पिछले दिनों इसी ब्लॉग पर साहित्यिक चोरी की चर्चा हुयी थी- अभी एक किताब पर नजर पडी़ तो लगा कि जैसे साहित्यिक चोरी की एक नई मिसाल सामने आ ...
पिछले दिनों इसी ब्लॉग पर साहित्यिक चोरी की चर्चा हुयी थी- अभी एक किताब पर नजर पडी़ तो लगा कि जैसे साहित्यिक चोरी की एक नई मिसाल सामने आ गयी हो। किताब का नाम है- 'हिन्दी विज्ञान पत्रकारिता : कल आजकल और कल'। और पुस्तक के लेखक हैं कोई कुलदीप शर्मा। आश्चर्य है कि साहित्यिक चोरी का एक घृणित उदाहरण प्रस्तुत करने वाली यह किताब भारत सरकार के एक प्रतिष्ठान वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग से छपी है, जो मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन है। इस किताब का 'पुनरीक्षण' एक ख्याति प्राप्त विज्ञान लेखक डॉ शिवगोपाल मिश्रा ने किया है? लगता है मिश्र जी भी पुनरीक्षण में चूक गए, क्योंकि उन्हें आमतौर पर एक 'बहु पठित स्वाध्यायी' समझा जाता है और उनसे ऐसी चूक की अपेक्षा नहीं थी।
यह किताब पूरी की पूरी डॉ0 मनोज पटैरिया द्वारा काफी पहले लिखी गयी पुस्तक 'हिन्दी विज्ञान पत्रकारिता' (तक्षशिला प्रकाशन ,नई दिल्ली) की एक भौंडी नकल है और साहित्यिक चोर गुरू जमात में नए शांमिल हुए इस लेखक ने प्रचुरता से अपनी इस किताब की सामग्री डॉ0 पटैरिया की किताब से बिना स्रोत का हवाला दिए ली है। यह विज्ञान साहित्य प्रकाशन की दुनिया की नई उठाईगीरी है। यह पुस्तक जल्दीबाजी में लिखी गयी लगती है। इन दिनों दिल्ली के विज्ञान लेखकों में पुरस्कार लेखन की चल रही होड़ से यह प्रभावित दीखती है। हड़बडी़ के चलते पुस्तक का कलेवर, छपाई शैली, मोटा फाँट सब कुछ मस्तराम साहित्य की प्रतीति कराता है।
आलोच्य पुस्तक का कंटेंट देखने से ही लग जाता है कि लेखक के पास नया कहने को ज्यादा कुछ नहीं है, बस मूल स्रोत के रूप में डॉ0 पटैरिया की पुस्तक से ही विचार पुस्तक संयोजन को आधारित किया गया है। हाँ अंत में पत्रकारिता में कैरियर विषय को जोड़कर एक अतिरिक्त योगदान की रस्म अदायगी भर कर दी गयी है। आश्चर्यजनक और आपत्तिजनक भी है कि लेखक ने मूल स्रोत का हवाला तक नहीं दिया है।
यहाँ पुस्तक के विस्तृत चुराए अंशों का समग्र उल्लेख करना संभव नहीं है और न ही ऐसे चौर्य कर्मों के विवेचन का कोई घोषित स्थल ही, बस प्रसंगवश यह उल्लेख एक व्हिसिल ब्लोवर के रूप में किया जा रहा है।
डॉ0 पटैरिया की पुस्तक के पृष्ठ संख्या 23, 26, 27, 30, 73, 135, 76, 77, 140, 136 से कई वाक्य-वाक्यांशों को मामूली हेरफेर के साथ समीक्ष्य पुस्तक के पृष्ठ संख्या 6, 9, 15, 72, 83, 88, 98 आदि पर प्रभूत रूप से दिया गया है।
जहाँ डॉ0 पटैरिया को कालक्रम में कोई शंका है तो वही संदेह समीक्ष्य पुस्तक के लेखक को भी है, जो मच्छिका स्थाने मच्छिका की कहावत की याद दिलाता है। नागार्जुन ने रस रत्नाकर कब लिखा? डॉ0 पटैरिया इसे 7-8वीं शती(पृष्ठ 26) में मानते हैं और चोर गुरू लेखक लगभग आठवीं सदी मानते हैं (पृष्ठ 7)। वैज्ञनिकों की जीवनी पर लिखते हुए डॉ0 पटैरिया को डॉ0 सालिम अली पर लिखे जिस बेहतरीन लेख की याद आती है, नव लिखित पुस्तक के लेखक को भी आश्चर्यजनक तौर पर उसी शीर्षक लेख 'पक्षियों की सरसराहट अब कौन महसूस करेगा' की याद आती है, उसका अपना कोई अलग अध्ययन नहीं है। पृष्ठ 136 पर मूल लेखक की हिदायत है 'रूपक तथ्यों पर आधारित होते हैं, कल्पना पर नहीं।' चोर गुरू इसे इस तरह से लिखते हैं - '....पूरी तरह से तथ्यों पर आधारित होती है कल्पना की गुंजाईश कतई नहीं है।' यहीं डॉ0 पटैरिया जहाँ यह मानते हैं कि 'आम तौर पर प्रत्येक रूपक के 6 तत्व होते हैं विषय-वस्तु, शीर्षक, प्रस्तावना, विवेचना, निष्कर्ष और चित्रांकन।' हमारे समीक्ष्य लेखक भी ऐसा ही कुछ मानते हैं- 'मोटे तौर पर रूपक छः घटकों को लेकर तैयार होते हैं....'। ऐसे चोरी के वाक्य, वाक्यांशों, प्रस्तर अंशों से पूरी पुस्तक भरी हुई है।
खेद है कि लोग तात्कालिक आग्रहों और प्रलोभनों के चलते विद्वत विमर्श/समुदाय में ऐसे कलंकित उदाहरण छोड़ जाते हैं। सबाई परिवार ऐसी चौर्य प्रवृत्ति की घोर निंदा करता है।
-Arshia
यह किताब पूरी की पूरी डॉ0 मनोज पटैरिया द्वारा काफी पहले लिखी गयी पुस्तक 'हिन्दी विज्ञान पत्रकारिता' (तक्षशिला प्रकाशन ,नई दिल्ली) की एक भौंडी नकल है और साहित्यिक चोर गुरू जमात में नए शांमिल हुए इस लेखक ने प्रचुरता से अपनी इस किताब की सामग्री डॉ0 पटैरिया की किताब से बिना स्रोत का हवाला दिए ली है। यह विज्ञान साहित्य प्रकाशन की दुनिया की नई उठाईगीरी है। यह पुस्तक जल्दीबाजी में लिखी गयी लगती है। इन दिनों दिल्ली के विज्ञान लेखकों में पुरस्कार लेखन की चल रही होड़ से यह प्रभावित दीखती है। हड़बडी़ के चलते पुस्तक का कलेवर, छपाई शैली, मोटा फाँट सब कुछ मस्तराम साहित्य की प्रतीति कराता है।
आलोच्य पुस्तक का कंटेंट देखने से ही लग जाता है कि लेखक के पास नया कहने को ज्यादा कुछ नहीं है, बस मूल स्रोत के रूप में डॉ0 पटैरिया की पुस्तक से ही विचार पुस्तक संयोजन को आधारित किया गया है। हाँ अंत में पत्रकारिता में कैरियर विषय को जोड़कर एक अतिरिक्त योगदान की रस्म अदायगी भर कर दी गयी है। आश्चर्यजनक और आपत्तिजनक भी है कि लेखक ने मूल स्रोत का हवाला तक नहीं दिया है।
यहाँ पुस्तक के विस्तृत चुराए अंशों का समग्र उल्लेख करना संभव नहीं है और न ही ऐसे चौर्य कर्मों के विवेचन का कोई घोषित स्थल ही, बस प्रसंगवश यह उल्लेख एक व्हिसिल ब्लोवर के रूप में किया जा रहा है।
डॉ0 पटैरिया की पुस्तक के पृष्ठ संख्या 23, 26, 27, 30, 73, 135, 76, 77, 140, 136 से कई वाक्य-वाक्यांशों को मामूली हेरफेर के साथ समीक्ष्य पुस्तक के पृष्ठ संख्या 6, 9, 15, 72, 83, 88, 98 आदि पर प्रभूत रूप से दिया गया है।
जहाँ डॉ0 पटैरिया को कालक्रम में कोई शंका है तो वही संदेह समीक्ष्य पुस्तक के लेखक को भी है, जो मच्छिका स्थाने मच्छिका की कहावत की याद दिलाता है। नागार्जुन ने रस रत्नाकर कब लिखा? डॉ0 पटैरिया इसे 7-8वीं शती(पृष्ठ 26) में मानते हैं और चोर गुरू लेखक लगभग आठवीं सदी मानते हैं (पृष्ठ 7)। वैज्ञनिकों की जीवनी पर लिखते हुए डॉ0 पटैरिया को डॉ0 सालिम अली पर लिखे जिस बेहतरीन लेख की याद आती है, नव लिखित पुस्तक के लेखक को भी आश्चर्यजनक तौर पर उसी शीर्षक लेख 'पक्षियों की सरसराहट अब कौन महसूस करेगा' की याद आती है, उसका अपना कोई अलग अध्ययन नहीं है। पृष्ठ 136 पर मूल लेखक की हिदायत है 'रूपक तथ्यों पर आधारित होते हैं, कल्पना पर नहीं।' चोर गुरू इसे इस तरह से लिखते हैं - '....पूरी तरह से तथ्यों पर आधारित होती है कल्पना की गुंजाईश कतई नहीं है।' यहीं डॉ0 पटैरिया जहाँ यह मानते हैं कि 'आम तौर पर प्रत्येक रूपक के 6 तत्व होते हैं विषय-वस्तु, शीर्षक, प्रस्तावना, विवेचना, निष्कर्ष और चित्रांकन।' हमारे समीक्ष्य लेखक भी ऐसा ही कुछ मानते हैं- 'मोटे तौर पर रूपक छः घटकों को लेकर तैयार होते हैं....'। ऐसे चोरी के वाक्य, वाक्यांशों, प्रस्तर अंशों से पूरी पुस्तक भरी हुई है।
खेद है कि लोग तात्कालिक आग्रहों और प्रलोभनों के चलते विद्वत विमर्श/समुदाय में ऐसे कलंकित उदाहरण छोड़ जाते हैं। सबाई परिवार ऐसी चौर्य प्रवृत्ति की घोर निंदा करता है।
-Arshia
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Sharmnaak.
ReplyDeleteमुझे 'साहित्यिक चोरी' की अवधारणा पूरी तरह समझ में नहीं आयी है। यदि 'क' ने किसी किताब में लिख दिया है कि 'सूरज पूरब से निकलता है' और 'ख' ने लिख दिया कि 'सूरज पूर्व में उदित होता है' तो क्या इसे साहित्यिक चोरी माना जायेगा?
ReplyDeleteदूसरी बात यह है कि क्या छोटि-छोटी बातों का उल्लेख करते समय सन्दर्भ देना आवश्यक है? यदि मैं कहीं लिखूं कि 'बांग्लादेश की राजधानी ढाका है' तो क्या मुझे यह भी लिखना पड़ेगा कि यह जानकारी मुझे मेरे भूगोल के अध्यापक से मिली है?
तीसरी बात यह है कि हममें से अधिसंख्य लोग दूसरों से प्राप्त (समाज से प्राप्त) सूचना को ही तरह-तरह से मिश्रित करके या 'प्रोसेस' करके ही जीते हैं। बहुत कम चीजें हैं जो हमारी अपनी 'डिस्कवरी' कही जा सकें। ऐसी अवस्था में तो कोई कुछ 'कह' ही नहीं सकेगा?
चौथी बात यह है कि यदि मेरी बात बुरी लगे तो मुझे माफ कर दीजियेगा।
nice
ReplyDeleteखूब पकड़ा है!
ReplyDeleteचोर कभी अपने को चोर नही कहता है!
मुझे तो अनुनाद सिंह जी की बात सही लग रही है
ReplyDeleteअनुनाद जी साहित्यिक चोरी को लेकर आपका साफ्ट कार्नर और औचित्य सिद्ध करने का प्रयास -बात कुछ समझ में नहीं आयी !साहित्य चोरी के कई कल्पनाशील तरीके हैं !और अकादमीय जगत में यह सबसे घृणित कृत्य है !
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteअगर चोरी ही करनी थी तो इंटरनेट से कट पेस्ट कर देते किसी को पता भी नहीं चलता. आजकल तो बड़े बड़े शोध पत्र इसी तरह लिख दिए जाते हैं.
ReplyDeleteSoop bole to bole chalni kya bole jsime chappan ched.
ReplyDelete@अनुनाद सिंह, आपका तर्क वाकई कमाल का है, मेरा आपसे यह प्रस्ताव है कि आप भी एक किताब लिख दीजिये, और आपको तो महनत भी नहीं करनी पड़ेगी, साइंस ब्लोगर्स असोसिअसन तो आपके लिए ही बनाया गया है, जितने मर्ज़ी लेख उठाइए और नयी पुस्तक में डाल दीजिये, कौन जाने अगला लेखन पुरष्कार आपको ही मिल जाये, है ना? :)
ReplyDeleteअगर मेरी बात बुरी लगी हो तो मुझे क्षमा करने की जहमत मत उठाइय, जितना देर मुझे क्षमा करने में लगायेंगे उतने देर में तो आपकी किताब में ३-४ पेज बढ जायेंगे
baap re baap....khatarnaak praviti... anunaad aapki baat satahi taur par hi sahi hai kyunki chori kee baat agar ho rahi hai to vah samanya gyaan nahin balki nizi taur par ughaade hue kisi gyaan kee baat hoti hai ....!!
ReplyDeleteबिटिया /यह कोइ नया काम नहीं हुआ है ,अभी तक तो उपन्यासों और फिल्म में ही नक़ल होती थी परन्तु हर क्षेत्र में (लेखन में) यह ज्यादा होने लगा है |आपने इसे घ्रणित उदाहरण कहा है जो बिलकुल सही है |जहां तक प्रकाशक का सवाल है उन्हें तो छपाई और पैसों से मतलब है और समीक्षाएं कैसे लिखवाई जाती हैं इस वाबत आपसे क्या निवेदन करू |हाँ एक अनुरोध करूंगा वक्त मिले तो मेरे ब्लॉग पर १७ दिसंबर २००९ का मेरा लेख "" साहित्यिक चोरी "" पढने की महरबानी करना | यदि लेखक लिखदे कि फलां किताब या ग्रन्थ से साभार तो कौनसी इनकी रोयल्टी कम हो जायेगी या इनकी इज्जत कम हो जायेगी |
ReplyDeleteकिसी समीक्ष्य पुस्तक या अध्ययन सामग्री पुस्तकों में ऐसी पुनरावृति हो जाती है. फिर भी किसी लेखक के मौलिक विचारों, तर्कों का किसी दुसरे लेखक द्वारा प्रयोग में लाना (बगैर नामांकित किये) तुच्छ हरकत है. इसकी शिकायत जायज है.
ReplyDeleteपुनश्च :अपनी टिप्पणी पोस्ट करने के बाद मैंने और टिप्पणियाँ पढी |बात किसी देश की राजधानी की नहीं है न सूरज के निकालने की |यूनिवर्सल सत्य की भाषा बदलना नक़ल नहीं कहलाता मगर कोइ ग़ालिब साहिब के शेर अपने नाम से छपवाने लगे या प्राचीन ग्रन्थ उदाहरणार्थ ""भर्तहरी शतक "का अर्थ करके उसकी कविता के रूप में प्रस्तुति करदे तो घ्रणित ही कहलायेगा साहित्य में | हां विचारों का थोड़ा बहुत मिल जाना तो स्वाभाविक है मगर आप पेज के पेज उतार दो और उसे अपना कहो ,तुलसी की चौपाइयों को अपनी कहने लगो जिसने उन्हें नहीं पढ़ा होगा वह तो आपको लेखक मानकर सराहना करेगा | देशी विदेशी अथाह समुद्र है सब के लिए सब पढ़ना संभव भी नहीं है ,लेकिन एक साहित्य कार के नाते ऐसा नहीं करना चाहिए
ReplyDeleteकिसी लेखक के मौलिक विचारों, तर्कों का किसी दुसरे लेखक द्वारा प्रयोग में लाना घृणित कृत्य है !खीरा चुराने वाला भी चोर ही कहलाता है और हीरा चुराने वाला भी चोर ....अनुनाद जी का तर्क मेरे समझ से परे है
ReplyDelete---वास्तव में अनुनाद जी का तर्क सही है, मूलतः विग्यान में तथ्य सर्वदा वही रहते हैं, चाहे उसे अ, ब ,स या द.कोई भी कभी भी लिखे. बस कथ्यात्मक शैली ही बदल सकती है। यदि हाइद्रोजन को H2 लिखा जाता है तो सदैव वही लिखा जायगा, यहां सन्दर्भ देने की भी आवश्यकता नहीं होती।
ReplyDelete---जहां तक साहित्यिक, साहित्य विषय, की चोरी का ---भर्तहरि की कविता की बात कही गयी है---वह सब संस्क्रत में है, यदि कोई उसपर हिन्दी में अपनी कविता लिखता है तो वह चोरी नही है। रामायण, गीता पर अनगिनत ग्रन्थ लिखे गये हैं वे चोरी नही, ्विषय प्रसार-प्रचार है ।
महान अंग्रेजी लेखक विलिअम शेक्श्पिअर की कहानियों और उपन्यासों के कथा सूत्र से प्रभावित होकर अनेक भारतीय और अंग्रेजी सिनेमा बने है | लेकिन यहाँ प्रभाव की नहीं चोरी की बात हो रही है वो भी तथ्य और प्रमाण सहित | किसी कहानी/रचना से प्रभावित होकर नए वातावरण के साथ किसी नयी कृति का सृजन गलत नहीं, मगर शब्दों/वाक्यांशों में फेरबदल करके नयी खिचड़ी पकाना आपत्तिजनक है | विचारों का खुला आकाश है सबके ऊपर फिर भी न जाने क्यों लोग ऐसा कार्य करते हैं | प्रेमचंद कहते थे की 300 कहानियां पड़ने के बाद 3 कहानी लिखने की शक्ति मिलती है लेकिन आजकल तो 3 कहानी पड़waकर लोग/तथाकथित लेखक 300 कहानियां लिखने में लगे हैं | पता नहीं कैसी जल्दी है इन्हें | वहीँ कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनमे समस्त लेखकीय गुण होने के बावजूद वे कलम नहीं उठाते, उन्हें लगता है की शायद अभी वे कुछ लिखने के काबिल नहीं हैं | मैं ऐसे लोगों से कहाँ चाहता हूँ की वे कलम उठायें क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है की वे ही आदर्श रचना सृजन करेंगे |
ReplyDeleteडॉ. श्याम गुप्ता जी, किसी गलत तर्क को सही ठहराकर आप साहित्यिक चोरी को बढ़ावा दे रहे हैं, कम से कम यह तो देख लीजिये कि पूरे के पूरे पेज नक़ल किये गए हैं, उनसे सीखकर नहीं लिखा गया है, वह भी बिना पूर्व लेखक का नाम लिखे.
ReplyDeleteकिताब की बात तो छोड़ ही दीजिये यदि में आपके किसी ब्लॉग को भी आपका रेफेरेंस दिए बिना छाप दूंगा तो आप तिलमिला उठेंगे, "नैतिकता के बारे में थोडा सा सोच समझ कर लिखा करें" |
mr. Ankit,
ReplyDeleteGod SriKrishna say the same thing that are written in vedas, but in their own way with the meaning in it.
Tulsidas write the same thing that is written by valmiki but with the different emotion.
If i write a book by gaining some knowledge about some topic then it is my book. but if I copy Einstien's book without giving the reference to him then it is known as "SAHIYATIK CHORI".
For your information Plagurism is banned all over the world. Even if you write a research paper then you have to give all the reference and bibliography in it.
कहीं ऐसा तो नहीं कि दोनों ने एक ही मूल स्रोत से उड़ाया हो ? हिंदी में रिसाइकिलिंग का हवा-हवाई मामला बहुत चलता है .
ReplyDeleteतब कौन चोर और कौन साहूकार . यानी कौन भले को मन्दे भैया सबके अपने धंधे .
जय हो हिंदी मैया की . जिसने सबको शरण दे रखी है. यहां मोती भी हैं और घोंघे भी, और ’सर्टीफ़ाइड’ पोंगे भी .
Priy Agyat ji, Hindi Vigyan Patrakarita 1990 me prakashit apne vishaya ki pehli kitab hai. Nishchit roop se mool lekhak ne kuchh jaankari purv sroton se prapt ki hogi, jiska bakayada pustak me ullekh kiya gaya hai. Lekin farzee lekhak ne 2005 me, mool kitab ki 90% se jyada samagri nakal ki hai aur ullekh bhi nahi kiya hai. Kuchhek srote milne swabhavik hein, lekin 90% se jyada milaan ke liye 1990 se pehlae ki koi bhi kriti uplabdh hi nahi hai. Isliye farzee lekhak ke bahane se, mool lekhak par sandeh karna, apne aap par sandeh karne jaisa hai, aur jo farzee lekhako ke dussahas ko badhata hai.
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