हर साल की तरह इस साल भी 14 जून को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा ' विश्व रक्तदान दिवस ' मनाया गया . इस संगठन ने वर...
हर साल की तरह इस साल भी 14 जून को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 'विश्व रक्तदान दिवस' मनाया गया . इस संगठन ने वर्ष 1997 में यह लक्ष्य रखा था कि विश्व के प्रमुख 124 देश अपने यहाँ स्वैच्छिक रक्तदान को ही बढ़ावा देंगे. अब तक लगभग 49 देशों ने ही इस पर अमल किया है.
तंजानिया जैसे देश में 80 प्रतिशत रक्तदाता पैसे नहीं लेते.मगर भारत जैसे कई देश हैं जहाँ रक्तदाता खून के बदले पैसे लेते हैं या रक्तदान को बढ़ावा देने के लिए उन्हें दिए जाते हैं.
ऐड्स जैसी संक्रामक बिमारियों की खबर जबसे जनसाधारण को मालूम हुई है तब से रक्तदान करने में लोग पहले से भी अधिक हिचकिचाते हैं.रक्तदान स्वास्थ्य और उम्र के लिहाज से किन लोगों को करना चाहिये और किन्हें नहीं ?..इस पर मैं इस लेख के पूरा होने पर लिखूंगी.
आज जानते हैं कि रक्तदान क्यों महादान या जीवनदान कहलाता है?
रुधिर. . .ख़ून जी हाँ, लाल रंग का यह तरल ऊतक हमारा जीवन-आधार है। हालाँकि हमारे शरीर में इसकी मात्रा मात्र चार से पाँच लीटर ही होती है, फिर भी यह हमारे लिए बहुमूल्य है। इसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन को चलाए रखने में यह कौन-कौन-सी भूमिका अदा करता है, इसकी लिस्ट तो लंबी-चौड़ी है फिर भी इसके कुछ मुख्य कार्य-कलापों पर दृष्टिपात करने पर ही इसके महत्व का पता चल जाता है।
शरीर की लाखों-करोड़ों कोशिकाओं को आक्सीजन तथा पचा-पचाया भोजन पहुँचा कर यह उनके ऊर्जा-स्तर को बनाए रखने से लेकर भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाता है। उन कोशिकाओं से कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा यूरिया जैसे विषैली गैसों एवं रसायनों को निकालने के कार्य में भी यह लगा रहता है। बीमारी पैदा करने वाले कीटाणुओं से तो यह लगातार लड़ता रहता है और उनके विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त एक अंग में निर्मित रसायनों, यथा हॉमोन्स को शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाने से लेकर शरीर के ताप को एकसार बनाए रखने, आदि तमाम कार्यों में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है।
इसकी संरचना में प्रयुक्त अवयवों के अनुपात में थोड़ा असंतुलन भी हमारे लिए तमाम परेशनियाँ खड़ी कर सकता है। यथा- सोडियम की ज़्यादा मात्रा रक्तचाप को बढ़ा देता है तो पानी की कमी हमें मौत के क़रीब पहुँचा सकती है और ऑयरन की कमी एनिमिक बना सकती है, आदि-आदि. . .।
जब इतने से ही इतना कुछ हो सकता है तो ज़रा सोचिए, जब यह पूरा का पूरा हमारे शरीर से निकलने लगे तब क्या होगा? और दुर्भाग्य से हमारे साथ ऐसा होता ही रहता है।छोटी-मोटी चोटें तो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है और इनसे निकलने वाले रक्त की कोई परवाह भी नहीं करता। कारण, हमारे शरीर में रक्त-निर्माण की प्रकिया शैने: शैने: सतत रूप से चलती ही रहती है। साथ ही रक्त में एक और गुण होता है और वह यह कि हवा के संपर्क में आते ही यह स्वत: जमने लगता है, जिसके कारण छोटे-मोटे घावों से निकलने वाला रक्त थोड़ी देर में स्वत: रुक जाता है।
चिंता का विषय तब होता है जब हमें बड़ी एवं गंभीर चोट लगती है। ऐसी स्थिति में बड़ी रक्त-वाहिनियाँ भी चोटिल हो सकती हैं। इन वाहिनियों से निकलने वाले रक्त का वेग इतना ज़्यादा होता है कि रक्त के स्वत: जमाव की प्रक्रिया को पूरा होने का अवसर ही नहीं मिलता और एक साथ थोड़े ही समय में शरीर से रक्त की इतनी अधिक मात्रा निकल जाती है कि व्यक्ति का जीवन संकट में आ जाता है। यदि समय से उसे चिकित्सा-सुविधा न मिले तो मौत निश्चित है। चिकित्सकों का पहला प्रयास रहता है कि रक्त-प्रवाह को किस प्रकार रोका जाय और फिर यदि शरीर से रक्त की मात्रा आवश्यकता से अधिक निकल गई हो तो बाहर से किस प्रकार रक्त की आपूर्ति की जाए।
बाहर से रक्त की आपूर्ति के संबंध में प्रयास एवं प्रयोग तो सत्रहवीं सदी से ही किए जा रहे थे। इन प्रयोगों में एक जानवर का रक्त दूसरे जानवर को प्रदान करने से ले कर जानवर का रक्त मनुष्य को प्रदान करने के प्रयास शामिल हैं। इनमें से अधिकांश प्रयोग असफल रहे तो कुछ संयोगवश आंशिक रूप से सफल भी रहे। 1885 में लैंड्यस ने अपने प्रयोंगों से यह दर्शाया कि जानवरों का रक्त मनुष्यों के लिए सर्वथा अनुचित है। कारण, मनुष्य के शरीर में जानवर के रक्त में पाए जाने वाली लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बन जाते है एवं ये थक्के रक्त वहिनियों को अवरुद्ध कर देते हैं जिससे मरीज़ मर सकता है।
ऐसे प्रयोगों के फलस्वरूप, मनुष्य के लिए मनुष्य का रक्त ही सर्वथा उचित है, यह बात तो चिकित्सकों ने उन्नीसवीं सदी में ही समझ ली थी और एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से रक्त प्राप्त कर ऐसे मरीज़ के शरीर में रक्त आपूर्ति की विधा भी विकसित कर ली गई थी एवं इसका उपयोग भी किया जा रहा था। लेकिन इसमें भी एक पेंच देखा गया- कभी तो इस प्रकार के रक्तदान के बाद मरीज़ बच जाते थे, तो कभी नहीं।
1905 में कार्ल लैंडस्टीनर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह दर्शाया कि सारे मनुष्यों का रक्त सारे मनुष्यों के लिए उचित नहीं है। ऐसे प्रयासों में भी कभी-कभी मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की रुधिर कणिकाओं के थक्के उसी प्रकार बनते हैं जैसा लैंड्यस ने जानवरों के रक्त के बारे में दर्शाया था।
1909 में लैंडस्टीनर ने अथक प्रयास के बाद यह दर्शाया कि किस प्रकार के मनुष्य का रक्त किसे दिया जा सकता है। उन्होंने पाया कि हमारी लाल रुधिर कणिकाओं के बाहरी सतह पर विशेष प्रकार के शर्करा ऑलिगोसैक्राइड्स से निर्मित एंटीजेन्स पाए जाते हैं। ये एंटीजन्स दो प्रकार के होते हैं- ए एवं बी। जिन लोगों की रक्तकाणिकाओं पर केवल ए एंटीजेन पाया जाता है उनके रक्त को ए ग्रुप का नाम दिया गया। इसी प्रकार केवल बी एंटीजेन वाले रक्त को बी ग्रुप तथा जिनकी रुधिर कणिकाओं पर दोनों ही प्रकार के एंटीजेन पाए जाते हैं उनके रक्त को एबी ग्रुप एवं जिनकी रक्तकणिकाओं में ये दोनों एंटीजेन्स नहीं पाए जाते उनके रक्त को ओ ग्रुप का नाम दिया गया। सामान्यतया अपने ग्रुप अथवा ओ ग्रुप वाले व्यक्ति से मिलने वाले रक्त से मरीज़ को कोई समस्या नहीं होती, लेकिन जब किसी मरीज़ को किसी अन्य ग्रुप के व्यक्ति (ए,बी या फिर एबी) रक्त दिया जाता है तो मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बनने लगते हैं।
कहने का तात्पर्य यह कि ए का रक्त बी, ओ में से किसी को नहीं दिया जा सकता; बी का रक्त ए एवं ओ को नहीं दिया जा सकता और एबी का रक्त तो किसी को नहीं दिया जा सकता। परंतु एबी (युनिवर्सल रिसीपिएंट) को किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जा सकता है तथा ओ (युनिवर्सल डोनर) किसी को भी रक्त दे सकता है।
ऐसा क्यों होता है? इसे पता लगाने के प्रयास में यह पाया गया कि किसी भी व्यक्ति के रक्त के तरल भाग प्लाज़्मा में एक अन्य रसायन एंटीबॉडी पाया जाता है। यह रसायन उस व्यक्ति की लाल रुधिर काणिकाओं के उलट होता है। ए ग्रुप में बी एंटीबॉडी मिलता है तो बी में ए एवं ओ में दोनों एंटीबॉडीज़ मिलते हैं। परंतु एबी में ऐसे किसी भी एंटीबॉडीज़ का अभाव होता है। एक ही प्रकार के एंटीजेन एवं एंटीबॉडी के बीच होने वाली प्रतिक्रिया के फलस्वरूप रुधिर कणिकाएँ आपस में चिपकने लगती हैं, जिससे इनका थक्का बनने लगता है। यही कारण है कि जब ए का रक्त बी को दिया जाता है मरीज के रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी ए दाता के लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने एंटीबॉडी ए से प्रतिक्रिया कर उनका थक्का बनाने लगते हैं।
यही बात तब भी होती है जब बी का रक्त ए को दिया जाता है। चूँकि ओ में दोनों ही एंटीबॉडीज़ मिलते हैं अत: ऐसे मरीज़ को ए,बी अथवा एबी, किसी का रक्त दिए जाने पर उसमें पाए जाने वाली रुधिर कणिकाओं का थक्का बनना स्वाभाविक है। इसके उलट, एबी में कोई भी एंटीबाडी नहीं होता अत: इसे किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जाय थक्का नहीं बनेगा। रक्तदान के पूर्व दाता एवं मरीज़ दोनों के रक्त का ग्रुप पता करने की विधा भी खोज निकाली गई। [जारी है...................]
आगे क्या हुआ यह जानने के लिए इस लेख का अगला भाग पढिये ....
तंजानिया जैसे देश में 80 प्रतिशत रक्तदाता पैसे नहीं लेते.मगर भारत जैसे कई देश हैं जहाँ रक्तदाता खून के बदले पैसे लेते हैं या रक्तदान को बढ़ावा देने के लिए उन्हें दिए जाते हैं.
ऐड्स जैसी संक्रामक बिमारियों की खबर जबसे जनसाधारण को मालूम हुई है तब से रक्तदान करने में लोग पहले से भी अधिक हिचकिचाते हैं.रक्तदान स्वास्थ्य और उम्र के लिहाज से किन लोगों को करना चाहिये और किन्हें नहीं ?..इस पर मैं इस लेख के पूरा होने पर लिखूंगी.
आज जानते हैं कि रक्तदान क्यों महादान या जीवनदान कहलाता है?
रक्तदान महादान है
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-डॉ.गुरु दयाल प्रदीप
रुधिर. . .ख़ून जी हाँ, लाल रंग का यह तरल ऊतक हमारा जीवन-आधार है। हालाँकि हमारे शरीर में इसकी मात्रा मात्र चार से पाँच लीटर ही होती है, फिर भी यह हमारे लिए बहुमूल्य है। इसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन को चलाए रखने में यह कौन-कौन-सी भूमिका अदा करता है, इसकी लिस्ट तो लंबी-चौड़ी है फिर भी इसके कुछ मुख्य कार्य-कलापों पर दृष्टिपात करने पर ही इसके महत्व का पता चल जाता है।
शरीर की लाखों-करोड़ों कोशिकाओं को आक्सीजन तथा पचा-पचाया भोजन पहुँचा कर यह उनके ऊर्जा-स्तर को बनाए रखने से लेकर भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाता है। उन कोशिकाओं से कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा यूरिया जैसे विषैली गैसों एवं रसायनों को निकालने के कार्य में भी यह लगा रहता है। बीमारी पैदा करने वाले कीटाणुओं से तो यह लगातार लड़ता रहता है और उनके विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त एक अंग में निर्मित रसायनों, यथा हॉमोन्स को शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाने से लेकर शरीर के ताप को एकसार बनाए रखने, आदि तमाम कार्यों में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है।
इसकी संरचना में प्रयुक्त अवयवों के अनुपात में थोड़ा असंतुलन भी हमारे लिए तमाम परेशनियाँ खड़ी कर सकता है। यथा- सोडियम की ज़्यादा मात्रा रक्तचाप को बढ़ा देता है तो पानी की कमी हमें मौत के क़रीब पहुँचा सकती है और ऑयरन की कमी एनिमिक बना सकती है, आदि-आदि. . .।
जब इतने से ही इतना कुछ हो सकता है तो ज़रा सोचिए, जब यह पूरा का पूरा हमारे शरीर से निकलने लगे तब क्या होगा? और दुर्भाग्य से हमारे साथ ऐसा होता ही रहता है।छोटी-मोटी चोटें तो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है और इनसे निकलने वाले रक्त की कोई परवाह भी नहीं करता। कारण, हमारे शरीर में रक्त-निर्माण की प्रकिया शैने: शैने: सतत रूप से चलती ही रहती है। साथ ही रक्त में एक और गुण होता है और वह यह कि हवा के संपर्क में आते ही यह स्वत: जमने लगता है, जिसके कारण छोटे-मोटे घावों से निकलने वाला रक्त थोड़ी देर में स्वत: रुक जाता है।
चिंता का विषय तब होता है जब हमें बड़ी एवं गंभीर चोट लगती है। ऐसी स्थिति में बड़ी रक्त-वाहिनियाँ भी चोटिल हो सकती हैं। इन वाहिनियों से निकलने वाले रक्त का वेग इतना ज़्यादा होता है कि रक्त के स्वत: जमाव की प्रक्रिया को पूरा होने का अवसर ही नहीं मिलता और एक साथ थोड़े ही समय में शरीर से रक्त की इतनी अधिक मात्रा निकल जाती है कि व्यक्ति का जीवन संकट में आ जाता है। यदि समय से उसे चिकित्सा-सुविधा न मिले तो मौत निश्चित है। चिकित्सकों का पहला प्रयास रहता है कि रक्त-प्रवाह को किस प्रकार रोका जाय और फिर यदि शरीर से रक्त की मात्रा आवश्यकता से अधिक निकल गई हो तो बाहर से किस प्रकार रक्त की आपूर्ति की जाए।
बाहर से रक्त की आपूर्ति के संबंध में प्रयास एवं प्रयोग तो सत्रहवीं सदी से ही किए जा रहे थे। इन प्रयोगों में एक जानवर का रक्त दूसरे जानवर को प्रदान करने से ले कर जानवर का रक्त मनुष्य को प्रदान करने के प्रयास शामिल हैं। इनमें से अधिकांश प्रयोग असफल रहे तो कुछ संयोगवश आंशिक रूप से सफल भी रहे। 1885 में लैंड्यस ने अपने प्रयोंगों से यह दर्शाया कि जानवरों का रक्त मनुष्यों के लिए सर्वथा अनुचित है। कारण, मनुष्य के शरीर में जानवर के रक्त में पाए जाने वाली लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बन जाते है एवं ये थक्के रक्त वहिनियों को अवरुद्ध कर देते हैं जिससे मरीज़ मर सकता है।
ऐसे प्रयोगों के फलस्वरूप, मनुष्य के लिए मनुष्य का रक्त ही सर्वथा उचित है, यह बात तो चिकित्सकों ने उन्नीसवीं सदी में ही समझ ली थी और एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से रक्त प्राप्त कर ऐसे मरीज़ के शरीर में रक्त आपूर्ति की विधा भी विकसित कर ली गई थी एवं इसका उपयोग भी किया जा रहा था। लेकिन इसमें भी एक पेंच देखा गया- कभी तो इस प्रकार के रक्तदान के बाद मरीज़ बच जाते थे, तो कभी नहीं।
1905 में कार्ल लैंडस्टीनर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह दर्शाया कि सारे मनुष्यों का रक्त सारे मनुष्यों के लिए उचित नहीं है। ऐसे प्रयासों में भी कभी-कभी मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की रुधिर कणिकाओं के थक्के उसी प्रकार बनते हैं जैसा लैंड्यस ने जानवरों के रक्त के बारे में दर्शाया था।
1909 में लैंडस्टीनर ने अथक प्रयास के बाद यह दर्शाया कि किस प्रकार के मनुष्य का रक्त किसे दिया जा सकता है। उन्होंने पाया कि हमारी लाल रुधिर कणिकाओं के बाहरी सतह पर विशेष प्रकार के शर्करा ऑलिगोसैक्राइड्स से निर्मित एंटीजेन्स पाए जाते हैं। ये एंटीजन्स दो प्रकार के होते हैं- ए एवं बी। जिन लोगों की रक्तकाणिकाओं पर केवल ए एंटीजेन पाया जाता है उनके रक्त को ए ग्रुप का नाम दिया गया। इसी प्रकार केवल बी एंटीजेन वाले रक्त को बी ग्रुप तथा जिनकी रुधिर कणिकाओं पर दोनों ही प्रकार के एंटीजेन पाए जाते हैं उनके रक्त को एबी ग्रुप एवं जिनकी रक्तकणिकाओं में ये दोनों एंटीजेन्स नहीं पाए जाते उनके रक्त को ओ ग्रुप का नाम दिया गया। सामान्यतया अपने ग्रुप अथवा ओ ग्रुप वाले व्यक्ति से मिलने वाले रक्त से मरीज़ को कोई समस्या नहीं होती, लेकिन जब किसी मरीज़ को किसी अन्य ग्रुप के व्यक्ति (ए,बी या फिर एबी) रक्त दिया जाता है तो मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बनने लगते हैं।
कहने का तात्पर्य यह कि ए का रक्त बी, ओ में से किसी को नहीं दिया जा सकता; बी का रक्त ए एवं ओ को नहीं दिया जा सकता और एबी का रक्त तो किसी को नहीं दिया जा सकता। परंतु एबी (युनिवर्सल रिसीपिएंट) को किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जा सकता है तथा ओ (युनिवर्सल डोनर) किसी को भी रक्त दे सकता है।
ऐसा क्यों होता है? इसे पता लगाने के प्रयास में यह पाया गया कि किसी भी व्यक्ति के रक्त के तरल भाग प्लाज़्मा में एक अन्य रसायन एंटीबॉडी पाया जाता है। यह रसायन उस व्यक्ति की लाल रुधिर काणिकाओं के उलट होता है। ए ग्रुप में बी एंटीबॉडी मिलता है तो बी में ए एवं ओ में दोनों एंटीबॉडीज़ मिलते हैं। परंतु एबी में ऐसे किसी भी एंटीबॉडीज़ का अभाव होता है। एक ही प्रकार के एंटीजेन एवं एंटीबॉडी के बीच होने वाली प्रतिक्रिया के फलस्वरूप रुधिर कणिकाएँ आपस में चिपकने लगती हैं, जिससे इनका थक्का बनने लगता है। यही कारण है कि जब ए का रक्त बी को दिया जाता है मरीज के रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी ए दाता के लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने एंटीबॉडी ए से प्रतिक्रिया कर उनका थक्का बनाने लगते हैं।
यही बात तब भी होती है जब बी का रक्त ए को दिया जाता है। चूँकि ओ में दोनों ही एंटीबॉडीज़ मिलते हैं अत: ऐसे मरीज़ को ए,बी अथवा एबी, किसी का रक्त दिए जाने पर उसमें पाए जाने वाली रुधिर कणिकाओं का थक्का बनना स्वाभाविक है। इसके उलट, एबी में कोई भी एंटीबाडी नहीं होता अत: इसे किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जाय थक्का नहीं बनेगा। रक्तदान के पूर्व दाता एवं मरीज़ दोनों के रक्त का ग्रुप पता करने की विधा भी खोज निकाली गई। [जारी है...................]
आगे क्या हुआ यह जानने के लिए इस लेख का अगला भाग पढिये ....
लेखक- डॉ.गुरु दयाल प्रदीप (प्रस्तुति -अल्पना वर्मा)
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'तस्लीम' में पढें - ' सर्व मनोकामना पूर्ण मंत्र'
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रक्त आधान पर बहुत जानकारी परक लेख !
ReplyDeleteजानकारी तो बहुत उत्तम है। पर इतना तो तय है कि खून करने से खून देना अवश्य ही आसान होता होगा।
ReplyDeleteबहुत उम्दा जानकारी से भरपूर आलेख. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी .
ReplyDeleteहमारी जानकारी को बढ़ानेवाले इस लेख के लिए आभार।
ReplyDeleteइस ज्ञान वर्धक लेख के लिए बधाई और आभार भी..
ReplyDeleteमैँ अब तक दस बार रक्तदान कर चुका हूँ और आगे भी करते रहने का इरादा है
ReplyDeleteकालेज के दिनों में दोस्त दूर भागते थे... कि इसके पास बैठे तो रक्तदान करवा कर ही मानेगा..
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख.. शुक्रिया..
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ReplyDelete@जाकिर जी ,धन्यवाद इस लेख को प्रकाशित करने के लिए.
ReplyDeleteमैं ने इस लेख का शीर्षक
'रक्तदान महादान क्यों है?'रखा था ,जो विषय वस्तु के स्वभाव से ज्यादा मेल खाता था,
आप ने इसे जो नया शीर्षक 'खून देना क्या इतना मुश्किल होता है?' दिया है ,वह एक बहस की शुरुआत के लिए उठाया गया प्रश्न लगता है.
इस प्रश्न का जवाब -सहमती-असहमति -या -नहीं मालूम --हो सकते हैं-जो प्रस्तुत विषय वस्तु के स्वभाव से दूर है.
मगर ,
इस लेख का उद्देश्य रुधिर के बारे में ,उनके वर्ग ,वर्ग करने का आधार और रक्तदान की आवश्यकता और इसके महत्व के विषय में ज्ञान का प्रसार करना है,जिस से जन साधारण इस विषय में और जागरूक हो सकें.
रक्तदान कतई मुश्किल काम नहीं है, मैं खुद लगभग 15-17 बार रक्त दान कर चुका हूँ… इसमें सबसे बड़ी बात मिलती है वह है "संतोष"… जो लोग इससे डरते हैं उन्हें समझाने की आवश्यकता है…
ReplyDeleteलाल अक्षरों में-"कहने का तात्पर्य है....." मेंऊपर की पन्क्तियों में, कुछ लिखने में भ्रम है। एबी ग्रुप युनिवर्सल रिसीपिएन्ट है,अतः वह ए,बी, एबी व ओ सभी का रक्त ले सकता है,तथा एबी का रक्त एबी ही ले सकता है।जैसा कि आपने स्वयम बताया है। ओ सभी को दे सकता है,परन्तु सिर्फ़ ओ का ही ले सकता है.
ReplyDeleteअल्पना जी, मैंने आपके लेख का शीर्षक पाठकों के नजरिए से किया मैंने ब्लॉगिंग के दो तीन सालों के अनुभव के दौरान पाया है कि आप कितने ही ज्वलंत विषय पर कितना ही उत्कृष्ट आलेख क्यों न लिखें, उसे लोग पढने नहीं आते। लेकिन यदि लेख का शीर्षक बदल कर आकर्षक कर दिया जाए, तो उस पर होने वाले हिट की संख्या कई गुना बढ जाती है।
ReplyDeleteयदि आपको मेरा यह कार्य पसंद न आया हो, तो इसके लिए मैं खेद व्यक्त करता हूं।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
रक्त के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी मिल रही है इस श्रंखला से.
ReplyDelete@डॉ.श्याम गुप्ता जी,आप ने पोस्ट में गलती की ओर ध्यान दिलाया .बहुत बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteउस टंकण त्रुटी को विवरण में ठीक कर लिया है.
@जाकिर जी ,जी हाँ समझ गयी.कोई बात नहीं,
वास्तव में , यह लेख डॉ.प्रदीप सर का लिखा है ,मैं उनसे अनुमति ले कर ही उनके लिखे में कोई बदलाव करती हूँ.इस लिए इस बदलाव का आप से कारण पूछा.ताकि अगर कभी वे पूछें तो जवाब दे सकूँ.अन्यथा कोई ओर बात नहीं है.
आभार.
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ReplyDeleteबी एस सी क्लासेस में पढी गयी जानकारी आज फिर से दोहरा गयी। इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार। अगली कडी की प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeletevery lucid presentation of fact file in most palatable languiage .superstitions ,myth and reality is to be constantly exploded.write an article on BALDNESS which relares to lack of nutrition and is incurable by the said varieties of oils.Hair grafting advisable if you really want to become a BABOON.pl write on this subject of topical interest in HINDI,.thanx and congrates.veerubhai .
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