प्रत्येक हेमांड (ब्रह्माण्ड या गेलेक्सी) समस्त प्रादुर्भूत मूल तत्वों सहित स्वतंत्र सत्ता की भांति -महाकाश, अन्तरिक्ष में उपस्थित था। ब्रह्म...
प्रत्येक हेमांड (ब्रह्माण्ड या गेलेक्सी) समस्त प्रादुर्भूत मूल तत्वों सहित स्वतंत्र सत्ता की भांति -महाकाश, अन्तरिक्ष में उपस्थित था। ब्रह्मा को सृष्टि निर्माण का ज्ञान होने पर उसने समस्त तत्वों को एकत्र करके सृष्टि को रूप देना प्रारंभ किया। इसे विश्व संगठन प्रक्रिया कह सकते हैं। ब्रह्मा ने हेमांड को दो भागों में विभाजित किया! ऊपरी भाग में हलके तत्व एकत्र हुए जो आकाश भावः कहलाया। जिससे समय, गति, शब्द, गुण, वायु, महतत्व, मन, तन्मात्राएँ, अहं, वेद (ज्ञान) आदि रचित हुए।
----मध्य भाग दोनों का मिश्रण जल भाव हुआ जिससे जलीय, रसीय, तरल तत्व, इन्द्रियाँ, कर्म, अकर्म, सुख-दुःख व प्राण आदि का संगठन हुआ।
----नीचे का भाग भारी तत्व भाव था जो पृथ्वी भाव हुआ जिससे, पदार्थ तत्व, जड़, जीव, ऊर्जा, ग्रह, पृथ्वी, पृकृति, दिशाएँ, लोक, निश्चित रूप भाव वाले रचित हुए। ऊर्जा व वाणी, प्रकाश, त्रिआयामी पदार्थ कण से नभ, भू, जल के प्राणी हुए। संगठित तत्व बिखरें नहीं इस हेतु नियमन शक्तियों का निर्माण किया गय!
ये नियामक थे- संगठक शक्ति का भार इन्द्र को, पालक का -इन्द्र, सरस्वती, भारती, अग्नि, सूर्य आदि देवों व ऊर्जाओं को पोषण के लिए -वतोश्पति, रूप गठन को त्वष्टा, कार्य नियमन को -अश्वनी द्वय (वैद्य व पंचम वेद आयुर्वेद -ब्रह्मा के पंचम मुख से) तथा कर्म नियमन को चार वेद -अपने चारों मुख से -ज्ञान एवं यम्, नियम, विधान
रूप सृष्टि --ब्रह्मा के स्वयं के विविध भाव, रूप, गुण व शरीर व शरीर त्याग, से क्रमिक रूप में अन्य विविध सृष्टि की रचना हुई। (इसे विज्ञान की भाषा में इस तरह लिया जासकता है कि ब्रह्मा --ज्ञान व मन की शक्ति -- के भावानुसार -क्रमिक विकास होता गया
१, तमोगुणी --सोते समय की सृष्टि, तमोगुणी हुई, जो तिर्यक --अज्ञानी, भोगी, इच्छा वसी, क्रोध वश, विवेक शून्य, भ्रष्ट आचरण वाले --पशु पक्षी, पुरुषार्थ के अयोग्य ।
२,सत्व गुणी--देव -ज्ञान वान, विषय प्रेमी, दिव्य ये भी पुरुषार्थ के अयोग्य थे।
३.रजोगुणी --त़प व साधना के भाव में --मानव की रचना -जो अति -विक्सित प्राणी, क्रियाशील, साधन शील, तीनों गुणों युक्त-सत्, तम, रज--कर्म व लक्ष्योंमुखसुख-दुःख रूप, श्रेय-प्रेय के योग्य, द्वंद्व युक्त, ब्रह्म का सबसे उत्तम साधक हुआ। मानव की भाव कोटियों में --ब्रह्मा के तम-भावः देह से-आसुरी प्रवृत्ति, जानू से-वैश्यभावः व चरण से शूद्र भाव,--उस देह के त्याग से -रात्रि व अज्ञान- के भाव। सत्व भावः देह से -मुख से ब्राहमण भाव,पार्श्व से पितृ -गणव संध्या भाव, इस देह त्याग से दिन व उज्जवल ज्ञान के भाव । रजो भाव देह से काया से, काम व क्षुधा भाव, वक्ष से -क्षत्रिय, क्षात्र -भाव, शौर्य, इस देह त्याग से -उषा व उषा भाव।
विशिष्ट कोटियाँ --ब्रह्मा के प्रसन्न भाव गायन वादन में बने -गन्धर्व, अंधेरे में -राक्षस, यक्ष आदि भूखी सृष्टि, क्रोध में मुख पीला होने पर-क्रोधी व मांसाहारी, पिशाच आदि। पाँच मुखों से--(ज्ञान)--पूर्व मुख -ऋग्वेद, गायत्री, दक्षिण --यजु, ब्रहात्साम, पश्चिम --साम वेद, जगती छंद, उत्तर मुख -अथर्व, वैराग्य, पंचम मुख -आयुर्वेद ।
तत्पश्चात -ब्रहमचर्य, गृह, वानप्रस्थ व संन्यास, चारआश्रम व कर्म -विमुख लोगों के लिए -नर्क आदि के समस्त दंड विधान । यह ब्रह्मा का क्रमिक विकास विधान है, मानव का ज्ञान -अज्ञान- आदि से जैसा-जैसा भाव होता गया वैसा ही प्राणी -भाव बनता गया, (शायद गुणसूत्र- क्रोमोसोम, हेरेडिटी, स्वभाव आदि से क्रमिक विकास )
प्रलय या लय--आधुनिक विज्ञान के अनुसार --जब ब्रह्माण्ड के पिंड व कण अत्यधिक दूर-दूर होजाते हैं तो उनके मध्य अत्यधिक शीतलता से ऊर्जा की कमी से विकर्षण शक्ति कम होने लगती है एवं वे घनीभूत होना लगते हैं औरसमस्त सृष्टि के कण व ऊर्जा एक दूसरे में लय होकर पुनः एकात्मकता को प्राप्त करके ऊर्जा व त़प का सघन पिंड बन जाते हैं। पुनः नवीन सृष्टि हेतु तत्पर।
वैदिक विज्ञान के अनुसार--मानव की अति-सुखाभिलाषा से नए-नए तत्वों (अपः -तत्वों ---यथा प्लास्टिक) का निर्माण, अति-भौतिकता (सिर्फ़ पञ्च भूत रत) पूर्ण जीवन पद्धति, विलासिता, प्रदूषण, असत-अकर्म,अनाचार से (तत्व, भावना, अहं व ऊर्जा सभी के) सदाचार को भूलने से --देव -प्रकृति, धरती, अन्तरिक्ष, आकाश --त्रस्त होजाते हैं, उस कालरात्रि के आने पर, तब ब्रह्म पुनः संकल्प करता है कि अब में पुनः एक हो जाऊँ।और इस इच्छा के निमिष मात्र में ही लय क्रम प्रारंभ हो जाता है। सब कण, पदार्थ, ऊर्जा के हर रूप, काल व गति ---मूल द्रव्य में --महाविष्णु के नाभि केन्द्र में ---सघन पिंड में---अग्नि देव की दाडों में ( क्रिया शील ऊर्जा में )---अपः तत्व में ---मूल ऊर्जा (आदि माया)---महाकाश में ----हिरन्यगर्भ में ----अव्यक्त ब्रह्म में विलय हो जाता है ।
-----आगे मानव का, नर-नारी विकास, संकल्प, काम संकल्प, प्रज़नन प्रक्रिया, काम-सम्भोग सृष्टि (माहेश्वरी प्रजा) कि -(स्वचालित - ओटोमेटिक -संतति वृद्धि प्रक्रिया प्रारंभ )।
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'तस्लीम' में पढें - 'क्या फिर होगा 1918 जैसा मौत का ताण्डव?'
----मध्य भाग दोनों का मिश्रण जल भाव हुआ जिससे जलीय, रसीय, तरल तत्व, इन्द्रियाँ, कर्म, अकर्म, सुख-दुःख व प्राण आदि का संगठन हुआ।
----नीचे का भाग भारी तत्व भाव था जो पृथ्वी भाव हुआ जिससे, पदार्थ तत्व, जड़, जीव, ऊर्जा, ग्रह, पृथ्वी, पृकृति, दिशाएँ, लोक, निश्चित रूप भाव वाले रचित हुए। ऊर्जा व वाणी, प्रकाश, त्रिआयामी पदार्थ कण से नभ, भू, जल के प्राणी हुए। संगठित तत्व बिखरें नहीं इस हेतु नियमन शक्तियों का निर्माण किया गय!
ये नियामक थे- संगठक शक्ति का भार इन्द्र को, पालक का -इन्द्र, सरस्वती, भारती, अग्नि, सूर्य आदि देवों व ऊर्जाओं को पोषण के लिए -वतोश्पति, रूप गठन को त्वष्टा, कार्य नियमन को -अश्वनी द्वय (वैद्य व पंचम वेद आयुर्वेद -ब्रह्मा के पंचम मुख से) तथा कर्म नियमन को चार वेद -अपने चारों मुख से -ज्ञान एवं यम्, नियम, विधान
रूप सृष्टि --ब्रह्मा के स्वयं के विविध भाव, रूप, गुण व शरीर व शरीर त्याग, से क्रमिक रूप में अन्य विविध सृष्टि की रचना हुई। (इसे विज्ञान की भाषा में इस तरह लिया जासकता है कि ब्रह्मा --ज्ञान व मन की शक्ति -- के भावानुसार -क्रमिक विकास होता गया
१, तमोगुणी --सोते समय की सृष्टि, तमोगुणी हुई, जो तिर्यक --अज्ञानी, भोगी, इच्छा वसी, क्रोध वश, विवेक शून्य, भ्रष्ट आचरण वाले --पशु पक्षी, पुरुषार्थ के अयोग्य ।
२,सत्व गुणी--देव -ज्ञान वान, विषय प्रेमी, दिव्य ये भी पुरुषार्थ के अयोग्य थे।
३.रजोगुणी --त़प व साधना के भाव में --मानव की रचना -जो अति -विक्सित प्राणी, क्रियाशील, साधन शील, तीनों गुणों युक्त-सत्, तम, रज--कर्म व लक्ष्योंमुखसुख-दुःख रूप, श्रेय-प्रेय के योग्य, द्वंद्व युक्त, ब्रह्म का सबसे उत्तम साधक हुआ। मानव की भाव कोटियों में --ब्रह्मा के तम-भावः देह से-आसुरी प्रवृत्ति, जानू से-वैश्यभावः व चरण से शूद्र भाव,--उस देह के त्याग से -रात्रि व अज्ञान- के भाव। सत्व भावः देह से -मुख से ब्राहमण भाव,पार्श्व से पितृ -गणव संध्या भाव, इस देह त्याग से दिन व उज्जवल ज्ञान के भाव । रजो भाव देह से काया से, काम व क्षुधा भाव, वक्ष से -क्षत्रिय, क्षात्र -भाव, शौर्य, इस देह त्याग से -उषा व उषा भाव।
विशिष्ट कोटियाँ --ब्रह्मा के प्रसन्न भाव गायन वादन में बने -गन्धर्व, अंधेरे में -राक्षस, यक्ष आदि भूखी सृष्टि, क्रोध में मुख पीला होने पर-क्रोधी व मांसाहारी, पिशाच आदि। पाँच मुखों से--(ज्ञान)--पूर्व मुख -ऋग्वेद, गायत्री, दक्षिण --यजु, ब्रहात्साम, पश्चिम --साम वेद, जगती छंद, उत्तर मुख -अथर्व, वैराग्य, पंचम मुख -आयुर्वेद ।
तत्पश्चात -ब्रहमचर्य, गृह, वानप्रस्थ व संन्यास, चारआश्रम व कर्म -विमुख लोगों के लिए -नर्क आदि के समस्त दंड विधान । यह ब्रह्मा का क्रमिक विकास विधान है, मानव का ज्ञान -अज्ञान- आदि से जैसा-जैसा भाव होता गया वैसा ही प्राणी -भाव बनता गया, (शायद गुणसूत्र- क्रोमोसोम, हेरेडिटी, स्वभाव आदि से क्रमिक विकास )
प्रलय या लय--आधुनिक विज्ञान के अनुसार --जब ब्रह्माण्ड के पिंड व कण अत्यधिक दूर-दूर होजाते हैं तो उनके मध्य अत्यधिक शीतलता से ऊर्जा की कमी से विकर्षण शक्ति कम होने लगती है एवं वे घनीभूत होना लगते हैं औरसमस्त सृष्टि के कण व ऊर्जा एक दूसरे में लय होकर पुनः एकात्मकता को प्राप्त करके ऊर्जा व त़प का सघन पिंड बन जाते हैं। पुनः नवीन सृष्टि हेतु तत्पर।
वैदिक विज्ञान के अनुसार--मानव की अति-सुखाभिलाषा से नए-नए तत्वों (अपः -तत्वों ---यथा प्लास्टिक) का निर्माण, अति-भौतिकता (सिर्फ़ पञ्च भूत रत) पूर्ण जीवन पद्धति, विलासिता, प्रदूषण, असत-अकर्म,अनाचार से (तत्व, भावना, अहं व ऊर्जा सभी के) सदाचार को भूलने से --देव -प्रकृति, धरती, अन्तरिक्ष, आकाश --त्रस्त होजाते हैं, उस कालरात्रि के आने पर, तब ब्रह्म पुनः संकल्प करता है कि अब में पुनः एक हो जाऊँ।और इस इच्छा के निमिष मात्र में ही लय क्रम प्रारंभ हो जाता है। सब कण, पदार्थ, ऊर्जा के हर रूप, काल व गति ---मूल द्रव्य में --महाविष्णु के नाभि केन्द्र में ---सघन पिंड में---अग्नि देव की दाडों में ( क्रिया शील ऊर्जा में )---अपः तत्व में ---मूल ऊर्जा (आदि माया)---महाकाश में ----हिरन्यगर्भ में ----अव्यक्त ब्रह्म में विलय हो जाता है ।
-----आगे मानव का, नर-नारी विकास, संकल्प, काम संकल्प, प्रज़नन प्रक्रिया, काम-सम्भोग सृष्टि (माहेश्वरी प्रजा) कि -(स्वचालित - ओटोमेटिक -संतति वृद्धि प्रक्रिया प्रारंभ )।
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'तस्लीम' में पढें - 'क्या फिर होगा 1918 जैसा मौत का ताण्डव?'
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’सृष्टि व जीवन’ पर यह आलेख श्रृंखला प्रस्तुत करने के लिये आभार ।
ReplyDeleteसुन्दरतम् लेख
ReplyDeleteजानकारी अच्छी, पर बहुत ही गूढ।
ReplyDeleteवैदिक ज्ञान की अदभुत व्याख्या।
ReplyDeleteज्ञानवर्धक !
ReplyDeleteआपने अच्छी जानकारी दी है, पर लगता है कि यह मेरे लिए गरिष्ठ हो गयी है। वैसे इस प्रस्तुति के लिए आपको धन्यवाद।
ReplyDeleteसुधी पाठकों के लिए इतना जोड़ दूं कि यह वेदों में वर्णित सृष्टि के जन्म का वर्णन है और भाष्य लेखक के हैं -सृष्टि के जन्म के आधुनिक विचार बिलकुल अलग से हैं जिस पर इस पृष्ठभूमि में पृथक से लेख इसके पश्चात उपलब्ध होंगें !
ReplyDeletejaankaaree to behtreen hai .
ReplyDelete@ अरविन्द मिश्रा जी, इस विषय में यदि एक साथ ही वैदिक एवं आधुनिक दोनों तरह के विचार पाठक के सामने रखें जाए तो शायद पाठक को समझने में ज्यादा आसानी रहेगी.....
ReplyDeleteवैदिक ज्ञान को समझना थोडा कठिन है क्युंकि वेद भौतिक जीवन की व्याख्या सुछ्म जीवन के सन्दर्भ मे करता है जब कि आधुनिक विज्ञान केवल भौतिक जीवन की व्याख्या करता है, इसीलिये वेद मे "तत्व" भी भाव है ।
ReplyDeletejaankari bahut achchee magar bahut hi jateel hai..
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