भले ही आज नारीवाद का युग हो, पर भारत में और विशेषकर भारत के गॉवों में (क्योंकि असली भारत गॉवों में बसता है) रहने वाली महिलाओं का जिक्र छिड़त...
भले ही आज नारीवाद का युग हो, पर भारत में और विशेषकर भारत के गॉवों में (क्योंकि असली भारत गॉवों में बसता है) रहने वाली महिलाओं का जिक्र छिड़ते ही सबसे पहले उनके घूँघट का ध्यान आता है। लेकिन गाँव भी अब घूँघट की परम्परा को तोड़ रहे हैं। अब गावों की महिलाएँ घूँघट के बाहर निकल इतिहास भी रच रही हैं। 'पानपाट' इसका गवाह है। मनीष वैद्य ने अपनी इस रिपोर्ट में जल संरक्षण की इस ऐतिहासिक पहल की विवेचना की है। यह पोस्ट 'इंडिया वॉटर पोर्टल' से साभार प्रकाशित की जा रही है।
पानपाट गाँव का 35 वर्षीय युवक ऊदल कभी अपने गांव के पानी संकट को भुला नहीं पाएगा। पानी की कमी के चलते गांव वाले दो-दो, तीन-तीन किमी दूर से बैलगाड़ियों पर ड्रम बांध कर लाते हैं। एक दिन ड्रम उतारते समय पानी से भरा लोहे का (200 लीटर वाला) ड्रम उसके पैर पर गिर गया और उसका दाहिना पैर काटना पड़ा। ऊदल अपाहिज हो गया। हर साल गर्मियों में गांव का पानी संकट उसके जख्म हरे कर जाता। मध्यप्रदेश के अन्य कई गांवों की तरह यह गांव भी आजादी के पहले से ही पानी का संकट साल दर साल भोगने को अभिशप्त है। यहां सरकारी भाषा में कहें तो डार्क जोन (यानी जलस्तर बहुत नीचे) है, हर साल गर्मियों में परिवहन से यहां पानी भेजा जाता है। ताकि यहां के लोग और मवेशी जिन्दा रह सकें। औरतें दो-दो तीन-तीन किमी दूर से सिर पर घड़े उठाकर लाती है। जिन घरों में बैलगाड़ियां हैं, वहाँ एक जोड़ी बैल हर साल गर्मियों में ड्रम खींच-खींचकर ‘डोबा’ (बिना काम का, थका हुआ बैल) हो जाते है। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। नेता और अफसर भी पानी की जगह आश्वासन पिलाकर चले जाते पर समस्या जस की तस बनी रही।
इस समस्या का सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता था औरतों को। आखिर वे ही तो परिवार की रीढ़ हैं। आखिर एक दिन वे खुद उठीं और बदलने चल दीं अपने गांव की किस्मत को गांव के तमाम मर्दों ने उनकी हंसी उड़ाई ‘आखर जो काम सरकार इत्ता साल में नी करी सकी उके ई घाघरा पल्टन करने चली है’ पर साल भर से भी कम समय में ही वे लोग दांतो तले उंगली दबा रहें हैं। इस कथित घाघरा पल्टन ने ही उनके गांव की दशा और दिशा बदल दी है। यह कोई कपोल कल्पित कहानी या अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि हकीकत है। देवास जिले के कन्नौद ब्लॉक के गांव पानपाट की।
इन औरतों के बीच काम करने पहुंची स्वंयसेवी संस्था ‘विभावरी’ ने उनमें वो आत्मविश्वास और संकल्प शक्ति पैदा की कि सदियों से पर्दानशीन मानी जाने वाली ये बंजारा औरतें दहलीजों से निकलकर गेती-फावड़ा उठाकर तालाब खोदने में जुट गईं। दो महीनें मे ही तैयार हो गया इनका तालाब। जैसे-जैसे तालाब का आकार बढ़ता गया इनका उत्साह और हौंसला बढ़ता गया। उन्हें खुशी है कि अब इस गांव में पानी के लिए कोई अपाहिज नहीं होगा और कोई बहन-बेटी पानी के लिए भटकेगी नहीं। सत्तर वर्षीय दादी रेशमीबाई खुद आगे बढ़ीं और फिर तो देखते ही देखते पूरे गांव की औरतें पानी की बात पर एकजुट हो गईं। उन्होंने पानी रोकने की तकनीकें सीखी, समझी और गुनी। पठारी क्षेत्र और नीचे काली चट्टान होने से पानी रोकना या भूजल स्तर बढ़ाना इतना आसान नहीं था। पर ‘पर जहां चाह-वहा राह’ की तर्ज पर विभावरी को राजीव गांधी जलग्रहण मिशन से सहायता मिली।
बात पड़ोसी गांव तक भी पहुंची और वहां की औरतें भी उत्साहित हो उठीं- इस बीमारी की जड़सली (दवाई) पाने के लिए। यहां से शुरुआत हुई पानी आंदोलन की। अनपढ़ और गंवई समझी जाने वाली इन औरतों ने पड़ोसी गांवों की औरतों का दर्द भी समझा। गांव का पानी गांव में ही रोकने के गुर सीखाने निकलीं ये औरतें। बैसाख की तेज गर्मी, चरख धूप और शरीर से चूते पसीने की फिक्र से दूर। नाम दिया जलयात्रा। 20 से 25 मई 2001 तक यह जलयात्रा भाटबड़ली, झिरन्या, टिपरास, नरायणपुरा, निमनपुर, गोला, बांई, जगवाड़, फतहुर जैसे गांवो से गुजरी उद्देश्य यही था कि-जो मंत्र उन्होंने अपनाया वह दूसरे गांव के लोग भी करें।
जलयात्रा के बाद तो इस क्षेत्र में पानी आंदोलन एक सशक्त जन आन्दोलन की तरह उभरा अब तो मर्दों ने भी कंधे से कंधा मिलाकर चलना तय कर लिया। आज क्षेत्र में सेकड़ों जल संरचनाएं दिखाई देती हैं। इससे भविष्य में यह क्षेत्र पानी की जद्दोजहद से दो-चार नहीं होगा। पानी को लेकर शुरु हुआ यह आंदोलन अब पानी से आगे बढ़कर क्षेत्र की समाजार्थिक स्थिति में बदलाव जैसे मुद्दों को भी छू रहा है क्षेत्र में सफाई, स्वास्थ्य, कुरीतियों से निपटने, शिक्षा, पंचायती संस्थाओं में भागीदारी, छोटी बचत व स्वरोजगार से अपनी व पारिवारिक आमदनी बढ़ाने जैसे मुद्दे भी इन औरतों के एजेंडो में शामिल हैं।
पिछले एक साल में यहां इन्होंने तालाब, निजी खेतों में तलईयां, गेबियन स्ट्रक्चर, मैशनरी चेकडेम, लूज बोल्डर श्रृंखलाबद्ध चेकडेम व मेड़बंदी जैसी कई संरचनाएं बनाई हैं। पर इससे महत्वपूर्ण देखने वाली बात यह कि – यहां के समाज में इन सबसे एक विशेष प्रकार का विश्वास और जागरुकता आई। अब ये लोग अपने अधिकारों को लेने के लिए लड़ना सीख गए हैं। ये अब नेताओं और अफसरों के सामने घिघियाते नहीं हैं, बल्कि नजर उठाकर नम्रता के साथ बात करते हैं।
नारायणपुरा में 5वीं कक्षा पास शारदा बाई गांव की ही ड्राप ऑउट 12 बालिकाओं को पढ़ा रही है। इन गांवो में सफाई पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। निस्तारी पानी के लिए 56 सोख्ता गडढ़े व लगभग दो दर्जन घूड़ों में नाडेप तरीके से खाद बनाई जा रही है। क्षेत्र के युवकों को रोजगारमूलक गतिविधियों से जोड़ा जा रहा है तथा किशोरों, औरतों के लिए लायब्रेरी बनाई गई है। क्षेत्र में लगातार स्वास्थ्य फॉलोअप शिविर लग रहे हैं। इन गांवो के लगभग ढ़ाई सौ साल के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि खुद यहां कि औरतों ने यहां की तस्वीर बदल दी है। इन गांवो में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व आर्थिक बदलाव को आसानी से देखा, समझा जा सकता है। ‘विभावरी’ के सुनील चतूर्वेदी इस पूरे आंदोलन से खासे उत्साहित हैं। वे कहते हैं “एक अनजान धरती पर नकारात्मक माहौल में काम करना आसान नहीं था। व्यवस्था के प्रति पुराना अविश्वास और नेताओं के आश्वासन ने यहां के ग्रामीणों को निराश कर दिया था। पर क्षेत्र की महिलाओं ने हमारे काम को आगे बढ़ाया”। क्षेत्र की औरतों के बीच जुनूनी आत्मविश्वास जगाने वाली विभावरी की एक दुबली-पतली लड़की को देख कर सहसा विश्वास नहीं होता कि यह वह लड़की है जिसने इन औरतों की जिन्दगी के मायने बदल दिये। सोनल कहती हैं। “गांव में तालाब निर्माण काकाम ही सामाजिक समरूपता का माध्यम बना। मैंने इसमें कुछ भी नहीं किया मैंने तो सिर्फ उन्हें अपनी ताकत का अहसास कराया।
झिरन्या के बाबूलाल कहते हैं हम तो इन्हें भी रुपया खाने वाले सरकारी आदमी समझते थे पर इन्होंने तो हमारी सात पुश्तें (पीढ़ियां) तारने जैसे काम कर दिया। काली बाई बताती हैं कि अब उनके काम को सामाजिक मान्यता मिल गई है। देवास, इन्दौर भोपाल तक के लोग उनके काम को देखने व बात करने आ रहे हैं। इससे बड़ी खुशी की बात हमारे लिए क्या हो सकती है?
पानपाट गाँव का 35 वर्षीय युवक ऊदल कभी अपने गांव के पानी संकट को भुला नहीं पाएगा। पानी की कमी के चलते गांव वाले दो-दो, तीन-तीन किमी दूर से बैलगाड़ियों पर ड्रम बांध कर लाते हैं। एक दिन ड्रम उतारते समय पानी से भरा लोहे का (200 लीटर वाला) ड्रम उसके पैर पर गिर गया और उसका दाहिना पैर काटना पड़ा। ऊदल अपाहिज हो गया। हर साल गर्मियों में गांव का पानी संकट उसके जख्म हरे कर जाता। मध्यप्रदेश के अन्य कई गांवों की तरह यह गांव भी आजादी के पहले से ही पानी का संकट साल दर साल भोगने को अभिशप्त है। यहां सरकारी भाषा में कहें तो डार्क जोन (यानी जलस्तर बहुत नीचे) है, हर साल गर्मियों में परिवहन से यहां पानी भेजा जाता है। ताकि यहां के लोग और मवेशी जिन्दा रह सकें। औरतें दो-दो तीन-तीन किमी दूर से सिर पर घड़े उठाकर लाती है। जिन घरों में बैलगाड़ियां हैं, वहाँ एक जोड़ी बैल हर साल गर्मियों में ड्रम खींच-खींचकर ‘डोबा’ (बिना काम का, थका हुआ बैल) हो जाते है। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं। नेता और अफसर भी पानी की जगह आश्वासन पिलाकर चले जाते पर समस्या जस की तस बनी रही।
इस समस्या का सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता था औरतों को। आखिर वे ही तो परिवार की रीढ़ हैं। आखिर एक दिन वे खुद उठीं और बदलने चल दीं अपने गांव की किस्मत को गांव के तमाम मर्दों ने उनकी हंसी उड़ाई ‘आखर जो काम सरकार इत्ता साल में नी करी सकी उके ई घाघरा पल्टन करने चली है’ पर साल भर से भी कम समय में ही वे लोग दांतो तले उंगली दबा रहें हैं। इस कथित घाघरा पल्टन ने ही उनके गांव की दशा और दिशा बदल दी है। यह कोई कपोल कल्पित कहानी या अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि हकीकत है। देवास जिले के कन्नौद ब्लॉक के गांव पानपाट की।
इन औरतों के बीच काम करने पहुंची स्वंयसेवी संस्था ‘विभावरी’ ने उनमें वो आत्मविश्वास और संकल्प शक्ति पैदा की कि सदियों से पर्दानशीन मानी जाने वाली ये बंजारा औरतें दहलीजों से निकलकर गेती-फावड़ा उठाकर तालाब खोदने में जुट गईं। दो महीनें मे ही तैयार हो गया इनका तालाब। जैसे-जैसे तालाब का आकार बढ़ता गया इनका उत्साह और हौंसला बढ़ता गया। उन्हें खुशी है कि अब इस गांव में पानी के लिए कोई अपाहिज नहीं होगा और कोई बहन-बेटी पानी के लिए भटकेगी नहीं। सत्तर वर्षीय दादी रेशमीबाई खुद आगे बढ़ीं और फिर तो देखते ही देखते पूरे गांव की औरतें पानी की बात पर एकजुट हो गईं। उन्होंने पानी रोकने की तकनीकें सीखी, समझी और गुनी। पठारी क्षेत्र और नीचे काली चट्टान होने से पानी रोकना या भूजल स्तर बढ़ाना इतना आसान नहीं था। पर ‘पर जहां चाह-वहा राह’ की तर्ज पर विभावरी को राजीव गांधी जलग्रहण मिशन से सहायता मिली।
बात पड़ोसी गांव तक भी पहुंची और वहां की औरतें भी उत्साहित हो उठीं- इस बीमारी की जड़सली (दवाई) पाने के लिए। यहां से शुरुआत हुई पानी आंदोलन की। अनपढ़ और गंवई समझी जाने वाली इन औरतों ने पड़ोसी गांवों की औरतों का दर्द भी समझा। गांव का पानी गांव में ही रोकने के गुर सीखाने निकलीं ये औरतें। बैसाख की तेज गर्मी, चरख धूप और शरीर से चूते पसीने की फिक्र से दूर। नाम दिया जलयात्रा। 20 से 25 मई 2001 तक यह जलयात्रा भाटबड़ली, झिरन्या, टिपरास, नरायणपुरा, निमनपुर, गोला, बांई, जगवाड़, फतहुर जैसे गांवो से गुजरी उद्देश्य यही था कि-जो मंत्र उन्होंने अपनाया वह दूसरे गांव के लोग भी करें।
जलयात्रा के बाद तो इस क्षेत्र में पानी आंदोलन एक सशक्त जन आन्दोलन की तरह उभरा अब तो मर्दों ने भी कंधे से कंधा मिलाकर चलना तय कर लिया। आज क्षेत्र में सेकड़ों जल संरचनाएं दिखाई देती हैं। इससे भविष्य में यह क्षेत्र पानी की जद्दोजहद से दो-चार नहीं होगा। पानी को लेकर शुरु हुआ यह आंदोलन अब पानी से आगे बढ़कर क्षेत्र की समाजार्थिक स्थिति में बदलाव जैसे मुद्दों को भी छू रहा है क्षेत्र में सफाई, स्वास्थ्य, कुरीतियों से निपटने, शिक्षा, पंचायती संस्थाओं में भागीदारी, छोटी बचत व स्वरोजगार से अपनी व पारिवारिक आमदनी बढ़ाने जैसे मुद्दे भी इन औरतों के एजेंडो में शामिल हैं।
पिछले एक साल में यहां इन्होंने तालाब, निजी खेतों में तलईयां, गेबियन स्ट्रक्चर, मैशनरी चेकडेम, लूज बोल्डर श्रृंखलाबद्ध चेकडेम व मेड़बंदी जैसी कई संरचनाएं बनाई हैं। पर इससे महत्वपूर्ण देखने वाली बात यह कि – यहां के समाज में इन सबसे एक विशेष प्रकार का विश्वास और जागरुकता आई। अब ये लोग अपने अधिकारों को लेने के लिए लड़ना सीख गए हैं। ये अब नेताओं और अफसरों के सामने घिघियाते नहीं हैं, बल्कि नजर उठाकर नम्रता के साथ बात करते हैं।
नारायणपुरा में 5वीं कक्षा पास शारदा बाई गांव की ही ड्राप ऑउट 12 बालिकाओं को पढ़ा रही है। इन गांवो में सफाई पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। निस्तारी पानी के लिए 56 सोख्ता गडढ़े व लगभग दो दर्जन घूड़ों में नाडेप तरीके से खाद बनाई जा रही है। क्षेत्र के युवकों को रोजगारमूलक गतिविधियों से जोड़ा जा रहा है तथा किशोरों, औरतों के लिए लायब्रेरी बनाई गई है। क्षेत्र में लगातार स्वास्थ्य फॉलोअप शिविर लग रहे हैं। इन गांवो के लगभग ढ़ाई सौ साल के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि खुद यहां कि औरतों ने यहां की तस्वीर बदल दी है। इन गांवो में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व आर्थिक बदलाव को आसानी से देखा, समझा जा सकता है। ‘विभावरी’ के सुनील चतूर्वेदी इस पूरे आंदोलन से खासे उत्साहित हैं। वे कहते हैं “एक अनजान धरती पर नकारात्मक माहौल में काम करना आसान नहीं था। व्यवस्था के प्रति पुराना अविश्वास और नेताओं के आश्वासन ने यहां के ग्रामीणों को निराश कर दिया था। पर क्षेत्र की महिलाओं ने हमारे काम को आगे बढ़ाया”। क्षेत्र की औरतों के बीच जुनूनी आत्मविश्वास जगाने वाली विभावरी की एक दुबली-पतली लड़की को देख कर सहसा विश्वास नहीं होता कि यह वह लड़की है जिसने इन औरतों की जिन्दगी के मायने बदल दिये। सोनल कहती हैं। “गांव में तालाब निर्माण काकाम ही सामाजिक समरूपता का माध्यम बना। मैंने इसमें कुछ भी नहीं किया मैंने तो सिर्फ उन्हें अपनी ताकत का अहसास कराया।
झिरन्या के बाबूलाल कहते हैं हम तो इन्हें भी रुपया खाने वाले सरकारी आदमी समझते थे पर इन्होंने तो हमारी सात पुश्तें (पीढ़ियां) तारने जैसे काम कर दिया। काली बाई बताती हैं कि अब उनके काम को सामाजिक मान्यता मिल गई है। देवास, इन्दौर भोपाल तक के लोग उनके काम को देखने व बात करने आ रहे हैं। इससे बड़ी खुशी की बात हमारे लिए क्या हो सकती है?
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दरअसल, यह किसी खुशी से कहीं ज्यादा महिलाओं के संघर्ष की दास्तान है। महिलाएं अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम हैं। घूंघट की बंदिशें अभी और त्यागने होंगी।
ReplyDeleteसाथ ही यह रपट आईना दिखाती है उन लफ्फबाज स्त्री-विमर्शवालों को जो देह से आगे स्त्री के बारे में कुछ सोचते-समझते ही नहीं हैं।
काली बाई जी को सलाम बहुत प्रेरनादायी व्यक्तित्व है। समझ सकती हूँ कितना मुश्किल होता है ऐसीौरतों का समाज मे आगे आना मैं भी कई साल घूँघट मे रही हूँ इस लिये दर्द और संघर्ष समझ सकती हूँ धन्यवाद
ReplyDeleteIn Veeraangnaaon ko SALAM.
ReplyDeleteSarahneey Prayas.
ReplyDeleteइस उत्साहवर्द्धक समाचार से अवगत कराने के लिए आभार। अगर महिलाएँ वास्तव में जाग जाएं, तो फिर उन्हें रोकना असम्भव होता है।
ReplyDeleteआज गाँवों में परिवर्तन महिलाओं के कारण ही हो रहा है। मैंने भी अपनी पोस्ट गाँव में गणतन्त्र पर यही लिखा था। आपकी पोस्ट पर टिप्पणी करना कठिन है, कृपया इसे दुरस्त करें।
ReplyDeleteप्रेरक पोस्ट है।धन्यवाद।
ReplyDeleteसराहनीय और प्रेरणाप्रद!
ReplyDelete--
मुझको बता दो -
"नवसुर में कोयल गाता है - मीठा-मीठा-मीठा! "
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संपादक : सरस पायस
सुन्दर आलेख!
ReplyDeleteबढ़िया आख्यानक!
क्षेत्र की औरतों के बीच जुनूनी आत्मविश्वास जगाने वाली विभावरी की एक दुबली-पतली लड़की को देख कर सहसा विश्वास नहीं होता कि यह वह लड़की है जिसने इन औरतों की जिन्दगी के मायने बदल दिये।
ReplyDeleteA person is known by his/her deeds and not by how he looks!
Commendable!
prerak post.badhaiyan.
ReplyDeleteकी सब तो बहुत ठीक है पर ये नहीं समझ में आ रहा है की ये लेख स्सिएंस ब्ल्लोगेर में क्यों है इसमें विज्ञान की क्या बात है !!!!!!!
ReplyDeleteप्रेरक पोस्ट
ReplyDeleteप्रेरणा दायक व्यक्तित्व से परिचय ,बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteबहुत मेहनत की है आपने दिख रहा है , बहुत ही उम्दा प्रयास है आपका , लगे रहिए
ReplyDeleteYadi aap paathako aur chahne valo ki soochi banane ja rahe ho to..krupya mera naam sabse pratham mein likhiyega..kyuki mai ptreeka ka har ek akshar padta hu aur sabse bada chahne wala bhee hu....ali ka pahla number...!
ReplyDeleteकई घूंघट वालियां इतिहास बना चुकी हैं ..राजस्थान के सन्दर्भ में तो यह आम बात है ....
ReplyDeleteप्रेरक प्रविष्टि ...!!