूहों पर किए गए प्रयोग का विशेष योगदान है। न्युमोनिया जैसे रोग के जनक¸ न्युमोनीकोकस बैक्टीरिया के दो स्ट्रेन होते हैं – एक स्मूथ स्ट्रेन¸ जो रोग उत्पन्न करता है तो दूसरा रफ स्ट्रेन¸ जिसका शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कुछ चूहों के शरीर में पहले इस बैक्टीरिया के रफ स्ट्रेन को इंजेक्ट किया गया। चूंकि रफ स्ट्रेन रोग कारक नहीं होता¸ अतः चूहे स्वस्थ रहे। कुछ दिनों बाद इन्हीं चूहों में ताप द्वारा मारे गए स्मूथ स्ट्रेन वाले बैक्टीरिया की कोशिकाओं को इंजेक्ट किया गया। कुछ ही दिनों बाद इन स्वस्थ दिखने वाले चूहों को न्युमोनिया रोग हुआ और वे मर गए। जब इन मरे हुए चूहों के रक्त का परीक्षण किया गया तो उसमें जीवित स्मूथ स्ट्रेन वाले बैक्टीरिया की पर्याप्त संख्या दिखी।
ऐसा प्रतीत होता है कि ताप द्वारा मरे हुए स्मूथ बैक्टीरिया की कोशिकाओं में कुछ ऐसा था जिसे रफ स्ट्रेन वाले बैक्टीरिया की कोशिकाओं ने आत्मसात् कर लिया और वे न केवल स्मूथ स्ट्रेन में परिवर्तित हो गए बल्कि यह गुण किस प्रकार आने वाली पीढ़ियों में स्थानांतरित करना है¸ इस विधा में भी पारंगत हो गए। ऐसा रूप परिवर्तन मरे हुए स्मूथ बैक्टीरिया के अनुवांशिक लक्षणों का वहन करने वाले कुछ रसायनों का जीवित रफ बैक्टीरिया द्वारा आत्मसात् करने से संभव है। ये रसायन प्रोटीन्स तो नहीं ही हो सकते क्योंकि प्रोटीन्स तो ताप के कारण पहले ही अपना प्राकृतिक गुण खो चुके थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि ताप द्वारा मरे हुए स्मूथ बैक्टीरिया की कोशिकाओं में कुछ ऐसा था जिसे रफ स्ट्रेन वाले बैक्टीरिया की कोशिकाओं ने आत्मसात् कर लिया और वे न केवल स्मूथ स्ट्रेन में परिवर्तित हो गए बल्कि यह गुण किस प्रकार आने वाली पीढ़ियों में स्थानांतरित करना है¸ इस विधा में भी पारंगत हो गए। ऐसा रूप परिवर्तन मरे हुए स्मूथ बैक्टीरिया के अनुवांशिक लक्षणों का वहन करने वाले कुछ रसायनों का जीवित रफ बैक्टीरिया द्वारा आत्मसात् करने से संभव है। ये रसायन प्रोटीन्स तो नहीं ही हो सकते क्योंकि प्रोटीन्स तो ताप के कारण पहले ही अपना प्राकृतिक गुण खो चुके थे।
1935 से 1944 तक एवरी ने अपने दो सहयोगियों मैक्लॉड तथा मैक्कार्टी के साथ इसी प्रयोग को परिष्कृत तकनीकि द्वारा अति विस्तार में दुहरा कर सुनिश्चित रूप से यह सुझाया कि रफ स्ट्रेन वाली बैक्टीरियल कोशिकाओं के स्मूथ स्ट्रैन वाली कोशिकाओं में परिवर्तन के पीछे निश्चित रूप से डी•एन•ए• का हाथ है¸ अत: डी•एन•ए• ही अनुवांशिक लक्षणों का वाहक हो सकता है¸ प्रोटीन्स नहीं। 1952 में हाशेर् एवं चेज़ ने टी–2 नामक वाइरस पर प्रयोग कर इस तथ्य पर मुहर लगा दी।
![]() |
Oswald Averi [1937] |
एवरी के कार्य का सर्वाधिक प्रभाव इर्विन चारग़ाफ़ पर पड़ा। 1940 तथा कुछ समय तक 1950 के दशक में भी डी•एन•ए• को कोशिका से अलग कर परिशोधित रूप में प्राप्त करने की तकनीकि पूरी तरह विकासित नहीं थी अत: उस समय के रसायनज्ञों को थोड़ी मात्रा में उपलब्ध डी•एन•ए• से ही काम चलाना पड़ता था। इन परिस्थितियों में भी चारग़ाफ़ डी•एन•ए• के विस्तृत रासायनिक विश्लेषण में जुट गए। इस कार्य में प्रोटीन्स के अणुओं में एमीनो एसिड्स के क्रम की पहचान करने के लिए मार्टिन एवं सिंज द्वारा ‘पेपर क्रोमैटोग्राफी’ की तकनीकि सहायक सिद्ध हुई।
1951 आते–आते इनके प्रयोगों ने लगभग निश्चित रूप से सुझा दिया कि डी•एन•ए• के अणुओं में न केवल गुआनिन तथा एडेनिन सरीखे प्युरीन प्रकार के नाइट्रोजन बेसेज की कुल मात्रा साइटोसिन एवं थाइमिन सरीखे पाइरीमिडीन के बराबर होती है¸ बल्कि जितनी मात्रा एडिनिन की होती है उतनी ही थाइमिन की होती है। साथ ही जितनी मात्रा गुआनिन की होती है उतनी ही साइटोसिन की भी होती है।1952 के आते–आते हाशेर् एवं चेज़ द्वारा वाइरस पर किए गए प्रयोग तथा चारग़ाफ़ द्वारा डी•एन•ए• की संरचना संबंधी विश्लेषण के कारण अधिकांश वैज्ञानिक डी•एन•ए• को निर्विवाद रूप से अनुवांशिक गुणों का वाहक मान चुके थे।
अनुवंशिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित करने में डी•एन•ए• के अणु ही सक्षम हो सकते हैं¸ प्रोटीन नहीं – यह बात भी हाशेर् एवं चेज़ के प्रयोग द्वारा सुझाया जा चुका था।अब वैज्ञानिकों के सामने दो महत्वपूर्ण प्रश्न चुनौती के रूप में खड़े थे। पहला तो यह कि डी•एन•ए• की वास्तविक आणविक संरचना क्या है और दूसरा यह कि इनमें अनुवांशिक गुण किस कूट भाषा में समाहित होते हैं।
1951 आते–आते इनके प्रयोगों ने लगभग निश्चित रूप से सुझा दिया कि डी•एन•ए• के अणुओं में न केवल गुआनिन तथा एडेनिन सरीखे प्युरीन प्रकार के नाइट्रोजन बेसेज की कुल मात्रा साइटोसिन एवं थाइमिन सरीखे पाइरीमिडीन के बराबर होती है¸ बल्कि जितनी मात्रा एडिनिन की होती है उतनी ही थाइमिन की होती है। साथ ही जितनी मात्रा गुआनिन की होती है उतनी ही साइटोसिन की भी होती है।1952 के आते–आते हाशेर् एवं चेज़ द्वारा वाइरस पर किए गए प्रयोग तथा चारग़ाफ़ द्वारा डी•एन•ए• की संरचना संबंधी विश्लेषण के कारण अधिकांश वैज्ञानिक डी•एन•ए• को निर्विवाद रूप से अनुवांशिक गुणों का वाहक मान चुके थे।
अनुवंशिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित करने में डी•एन•ए• के अणु ही सक्षम हो सकते हैं¸ प्रोटीन नहीं – यह बात भी हाशेर् एवं चेज़ के प्रयोग द्वारा सुझाया जा चुका था।अब वैज्ञानिकों के सामने दो महत्वपूर्ण प्रश्न चुनौती के रूप में खड़े थे। पहला तो यह कि डी•एन•ए• की वास्तविक आणविक संरचना क्या है और दूसरा यह कि इनमें अनुवांशिक गुण किस कूट भाषा में समाहित होते हैं।
इन प्रश्नों के़ उत्तर खोजने में रसायनज्ञों के साथ–साथ भौतिक–वैज्ञानिकों का भी काफी बड़ा हाथ है। क्वांटम फिजिक्स के एक महत्वपूर्ण प्रणेता इर्विंग श्रॉडिंगर ने 1944 में 'व्हाट इज़ लाइफ' नामक एक छोटी सी पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में इन्होंने क्वांटम फिजिक्स के परिपेक्ष्य में जीवन को सैद्धांतिक रूप से व्याख्यायित करने का प्रयास किया। टेलीग्रफिक संचार में उपयोग किए जाने वाली कूट भाषा 'मॉर्स कोड' का उदाहरण दे कर बड़ी सुंदरता से यह समझाने का प्रयास किया कि किसी पदार्थ के बडे़ अणु में उपस्थित कुछ ही तत्वों के सीमित परमाणु अथवा विभिन्न परमाणुओं के योग से बने छोटे–छोटे कुछ ही अणु समूहों को अलग–अलग ढंग से व्यवस्थित कर उस बडे़ अणु के असीमित रूपों का निर्माण संभव है।
इस प्रकार से निर्मित अणु संरचना में ही नहीं बल्कि गुणों में भी भिन्न हो सकते हैं। यह कुछ–कुछ वैसा ही है जैसा कि हम कुछ अक्षरों का चयन कर उन्हें विभिन्न प्रकार से व्यवस्थित कर नए–नए शब्दों या फिर कुछ शब्दों का चयन कर उन्हें अलग–अलग ढंग से व्यस्थित कर नए –नए वाक्यों की रचना संभव है।'एक्स रे डिफ्रैक्शन तकनीकि' के ज्ञान तथा बाद में उपरोक्त पुस्तक ने द्वितीय महायुद्ध के कुछ वर्ष पहले भी और उसके बाद के वर्षों में भी¸ बहुतेरे भौतिक शास्त्रियों को प्रोटीन¸ हीमोग्लोबिन तथा डी•एन•ए• जैसे जैव–रासायनिक अणुओं की संरचना संबंधी गुत्थी को सुलझाने के लिए प्रेरित किया। 1946 में भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर जॉन रैन्डाल की अध्यक्षता में लंदन के किंग्स कॉलेज में 'बायोफिजिक्स युनिट' का गठन किया गया। इस युनिट के एक महत्वपूर्ण सदस्य थे– भौतिक शास्त्री 'मॉरिस विल्किंस'।
इस प्रकार से निर्मित अणु संरचना में ही नहीं बल्कि गुणों में भी भिन्न हो सकते हैं। यह कुछ–कुछ वैसा ही है जैसा कि हम कुछ अक्षरों का चयन कर उन्हें विभिन्न प्रकार से व्यवस्थित कर नए–नए शब्दों या फिर कुछ शब्दों का चयन कर उन्हें अलग–अलग ढंग से व्यस्थित कर नए –नए वाक्यों की रचना संभव है।'एक्स रे डिफ्रैक्शन तकनीकि' के ज्ञान तथा बाद में उपरोक्त पुस्तक ने द्वितीय महायुद्ध के कुछ वर्ष पहले भी और उसके बाद के वर्षों में भी¸ बहुतेरे भौतिक शास्त्रियों को प्रोटीन¸ हीमोग्लोबिन तथा डी•एन•ए• जैसे जैव–रासायनिक अणुओं की संरचना संबंधी गुत्थी को सुलझाने के लिए प्रेरित किया। 1946 में भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर जॉन रैन्डाल की अध्यक्षता में लंदन के किंग्स कॉलेज में 'बायोफिजिक्स युनिट' का गठन किया गया। इस युनिट के एक महत्वपूर्ण सदस्य थे– भौतिक शास्त्री 'मॉरिस विल्किंस'।
![]() |
Rosalind_Franklin |
1951 में 'एक्स रे डिफ्रैक्शन तकनीकि की विशेषज्ञा 'रोज़ालिंड फ्रेंiक्लन' भी इस युनिट की सदस्य बनीं। इस पूरी युनिट¸ विशेषकर विल्किंस तथा फ्रैंiक्लन ने डी•एन•ए• के 'डबल हेलिकल' संरचना की खोज में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हालांकि डी•एन•ए• के सर्व प्रथम एक्स रे डिफ्रैक्शन चित्र विलियम आस्टबरी ने 1938 में लिए थे¸ लेकिन इनके पास उपलब्ध डी•एन•ए• सूखा हुआ था। फलतः ये चित्र इतने अच्छे नहीं थे कि कुछ निश्चित निष्कर्ष निकाला जा सके। 1950 में विल्किंस को रूडॉल्फ सिग्नर के बर्न स्थित प्रयोगशाला से विशुद्ध डी•एन•ए• के नमूने प्राप्त हुए। ये नमूने गीले चिपचिपे जेल के रूप में थे। विल्किंस ने ग्लास की छड़ी से इसे कुरेद कर जब छड़ी को बाहर निकाला तो मकड़ी के जाले के तंतु के समान डी•एन•ए• के बहुत ही पतले तंतु छड़ी से चिपके हुए बाहर आ गए।
विल्किंस तथा एक शोध छात्र रेमन्ड गॉiस्लंग ने इन तंतुओं के एक्स रे डिफ्रैक्शन चित्र प्राप्त किए जो आस्टबरी के चित्रों की तुलना में बहुत ही उच्च कोटि के थे। ये चित्र डी•एन•ए• के कुंडलिनी–रूप की ओर इशारा कर तो रहे थे लेकिन इस कुंडलिनी–रूप को विस्तार से समझने और उसकी व्याख्या के लिए इन्हें एक एक्स रे डिफ्रैक्शन विशेषज्ञ की आवश्यकता थी। 1951 में फ्रैंiक्लन के रूप में यह कमी पूरी हो गई। फ्रैंकलिन इस युनिट से संभवतः इस समझ के साथ जुड़ीं कि डी•एन•ए• उनका अपना प्राजेक्ट होगा और उन्हें गॉiस्लंग के साथ काम करना होगा।
बाद में उन्हें समझ में आया कि विल्किंस उनसे एक कनिष्ठ सहयोगी के रूप में कार्य करने की अपेक्षा रखते थे। रैंडाल के दबाव के कारण विल्किंस ने सिंग्नर के डी•एन•ए• का नमूना फ्रैंiक्लन के लिए छोड़ कर चारगाफ द्वारा प्राप्त नमूने पर कार्य करना शुरू तो कर दिया परंतु दोनों में गलतफ़हमी एवं तनाव बना रहा¸ विशेषकर जब उन्हें इस बात का भान हुआ कि चारगाफ का नमूना उतना अच्छा परिणाम नहीं दे रहा है। इस तनाव एवं गलतफ़हमी ने डी•एन•ए• संबंधी शोध कार्य में बाधाएं भी उत्पन्न कीं। यही वह काल था¸ जब डी•एन•ए• की संरचना की खोज से जुड़ी इस कथा में इसके महानायक वैट्सन तथा क्रिक ने प्रवेश किया।आगे क्या हुआ....जानेंगे इस लेख के अन्तिम भाग में
(इस कड़ी के सभी लेख पढने के लिए यहां पर क्लिक करें)

हम इंतज़ार करेंगे.... वैसे २० तारीख को हमारे मूंगफल्ली खाने का दिन भी है. आभार.
ReplyDeleteवाह एक और रोचक और ज्ञानवर्धक कड़ी..... 'रोज़ालिंड फ्रेंiक्लन' की जानकारी के लिए आभार....इनके बारे में पहली बार ही पढा..
ReplyDeleteRegards
बहुत ही रोचक विवरण मिल रहा है। अगली कडी का भी बेसब्री से इंतजार है।
ReplyDeleteAlpna ji kis kis visay pr kya kya likhti hain aap....naman hai aapko to....itani pratibha..?
ReplyDeleteबहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी है। आभार।
ReplyDeleteरोचक लगी यह कड़ी भी ...शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत ही रोचक जानकारी है, अगली कडी की भी प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteजी यह एक ज्ञानवर्धक लेख है .. चूंकि मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं इसे आत्मसात कर पाया.. कह नहीं सकता कि एक आदमी इसे किस तरह लेगा.
ReplyDeleteमेरे विचार से आम आदमी तक पैठ बनाने के लिये लेख में अधिक गहराई वाली बातों को अलग रख कर एक आम आदमी के काम की बातें डाली जायें तो अधिक लाभकारी होगा.. दूसरा विषय ऐसे चुने जायें जिनके बारे में जानकारी होना आम आदमी के लिये लाभकारी हो जैसे... बिमारियों के लक्षण, उपचार, परहेज. नई खोजों के संदर्भ में... दैनिक काम में आने वाले उपकर्णो के मापदण्ड और उनके रख रखाव आदि पर लेख.. चित्रों का अधिक सहारा लिया जाये.
इसे आलोचना न समझें यह एक सुझाव भर है
ज्ञान को बांटना पुण्य का काम है। आप लोग इस पुण्य के सहभागी हैं, इसलिए आप सब बधाई के पात्र हैं।
ReplyDelete@mohinder kumar जी ,
ReplyDeleteशायद आप ने इस ब्लॉग के दुसरे lekh नहीं padey.
यह jaankari एक sequel के antrgat दी जा रही है.
और आप vigyan vishya के viddhyarthi rahey हैं तो इन paathon को पढ़ कर kyun नहीं samjh rahey की इस में तो बहुत ही saral भाषा का प्रयोग कर के samjhaya गया है.और यह jaankari जन sadharn के लिए ही है 'vigyan विषय के prabuddh विद्यार्थियों के लिए नहीं ,we तो jantey है हैं यह सब.
-मेरे likhey pichhlae lekh जो pahchan parikshno' पर थे अगर आप ने padhey होते तो यह prashn नहीं kartey.
-यह कड़ी unhin lekhon का एक sequal है.
-इस के बाद हम जिस important parikshan के bare में janengey उस के लिए जन sadharn के लिए यह adhaar banana nihayat jaruri है.
-हिन्दी में vigyan sambandhit jaankari सरल भाषा में pahunchey यही इस ब्लॉग का एक uddeshy है.
yun तो सभी कुछ नेट पर mojud है और kitabon में भी.
-jahan चित्रों की awashykta है wahan chitr jodey जा रहे हैं.मेरे ख्याल से आप ने यह पूरा lekh पढ़ा भी नहीं है.
-नहीं तो आप अधिक चित्रों की demand नहीं karrtey.इस में jitni gunjayeesh और जरुरत समझी गई उतने ही chitr jodey गए हैं.
-रही बात bimari बिमारियों के लक्षण, उपचार, परहेज. आदि पर lekh तो उन vishyon पर भी lekh aayengey.
-और यह सिर्फ़ medicine से related vigyan का ब्लॉग नहीं है.
यहाँ vigyan के vishaal field में से किसी भी vishya पर lekh आ saktey हैं.
-आप के sujhaavon का स्वागत है.
बहुत रोचक श्रंखला है, आगे आने वाली कडियों की भी प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteमोहिन्दर कुमार जी ,
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए आभार !
दरअसल यह विषय ही इतना शास्त्रीय विवेचन समेटे हुए है कि इसका अति सरली करण कर देने से सारा गुड गोबर हो जायेगा ! जैसे एक बार एक सज्जन मगर दुर्भाग्य से चोटी के विज्ञान संचारक ने डी एन ए के चारों बेस को ब्रह्मा जी का चार मुंह बता दिया था -दरअसल विज्ञान को लोकप्रय बनाने के अपने खतरे भी हैं -लोकप्रियता तो ठीक पर है यह बहुत जिम्मेदारी का काम -नहीं तो विज्ञान को छद्म विज्ञान का रूप लेते देर नहीं लगेगी और फायदे से ज्यादा नुक्सान हो जायेगा ! अगर किसी विज्ञान के समाचार /ज्ञान को लोकप्रिय बनाने में खतरे ज्यादा दिख रहे हैं तो तथ्यों का जस का तस् रख देना ज्यादा ठीक है ! याद रहे तथ्यों के ग़लत संचार से ज्यादा अच्छा तो यही है कि संचार ही न हो !
आशा है इस ब्लॉग पर अपना स्नेह बनाए रखेंगे !
आजकल फोरेंसिक मेडीसिन से लेकर कई दवाई की सरंचना का मूल आधार डी एन ऐ ही है .इस खोज ने मानव जाति की कितना भला किया ये कोई सोच भी नही सकता है ..
ReplyDeleteअल्पना जी एंव अरविन्द जी,
ReplyDeleteमेरी टिप्पणी पर प्रतिक्रिया के लिये धन्यवाद.
मैने दूसरे लेख भी पढे हैं.. उन सब में भी अच्छी जानकारी है.
मेरा मनत्वय बस इतना है कि हम यह सोच कर सामाग्री डालें कि इसके पाठक कौन होंगे और क्या यह जानकारी उनके लिये लाभकारी है.
एक सामाग्री विद्यार्थींयों के लिये हो सकती है जिसमें कुछ फ़ेर बदल सम्भव नहीं और उसे ज्यूं का त्यूं ही दिया जा सकता है जो स्लेवस या लेवल के अनुसार हो सकती है..
दूसरी तरह की जानकारी उन विषयों पर हो सकती है जो आम आदमी के काम की हो...मैने तो बस कुछ विषयों के उदाहरण भर दिये थे ऐसे असंख्य अन्य विषय हो सकते हैं
दूसरा हो सके तो जान कारी को विभिन्न सब हैडिगं (उपशीर्षकों) के अन्तर्गत दिया जा सकता है.. शब्दों से ज्यादा चित्रों के माद्यम से जानकारी आसानी से पाठक तक पहुंचती है.. इसलिये मैने चित्रों की वकालत की थी..
आपके ब्लोग की सफ़लता के लिये शुभकामनायें