अंधविश्वास, जादू-टोना, चमत्कार,ज्योतिष, धर्म,अध्यात्म आदि को लेकर कुछ बहसें आजकल कुछ ब्लागस् पर दिखाई दे रही हैं। ' तस्लीम ' ब्लाग प...
अंधविश्वास, जादू-टोना, चमत्कार,ज्योतिष, धर्म,अध्यात्म आदि को लेकर कुछ बहसें आजकल कुछ ब्लागस् पर दिखाई दे रही हैं। 'तस्लीम' ब्लाग पर भाई ज़ाकिर अली रजनीश ने एक ज़रुरी और प्रासंगिक मोड़ देते हुए मुद्दा रखा कि ‘अंध-विश्वास से जूझे बिना क्या नारी-मुक्ति संभव है ?’ अशोक कुमार पाण्डेय और मुझ समेत कुछ मित्रों का मानना है कि स्त्री को अंध-विश्वास से भी पहले धर्म से जूझना होगा। या कि धर्म स्वयं में एक अंधविश्वास है।
कुछ दिन पहले मित्र लवली कुमारी के ब्लाग पर एक पोस्ट पढ़ी थी जिसके अनुसार अंधविश्वासी लोग स्क्ज़िोफ्रीनिया नामक मनोरोग का शिकार होते हैं। मगर हैरानी की बात यह है कि 'तस्लीम' ब्लाग की इस चर्चा में लवली जी को आस्था को चोट न पहुंचाने का पक्षकार बताया जा रहा है। बहरहाल, इस संदर्भ में तो लवली जी ख़ुद ही स्थिति स्पष्ट करेंगी। इस बहस में आए कुछ मुद्दों पर मेरा भी बात करने का मन हुआ।
ऐसे सवाल बार-बार सामने रख दिए जाते हैं कि धर्म अलग है, अध्यात्म अलग है, जादू-टोना अलग है, अंध-विश्वास अलग है। कैसे अलग हैं ? आप ही बता दीजिए ना।
जब मूर्तियों ने दूध पिया तो वह क्या था? क्या सिर्फ गांव के या अनपढ़ लोग दूध पिला रहे थे? क्या झुमरी तलैया, क्या टिम्बकटू, क्या, अलीगढ़, क्या दिल्ली, क्या हैदराबाद, क्या लंदन, क्या न्यूयार्क! कपड़ों, मूर्तियों, दूध की क्वालिटी के अलावा और कोई फर्क था वहां? चलिए आप ही बता दीजिए यह जादू-टोना था, धर्म था, अंध-विश्वास था, अध्यात्म था, क्या था? चलिए बताईए कि लाउड-स्पीकर लगाकर नमाज़ या जागरन करने में धर्म है या अध्यात्म है? जो लोग यह कहते हैं कि हमारी आस्था को चोट पहुंचाए बिना बात कीजिए क्या वे जानते हैं कि इसकी शुरुआत कहां से होती है? क्या रात भर चिल्लाने की इजाज़त लेने वे कभी किसी पड़ोसी के पास जाते हैं? क्या सड़को पर कथित धार्मिक, आध्यात्मिक या वैवाहिक मजमे लगाने से पहले वे किसी की सुविधा-असुविधा के बारे में सोचते हैं? जब मन आया, जहां मन आया तान दिया तम्बू और फ़िर भी कह दिया ख़ुदको धार्मिक-आध्यात्मिक !
कई मित्र तर्क देते हैं कि कई वैज्ञानिक भी धर्म/ईश्वर में आस्था रखते थे। इसका जवाब बहुत ही आसान है। एक व्यक्तित्व आपका वह होता है जो आपके परिवार, परिवेश, समाज और संस्कारों से मिला होता है। अगर कोई आस्तिक परिवार में पैदा हुआ है तो सहज है कि वह आस्तिक होगा । एकाध अपवाद की बात अलग है। एक दूसरा व्यक्तिव है जो आपको प्रकृति से मिलता है। जिसके चलते कोई गायक, चिंतक, लेखक, क्रिकेटर या वैज्ञानिक आदि बनता है। साफ़ है कि इनमें से कोई अगर नास्तिक घर में पैदा हुआ तो वो नास्तिक गायक हो जाएगा। कोई आस्तिक घर में पैदा हुआ तो आस्तिक वैज्ञानिक हो जाएगा। वैज्ञानिक भी मेरी समझ में कम-अज़-कम दो तरह के तो होते ही हैं, ज़्यादा भी हो सकते हैं। एक तो रुटीन वैज्ञानिक होते हैं या अपनी नौकरी के चलते वैज्ञानिक होते हैं। दूसरे वे होते हैं जो हर वक्त उखाड़-पछाड़, खोज-बीन या सवाल-जवाब में लगे रहते हैं। ऐसे ही वैज्ञानिक खोजें या आविष्कार करते हैं। सभी नहीं करते। अब जो लोग इसलिए वैज्ञानिक हो गए कि कोई सबजेक्ट तो पढ़ना ही है या कोई नौकरी तो करनी ही है या और कोई विकल्प नहीं है तो यही सही। उनसे बहुत ज़्यादा उम्मीदें रखनी भी नहीं चाहिएं, हां अपवाद यहां भी हो सकते हैं।
एक नास्तिक अपनी ज़िंदगी धर्म या आध्यात्म के बिना आसानी से गुज़ार सकता है बशर्ते कि कथित आस्तिक क़दम-क़दम पर उसे परेशान न करें। मगर एक भी चमत्कारी बाबा आज की तारीख में बिना विज्ञान के एक कदम भी नहीं चल सकता। उसकी धोती, उसका चश्मा, उसका माइक, उसके ट्रक, उसके ए.सी., उसका फोटू और उसमें से निकलने वाला पाउडर, उसके मुंह से निकलने वाले आर्टीफिशयल लड्डू, उसके स्टाल, उसके पंडाल, उसका सिहांसन, उसके नकली फव्वारे और पिचकारियां, एक भी चीज़ ऐसी नहीं है जो बिना विज्ञान के बनी हो। सब कुछ विज्ञान का और विज्ञान को ही गालियां। अब इसे क्या कहें ? इस महान भावना के लिए जो भी शब्द आपके दिमाग में आता हो कृपया ख़ुद ही जोड़ लें।
हममें से कई लोग विवाह-समारोहों में आते-जाते हैं। वहां हमें कितने लोग ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिनकी आंखों में वहां चल रहे दहेज, लेन-देन या वधू-पक्ष को नीचा ठहराने वाले क्रिया-कलापों को लेकर नाराज़गी या आक्रोश दिखाई पड़ते हैं ? पुरुषों को छोड़िए, लगभग सभी स्त्रियां भी वहां सामान्य भाव से विचर रही होती हैं। तब हम कैसे मानें कि स्त्रियां ज़्यादा संवेदनशील होती हैं? हमें कष्ट तभी होता है या विरोध हम तभी करते हैं जब हमारे पास देने को नहीं होता या अत्याचार की सारी सीमाएं टूट जाती हैं। बात को यहां तक लाने के पीछे मेरा आशय यह है कि स्त्री और पुरुष में प्राकृतिक भेद क्या होते हैं यह पूरी तरह तय होना अभी बाकी है। मगर त्याग, बलिदान, ममता आदि-आदि जो भी स्त्री के प्राकृतिक गुण बताए गए, उससे स्त्री का अपना नुकसान अच्छा-खासा हुआ। मेरा मानना है कि स्त्री हो या पुरुष दोनों ही के धर्म या ईश्वर की शरण में जाने की दो ही मुख्य वजह होती हैं-डर और लालच। कि हम किसी से डरे हुए हैं और अब तो ईश्वर ही हमारी रक्षा कर सकता है। या हमारी कुछ मनोकामनाएं ऐसी हैं जिन्हें ईश्वर ही पूरी कर सकता है। और जहां तक डर का मामला है तो इसमें क्या शक हो सकता है कि स्त्रियां ज़्यादा डरी होती हैं?
ठीक है आपको कथित धर्म, परंपरा, ‘देसियत’ का पालन करने में इतनी रुचि है तो पूरी तरह करिए ना। सती-प्रथा को वापिस लाईए, बाल-विवाह को बढ़ावा दीजिए, वृंदावन जैसे विधवा-आश्रमों की नयी शाखाएं खुलवाईए। परदों-बुरकों को वापिस लाईए। बच्चों समेत ख़ुद भी संस्कृत और फारसी पढ़िए, लिखिए और बोलिए (और कुछ रह गया हो तो ख़ुद ही जोड़ लीजिए)। कौन मना करता है ?
यहां पर यह पुराना मुद्दा भी उठ सकता है कि भई आप तो पुरुष हैं आप स्त्री की परेशानियों को क्या जानें, भोगती तो वही हैं। बात तो ठीक है। पारंपरिक अर्थों में न तो हम स्त्री हैं न दलित-वंचित। पाखंडियों में पाखंडी बनकर जीने में हमें पहले से ज्यादा आसानी हो रहेगी। सोचा जा सकता है।
कुछ दिन पहले मित्र लवली कुमारी के ब्लाग पर एक पोस्ट पढ़ी थी जिसके अनुसार अंधविश्वासी लोग स्क्ज़िोफ्रीनिया नामक मनोरोग का शिकार होते हैं। मगर हैरानी की बात यह है कि 'तस्लीम' ब्लाग की इस चर्चा में लवली जी को आस्था को चोट न पहुंचाने का पक्षकार बताया जा रहा है। बहरहाल, इस संदर्भ में तो लवली जी ख़ुद ही स्थिति स्पष्ट करेंगी। इस बहस में आए कुछ मुद्दों पर मेरा भी बात करने का मन हुआ।
ऐसे सवाल बार-बार सामने रख दिए जाते हैं कि धर्म अलग है, अध्यात्म अलग है, जादू-टोना अलग है, अंध-विश्वास अलग है। कैसे अलग हैं ? आप ही बता दीजिए ना।
जब मूर्तियों ने दूध पिया तो वह क्या था? क्या सिर्फ गांव के या अनपढ़ लोग दूध पिला रहे थे? क्या झुमरी तलैया, क्या टिम्बकटू, क्या, अलीगढ़, क्या दिल्ली, क्या हैदराबाद, क्या लंदन, क्या न्यूयार्क! कपड़ों, मूर्तियों, दूध की क्वालिटी के अलावा और कोई फर्क था वहां? चलिए आप ही बता दीजिए यह जादू-टोना था, धर्म था, अंध-विश्वास था, अध्यात्म था, क्या था? चलिए बताईए कि लाउड-स्पीकर लगाकर नमाज़ या जागरन करने में धर्म है या अध्यात्म है? जो लोग यह कहते हैं कि हमारी आस्था को चोट पहुंचाए बिना बात कीजिए क्या वे जानते हैं कि इसकी शुरुआत कहां से होती है? क्या रात भर चिल्लाने की इजाज़त लेने वे कभी किसी पड़ोसी के पास जाते हैं? क्या सड़को पर कथित धार्मिक, आध्यात्मिक या वैवाहिक मजमे लगाने से पहले वे किसी की सुविधा-असुविधा के बारे में सोचते हैं? जब मन आया, जहां मन आया तान दिया तम्बू और फ़िर भी कह दिया ख़ुदको धार्मिक-आध्यात्मिक !
कई मित्र तर्क देते हैं कि कई वैज्ञानिक भी धर्म/ईश्वर में आस्था रखते थे। इसका जवाब बहुत ही आसान है। एक व्यक्तित्व आपका वह होता है जो आपके परिवार, परिवेश, समाज और संस्कारों से मिला होता है। अगर कोई आस्तिक परिवार में पैदा हुआ है तो सहज है कि वह आस्तिक होगा । एकाध अपवाद की बात अलग है। एक दूसरा व्यक्तिव है जो आपको प्रकृति से मिलता है। जिसके चलते कोई गायक, चिंतक, लेखक, क्रिकेटर या वैज्ञानिक आदि बनता है। साफ़ है कि इनमें से कोई अगर नास्तिक घर में पैदा हुआ तो वो नास्तिक गायक हो जाएगा। कोई आस्तिक घर में पैदा हुआ तो आस्तिक वैज्ञानिक हो जाएगा। वैज्ञानिक भी मेरी समझ में कम-अज़-कम दो तरह के तो होते ही हैं, ज़्यादा भी हो सकते हैं। एक तो रुटीन वैज्ञानिक होते हैं या अपनी नौकरी के चलते वैज्ञानिक होते हैं। दूसरे वे होते हैं जो हर वक्त उखाड़-पछाड़, खोज-बीन या सवाल-जवाब में लगे रहते हैं। ऐसे ही वैज्ञानिक खोजें या आविष्कार करते हैं। सभी नहीं करते। अब जो लोग इसलिए वैज्ञानिक हो गए कि कोई सबजेक्ट तो पढ़ना ही है या कोई नौकरी तो करनी ही है या और कोई विकल्प नहीं है तो यही सही। उनसे बहुत ज़्यादा उम्मीदें रखनी भी नहीं चाहिएं, हां अपवाद यहां भी हो सकते हैं।
एक नास्तिक अपनी ज़िंदगी धर्म या आध्यात्म के बिना आसानी से गुज़ार सकता है बशर्ते कि कथित आस्तिक क़दम-क़दम पर उसे परेशान न करें। मगर एक भी चमत्कारी बाबा आज की तारीख में बिना विज्ञान के एक कदम भी नहीं चल सकता। उसकी धोती, उसका चश्मा, उसका माइक, उसके ट्रक, उसके ए.सी., उसका फोटू और उसमें से निकलने वाला पाउडर, उसके मुंह से निकलने वाले आर्टीफिशयल लड्डू, उसके स्टाल, उसके पंडाल, उसका सिहांसन, उसके नकली फव्वारे और पिचकारियां, एक भी चीज़ ऐसी नहीं है जो बिना विज्ञान के बनी हो। सब कुछ विज्ञान का और विज्ञान को ही गालियां। अब इसे क्या कहें ? इस महान भावना के लिए जो भी शब्द आपके दिमाग में आता हो कृपया ख़ुद ही जोड़ लें।
हममें से कई लोग विवाह-समारोहों में आते-जाते हैं। वहां हमें कितने लोग ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिनकी आंखों में वहां चल रहे दहेज, लेन-देन या वधू-पक्ष को नीचा ठहराने वाले क्रिया-कलापों को लेकर नाराज़गी या आक्रोश दिखाई पड़ते हैं ? पुरुषों को छोड़िए, लगभग सभी स्त्रियां भी वहां सामान्य भाव से विचर रही होती हैं। तब हम कैसे मानें कि स्त्रियां ज़्यादा संवेदनशील होती हैं? हमें कष्ट तभी होता है या विरोध हम तभी करते हैं जब हमारे पास देने को नहीं होता या अत्याचार की सारी सीमाएं टूट जाती हैं। बात को यहां तक लाने के पीछे मेरा आशय यह है कि स्त्री और पुरुष में प्राकृतिक भेद क्या होते हैं यह पूरी तरह तय होना अभी बाकी है। मगर त्याग, बलिदान, ममता आदि-आदि जो भी स्त्री के प्राकृतिक गुण बताए गए, उससे स्त्री का अपना नुकसान अच्छा-खासा हुआ। मेरा मानना है कि स्त्री हो या पुरुष दोनों ही के धर्म या ईश्वर की शरण में जाने की दो ही मुख्य वजह होती हैं-डर और लालच। कि हम किसी से डरे हुए हैं और अब तो ईश्वर ही हमारी रक्षा कर सकता है। या हमारी कुछ मनोकामनाएं ऐसी हैं जिन्हें ईश्वर ही पूरी कर सकता है। और जहां तक डर का मामला है तो इसमें क्या शक हो सकता है कि स्त्रियां ज़्यादा डरी होती हैं?
ठीक है आपको कथित धर्म, परंपरा, ‘देसियत’ का पालन करने में इतनी रुचि है तो पूरी तरह करिए ना। सती-प्रथा को वापिस लाईए, बाल-विवाह को बढ़ावा दीजिए, वृंदावन जैसे विधवा-आश्रमों की नयी शाखाएं खुलवाईए। परदों-बुरकों को वापिस लाईए। बच्चों समेत ख़ुद भी संस्कृत और फारसी पढ़िए, लिखिए और बोलिए (और कुछ रह गया हो तो ख़ुद ही जोड़ लीजिए)। कौन मना करता है ?
यहां पर यह पुराना मुद्दा भी उठ सकता है कि भई आप तो पुरुष हैं आप स्त्री की परेशानियों को क्या जानें, भोगती तो वही हैं। बात तो ठीक है। पारंपरिक अर्थों में न तो हम स्त्री हैं न दलित-वंचित। पाखंडियों में पाखंडी बनकर जीने में हमें पहले से ज्यादा आसानी हो रहेगी। सोचा जा सकता है।
संजय जी, आपने दिल खोलकर सच लिख डाला है। हमारा समाज भले ही स्वयं को सच्चाई का शूरमा बताता रहे, पर उसे सबसे सामने स्वीकारने की हिम्मत नहीं दिखा पाता इसीलिए सुविधापकर सच का उपयोग करता है। यही सुविधापरक सच आज सर्वत्र व्याप्त है। पता नहीं, ये पपड़ी उखड़ेगी अथवा नहीं?
ReplyDeleteइस सचाई पर कुर्बान हुआ जा सकता है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!
ReplyDeleteसच को आइना दिखाती पोस्ट!
बेहद खूबसूरत और प्रभावी प्रविष्टि ।
ReplyDeleteयह सच है 100 प्रतिशत सच और इसका सामना किया जना चाहिये । हमारे देश का हर व्यक्ति स्त्री पुरुष, डॉक्तर , कलाकार वैज्ञानिक, नेता , कलेक्टर, कवि, व्यवसायी इसी दोहरे व्यक्तित्व का शिकार है और इसे सायास दूर किये जाने की ज़रूरत है । इसे कैसे किया जा सकता है मै कुछ समय बाद इस पर एक श्रंखला शुरू कर रहा हूँ । इस सम्दर्भ मे कुमार अम्बुज के ब्लॉग पर लेख' धर्म का विकल्प 'अदेखा जा सकता है ।
ReplyDeleteशरद भाई, जब भी इसे शुरु करें, कृपया सूचित ज़रुर करें। कुमार अंबुज जी ने 4 लेखों की एक श्रृंखला में बहुत अच्छा विवेचन अपने ब्लाग पर किया था। जिसका मैं ज़िक्र करना चाहता था पर ऐन वक्त पर भूल गया।
ReplyDeleteunka url :-
ReplyDeletewww.kumarambuj.blogspot.com
असल में शीला जी ने अघ्यात्मिक आदमी की जो परिभाषा दी है वो दरअसल एक अच्छे, संवेदनशील, विवेकवान व्यक्ति की परिभाषा है। फिर अध्यात्मिक शब्द की अलग से ज़रुरत क्यों पड़ रही है आखिर ? अलग से उन्होंने जो कहा है वो सिर्फ इतना भर है:-
ReplyDelete"जब कोई व्यक्ति अपनी आत्मा के साथ विश्वात्माए समस्त जड चेतन और ब्रह्मांडीय शक्ति को जोडने में समर्थ होता हैए तो वस्तुतर: वह आध्यात्मिकता की चरम सीमा को प्राप्त करता है।"
"अपने मस्तिष्क की बनावट के कारण सामान्यतया मनुष्य स्वार्थी होता है , अपने सुखों का परित्याग नहीं कर पाता , इसलिए आध्यात्म के स्तर तक पहुंचे व्यक्ति को स्वयं महात्मा का दर्जा मिल जाता है , वैसे उनकी संख्या बहुत कम होती है।"
अब बताईए कि यह जड़, चेतन और ब्रहमांडीय शक्ति से जुड़ना क्या है !? इसका पता कैसे चलता है !? वो कौन से लक्षण या सर्टीफिकेटस् होते है जिससे दूसरे भी इस जुड़ने को समझ पाएं ? जड़, चेतन और ब्रहमांडीय शक्ति से जुड़ने की ज़रुरत आखिर क्या है ? मानव-मात्र का भी ईमानदारी से कल्याण करने बैठें तो एक ज़िंदगी में एक आदमी का भी पूरी तरह से भला कर पाना लगभग असंभव है। किसी को राह चलते दो रोटी दे दी या चार कपड़े दे दिए, उसकी बात मैं नहीं कर रहा हूं। फिर यह किसी काल्पनिक, अमूर्त जड़-चेतन आदि के पीछे यूं भागना !? एक अच्छा और निस्वार्थी आदमी तो सहज भाव से किसी का भला करके निकल जाता है, किसी को पता भी नहीं चलता । फ़िर यह आध्यात्मिक आदमी महात्मा का दर्ज़ा क्यों चाहता है !? अब कृपया गांधी जी का उदाहरण मत दीजिएगा। वे अपनी तरह के अकेले महात्मा हैं। अगर अपने-आप यह दर्जा मिल जाता है तो ‘अपने-आप’ से क्या अर्थ हैं !? क्या यह दर्ज़ा हमारे घर की छत को फाड़कर हमारे सर पर टपकता है और वहां स्थापित हो जाता है !? अपने-आप मिल जाता है तो आध्यात्मिक आदमी इसे न ले, अगर वह निस्वार्थ भाव से ही सब (?) कर रहा है ! आध्यात्मिक आदमी की जो परिभाषा आपने दी है उसमें मंदिर, मस्जिद आदि की तो कोई ज़रुरत ही नहीं मालूम होती। फिर भी भूखे-नंगों के इस देश में क्या आध्यात्मिक आदमी को यह कहते शर्म आती है कि (जड़-चेतन)-ब्रहामांड-अलौकिक-पारिलौकिक आदि-आदि को भौतिक स्थानों की कोई ज़रुरत नहीं। इन स्थानों को देश के भूखे-नंगे-सड़ते-मरते ग़रीब लोगों के लिए खाली किया जाए। कैसा आघ्यात्मिक आदमी है यह जिसे अपने आस-पास बिलबिलाते-कराहते-तड़पते लोग नहीं दिखते और ब्रहमांड की किसी काल्पनिक शक्ति से मिलने-जुड़ने को मरा जाता है !? हमें अगर सड़क पर एक आदमी दम तोड़ता दिखायी दे रहा है तो हम अपने विवेक से फेसला लेने की बजाय किसी अमूर्त ब्रहमांडीय शक्ति से तार जोड़ना शुरु कर दें कि सर बताईए अब मैं इसे बचाऊं कि नहीं !? हमारा अपना विवेक, बुद्वि और संवेदना किस दिन के लिए होती है आखिर !? शायद इसीलिए सडकों पर लोग मरते रहते हैं और अध्यात्मिक लोग भजन सुनते हुए प्रसन्नमन वहां से निकल जाते हैं। जब अध्यात्मिक की यह समझ और परिभाषा है तो धार्मिक से क्या अंदाज़ा लगाया जाए !? पर उसपर भी बात करेंगे।
हां, एक तर्क बीच में यह भी था कि शादियों में इतने लोग इसलिए जुटाए जाते हैं कि बाद में साक्ष्य रहे वगैरह......। अब एक मुश्किल तो यह है कि आप माथापच्ची करके नये-नये तर्क खोजते रहिए मगर कथित आस्तिक/धार्मिक लोग बार-बार वही क़िताबी बातें दोहराते रहेंगे। निहायत ही ऊब और खीज की स्थिति हो जाती है। ख़ैर, क्या कीजिए !? अब ज़रा सोचिए तो कि अगर स्वयं ईश्वर जो सर्वशक्तिमान-सर्वत्रविद्यमान है, सीधा मतलब हुआ कि हमारे ड्राइंगरुम से लेकर बैडरुम तक हर जगह मौजूद है, तो फिर तुच्छ भौतिक मानवों के साक्ष्य की ज़रुरत क्या है !? इस बात के जवाब में, जैसा कि होता है, सुविधानुसार, धार्मिक छोड़ अध्यात्मिक मोर्चा पकड़ लिया जाएगा कि हम तो ऐसे नहीं वैसे ईश्वर की बात कर रहे हैं। तो सोचने की बात यह है कि ये साक्ष्य बाद में कितने लोगों के काम आते हैं !? आज तक तो दहेज-हत्या के लिए सबूत जुटा लेने की स्थिति ही नहीं बन पायी। आप जाकर खुद पता कीजिए कि दहेज और तलाक़ के मामलों मे स्त्री पक्ष का साथ देने के लिए कौन लोग आगे आते हैं ! वे लोग जो शादी में शामिल थे या वे लोग जिनसे पहले कभी परिचय भी नहीं था !? कोई मीडिया का आदमी, कोई समाजसेवी, कोई लेखक-चिंतक, कोई कलाकार, अकसर ऐसे मामलों में आगे आते हैं। भले वे शादी में शामिल रहे हों या न रहे हों। बेहतर होगा कि इस पर एक छोटा-मोटा सर्वे ही करा लिया जाए। आप कोई ऐसा आदमी बता सकते हैं जिसने अदालत में झूठी गवाही देने से पहले अपने पवित्र ग्रंथ पर हाथ रखकर कसम न खाई हो!? जो लोग खुद से सच नहीं बोल सकते वे दूसरे के लिए सच कैसे बोलेंगे !? अगर दो लोग घर के अंदर रोज़ाना लड़ते हैं और सिर्फ साक्ष्यों के डर से साथ रह रहे हैं तो वे तो खुदसे ही झूठ बोल रहे हैं। वे दूसरों के लिए और दूसरे उनके लिए सच कैसे बोलेंगे !? क्या साक्ष्य देंगे !?
ReplyDeleteफुरसत मिलते ही फिर आऊंगा।
मेरा तो निवेदन है कि हम अपनी-अपनी ज़िन्दगियों में ईमानदारी से झांकने का साहस करें। वास्तविक तर्क खुद ही मिलने भी लगेंगे और समझ भी आने लगेंगे।