सुपर-बग का हमला एक सुबह जब बुजुर्ग रामचन्द्रन साहब बिस्तर से उठे तो क्या देखते हैं उनकी एडी खून से लथपथ है. फोड़ा जो था वह फूट गया है...
सुपर-बग का हमला
डॉ मनरेकर इस विचार का समर्थन करते हुए कहते हैं- सर्दी के संग आने वाले बुखार मलेरिया में मैं एक रूपये की एक गोली CHLOROQUINE ही तजवीज़ करता हूँ. दो तीन दिन में आप के पैरों में फिर से जान आजाती है. डॉ मनरेकर अपने एक मरीज़ का किस्सा कुछ यूं बयान करतें हैं- 'डॉ साहब आप मुझे वह २०० रूपये वाला इंजेक्शन क्यों नहीं लगाते हैं. मेरे उससे असहमति व्यक्त करने पर वह मुझे छोड़कर वहीँ चला जाता है. तो ज़नाब मरीज़ भी माशा अल्लाह हैं. एक से बढ़कर एक.
OH CARP!
स्ट्रोंग एंटी-बायोटिक का इस्तेमाल करने का मतलब है हम स्थिति में कोशिश तो सुधार लाने की कर रहें हैं लेकिन सत्यानाश बुरे के साथ लाभदायक अच्छी नेक बेक-टीइरिया का भी कर रहें हैं.
GOOD BACTERIA OR GUT FLORA
हमारा तमाम पाचन क्षेत्र २,२ किलोग्राम जीवाणुओं को पनाह दिए हुए है. इस HUMAN DIGESTIVE TRACT की प्रकृति प्रदत्त महिमा अपार है .
लेकिन एंटी-बायोटिक का गैर ज़रूरी सैलाब अपने साथ तमाम दोस्त जीवाणुओं को भी बहा ले जाता है. ऐसे में रोग कारकों की पौ बारह हो जाती है खुलके खेलते हैं पैथोजंस. यही कहना है माइक्रो-बायोलोजिस्ट (सूक्ष्म जैविकीविद) डॉ .प्रीती मेहता का. आप KEM अस्पताल से सम्बद्ध हैं.
दुखद और घातक पहलु एक और भी है. शहर की अंतड़ियों (सीवरेज सिस्टम) को देखिये बेहाल हैं. वहां बिलबिला रहें हैं अरबों खरब दवा प्रति-रोधी जीवाणु. उत्परिवर्तित हो रहे हैं. यह म्युटेंट फॉर्म और भी ज्यादा घातक होती चली जाती है. खुले में शौच के लिए निकलने वालों का भी इसमें बड़ा योगदान है. यही गत ६५ सालों का हासिल है. लोगों के पास शौचालय नहीं हैं. खुले में जंगल जाना पड़ता है. पोखर गंदे नालों से मल साफ़ करना पड़ता है.
ऐसे घटाटोप में इन जीवाणुओं को पनपने खुलके खेलने का मौक़ा खूब मिलता है. ये कब हमारी हवा में आजातें हैं इसका पता ही नहीं चलता. बा-रास्ता भू -जल ये हमारी खाद्य श्रृंखला में भी निस्संकोच चले आतें हैं. देख भाल के खाइए स्ट्रीट फ़ूड.
बरसात में और भी कहर ढातें हैं ये जीवाणु
प्रति-वर्ग किलोमीटर ज्यादा लोगों का ज़माव फिर चाहे वह लोकल हो या अस्पताल, बाज़ार हो या फ़ूड पार्क संक्रमण को और सहज सम्प्रेश्नीय बना देता है.
टिपण्णी कर्ताओं से माफ़ी चाहता हूँ क्योंकि टिपण्णी देख नहीं पा रहा हूँ इसलिए आपतक वापस नहीं पहुँच पा रहा हूँ .
कृपया नेहा बनाए रहें,आपकी टिपण्णी हमारे लेखन की आंच हैं . बा -रहा शुक्रिया आपका .वीरुभाई.
एक सुबह जब बुजुर्ग रामचन्द्रन साहब बिस्तर से उठे तो क्या देखते हैं उनकी
एडी खून से लथपथ है. फोड़ा जो था वह फूट गया है आपसे आप. घरेलू चिकित्सा कई
दिन आजमाने के बाद उनकी पत्नी ने देखा कि एडी का जख्म भरना तो दूर
उससे बदबूदार मवाद रिस रहा है. ६९ वर्षीय रामचन्द्र घबरा गए क्योंकि आप
मधुमेह से भी पीड़ित हैं. अपने चिकित्सक डॉ रमेश पंजाबी साहब के पास दौड़े
जिन्होनें संक्रमित ऊतक की साफ़ सफाई कर दी. हटा दिए इन्फेक-टिड टिशुज़.
काली पड़ चुकी चमड़ी से स्वाब (फाहे से कुछ इसी चमड़ी के ऊतक लेकर) बारीकी से जांच की. तथा कुछ Genric antibiotics नुस्खा लिख तजवीज़ कर दिए. Bacterial culture तथा antibiotic sensitivity की भी जांच की गई. सब कुछ खुदा का शुक्र है नोर्मल था. लेकिन जिस जख्म को तकरीबन दस दिन में ही भर जाना चाहिए उसकी हालत बद से बदतर होती गई. छ: हफ्ते बाद एक और जांच की गई. पता चला यह सारी करामात उस सुपर बग Pseudomonas aeruginosa की है जो अपने दवा प्रतिरोध (Drug resistance) के लिए कुख्यात रहा है. क्षिप्रता से यह उत्परिवर्तित हो जाता है अपना रूप -विधान बदल लेता है .
यही जीवाणु तमाम तरह के एंटी-बायोटिक्स का प्रति-रोध कर रहा था. उनसे निष्प्रभावित बना रामचन्द्र की एडी में अपना कुनबा बढा रहा था. नतीज़न एडी के घाव को भरने में पूरे ९० दिन लग गए. रामचन्द्रन हतप्रभ है उसे कोई इल्म नहीं है कहाँ से उसे इस खतरनाक सुपर बग जनित संक्रमण की छूत लगी. साथ ही ईश्वर का शुक्र गुज़ार है. उसे अब आराम है और कोई बड़ी कीमत उसे नहीं चुकानी पड़ी. जबकि उसकी एडी में यह ड्रग रेज़ीस्तेंट बेक-टीरिया अपना घर ही बना चुका था.
लेकिन क्या मुंबई में हर कोई रामचन्द्रन जैसे ही नसीबों वाला है? स्वप्न नगरी मुंबई के अस्पतालों में ऐसे मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है जो ड्रग रेज़ीस्तेंट से जूझ रहे हैं, ड्रग रेज़ीस्तेंट भोगते भोगते कुछ चल बसे हैं.
Mumbai's public hospital-acquired infections
माहिरों के अनुसार अस्पताल जनित संक्रमण के मामले ही कमसे कम १०% हैं तमाम संक्रमण के मामलों के बरक्स. इनका एक बड़ा हिस्सा ड्रग रेज़ीस्तेंट संक्रमण है. नंबर वन सिटी बन रहा है मुंबई ड्रग रेज़िसतेंट के मामले में. ड्रग रेज़ीस्तेंट बेक-टीरिया के खिलाफ आखिरी लड़ाई लड़ी जानी अभी बाकी है जबकि भारत कुख्यात हो चुका है एंटी-बायतिक्स के दुरोपयोग के मामले में.
While India gains notoriety for its abuse of antibiotics, Mumbai is emerging as the numero uno city cut out for serious trouble. It has everything it takes to bring on antibiotic Armageddon a 1.25 crore plus crowd, staggering numbers of unqualified doctors, lack of sanitation and health care, among other things. Doctors agree that it has come to be the hyperactive nerve centre of drug resistance.
एंटीबायोटिक्स रेजिस्टेंस है क्या?
Antibiotic resistance, the Achilles Heel of modern medicine, is the ability of bacteria to become immune to a drug that once stalled them or killed them.
जी हाँ, आधुनिक चिकित्सा का कमज़ोर पक्ष दुखती नस है दवा प्रति-रोध. वही दवा जो कभी असरदार होती है कालान्तर में निष्प्रभावी हो जाती है. जीवाणु उससे बे असर रहना सीख जाता है. आखिर सृष्टि का पहला जीव जीवाणु ही तो है जो आज भी सर्वोत्तम की सर्व-श्रेष्ठता सिद्धांत का अनुगामी अनुचर बना हुआ है. वही बात है तू डाल डाल मैं पात पात .एक तरफ एक के बाद नई पीढ़ी के एंटी-बायोटिक्स आ रहें हैं दूसरी तरफ जीवाणु अपना रूप विधान तेज़ी से बदल लेता है म्युतेट हो जाता है. निष्प्रभावी कर देता है दवा को.
दरअसल जीवाणु कुछ जीवन इकाइयां (जींस) संजोता है ताकि दवा पे हल्ला बोल सके. बस घुसपैठ होने की देर है कुनबा परस्ती, द्विगुणित होना शुरु कर देता है जीवाणु. अब या तो अपना रूप (प्रोटीन आवरण) ही बदल लेता है या फिर अपने कुनबे के तमाम लोगों को तमाम जीवाणुओं को प्रति रोधी जींस थमा देता है. भागे दारी करता है उनके साथ रेज़ीस्तेंट जींस की .
देर से चेत रहा है मुंबई
काली पड़ चुकी चमड़ी से स्वाब (फाहे से कुछ इसी चमड़ी के ऊतक लेकर) बारीकी से जांच की. तथा कुछ Genric antibiotics नुस्खा लिख तजवीज़ कर दिए. Bacterial culture तथा antibiotic sensitivity की भी जांच की गई. सब कुछ खुदा का शुक्र है नोर्मल था. लेकिन जिस जख्म को तकरीबन दस दिन में ही भर जाना चाहिए उसकी हालत बद से बदतर होती गई. छ: हफ्ते बाद एक और जांच की गई. पता चला यह सारी करामात उस सुपर बग Pseudomonas aeruginosa की है जो अपने दवा प्रतिरोध (Drug resistance) के लिए कुख्यात रहा है. क्षिप्रता से यह उत्परिवर्तित हो जाता है अपना रूप -विधान बदल लेता है .
यही जीवाणु तमाम तरह के एंटी-बायोटिक्स का प्रति-रोध कर रहा था. उनसे निष्प्रभावित बना रामचन्द्र की एडी में अपना कुनबा बढा रहा था. नतीज़न एडी के घाव को भरने में पूरे ९० दिन लग गए. रामचन्द्रन हतप्रभ है उसे कोई इल्म नहीं है कहाँ से उसे इस खतरनाक सुपर बग जनित संक्रमण की छूत लगी. साथ ही ईश्वर का शुक्र गुज़ार है. उसे अब आराम है और कोई बड़ी कीमत उसे नहीं चुकानी पड़ी. जबकि उसकी एडी में यह ड्रग रेज़ीस्तेंट बेक-टीरिया अपना घर ही बना चुका था.
लेकिन क्या मुंबई में हर कोई रामचन्द्रन जैसे ही नसीबों वाला है? स्वप्न नगरी मुंबई के अस्पतालों में ऐसे मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है जो ड्रग रेज़ीस्तेंट से जूझ रहे हैं, ड्रग रेज़ीस्तेंट भोगते भोगते कुछ चल बसे हैं.
Mumbai's public hospital-acquired infections
माहिरों के अनुसार अस्पताल जनित संक्रमण के मामले ही कमसे कम १०% हैं तमाम संक्रमण के मामलों के बरक्स. इनका एक बड़ा हिस्सा ड्रग रेज़ीस्तेंट संक्रमण है. नंबर वन सिटी बन रहा है मुंबई ड्रग रेज़िसतेंट के मामले में. ड्रग रेज़ीस्तेंट बेक-टीरिया के खिलाफ आखिरी लड़ाई लड़ी जानी अभी बाकी है जबकि भारत कुख्यात हो चुका है एंटी-बायतिक्स के दुरोपयोग के मामले में.
While India gains notoriety for its abuse of antibiotics, Mumbai is emerging as the numero uno city cut out for serious trouble. It has everything it takes to bring on antibiotic Armageddon a 1.25 crore plus crowd, staggering numbers of unqualified doctors, lack of sanitation and health care, among other things. Doctors agree that it has come to be the hyperactive nerve centre of drug resistance.
एंटीबायोटिक्स रेजिस्टेंस है क्या?
Antibiotic resistance, the Achilles Heel of modern medicine, is the ability of bacteria to become immune to a drug that once stalled them or killed them.
जी हाँ, आधुनिक चिकित्सा का कमज़ोर पक्ष दुखती नस है दवा प्रति-रोध. वही दवा जो कभी असरदार होती है कालान्तर में निष्प्रभावी हो जाती है. जीवाणु उससे बे असर रहना सीख जाता है. आखिर सृष्टि का पहला जीव जीवाणु ही तो है जो आज भी सर्वोत्तम की सर्व-श्रेष्ठता सिद्धांत का अनुगामी अनुचर बना हुआ है. वही बात है तू डाल डाल मैं पात पात .एक तरफ एक के बाद नई पीढ़ी के एंटी-बायोटिक्स आ रहें हैं दूसरी तरफ जीवाणु अपना रूप विधान तेज़ी से बदल लेता है म्युतेट हो जाता है. निष्प्रभावी कर देता है दवा को.
दरअसल जीवाणु कुछ जीवन इकाइयां (जींस) संजोता है ताकि दवा पे हल्ला बोल सके. बस घुसपैठ होने की देर है कुनबा परस्ती, द्विगुणित होना शुरु कर देता है जीवाणु. अब या तो अपना रूप (प्रोटीन आवरण) ही बदल लेता है या फिर अपने कुनबे के तमाम लोगों को तमाम जीवाणुओं को प्रति रोधी जींस थमा देता है. भागे दारी करता है उनके साथ रेज़ीस्तेंट जींस की .
देर से चेत रहा है मुंबई
जो कभी पुरसुकून बे-फिकरी और खुशमिजाजी के लिए जाना जाता था जबकि इस महा-नगरी को इस खतरे को पहले भांपना था. आसानी से इल्म नहीं होता है ड्रग रेजिस्टेंस का. वो तो जब अचानक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता बीमारी से उबरता शख्श यकायक रोग जटिलता, पेचीला पन प्रदर्शित करता है लक्षणों से तब चिकित्सकों को शक होता है कि यह ड्रग रेजिस्टेंस हैं. यही कहना है डॉ .पंजाबी का. आप लेप्रास्कोपिक सर्जन हैं फोर्टिस अस्पताल में.
क्या कहतें हैं डॉ अल्ताफ पटेल साहब इस बाबत
हमारे अस्पताली माहौल में एंटी-बायोटिक्स (प्रति-जैविकी पदार्थ/दवाएं) लगातार अपनी धार खोकर बे-असर हो रहीं हैं. सारा माहौल ही संक्रमित है. अस्पताल खुद बीमार हैं. आप एक मर्तबा दिल के दौरे से उबर आयेंगे, प्रबंधन कर लिया जाएगा हार्ट अटेक का. लेकिन यदि गहन देखभाल कक्ष में न्युमोनिया संक्रमण लग गया तब-तुझको रख्खे राम तुझको अल्लाह रख्खे. मौत हो सकती है आपकी.
BIG CITY BIG TROUBLE
महानगर में होती है बड़ी समस्याएं, महा-रोग. जीवाणुओं को द्विगुणित होने का पूरा माहौल मुहैया करवाती है मुंबई नगरिया. उमस भरा होता है यहाँ मौसम बे-मिजाज़. साफ़ सफाई और स्वास्थ्य विज्ञान का यहाँ नितांत तोड़ा है. गैर -भरोसे मंद स्ट्रीट फ़ूड यहाँ इफरात से है. पेय जल अपेय है. अपने खतरे पे पियो. निर-जीवाणुक हो इसकी कोई गारंटी नहीं है. शौचालयों का अभाव है. यहाँ भी खुले में जंगल जातें हैं लोग. पूरे मरीन ड्राइव वे पर एक शौचालय/मूत्रालय है. जय हो वृहन (महानगर) पालिका. जय बी.एम्.सी.
क्या कहतें हैं डॉ अल्ताफ पटेल साहब इस बाबत
हमारे अस्पताली माहौल में एंटी-बायोटिक्स (प्रति-जैविकी पदार्थ/दवाएं) लगातार अपनी धार खोकर बे-असर हो रहीं हैं. सारा माहौल ही संक्रमित है. अस्पताल खुद बीमार हैं. आप एक मर्तबा दिल के दौरे से उबर आयेंगे, प्रबंधन कर लिया जाएगा हार्ट अटेक का. लेकिन यदि गहन देखभाल कक्ष में न्युमोनिया संक्रमण लग गया तब-तुझको रख्खे राम तुझको अल्लाह रख्खे. मौत हो सकती है आपकी.
BIG CITY BIG TROUBLE
महानगर में होती है बड़ी समस्याएं, महा-रोग. जीवाणुओं को द्विगुणित होने का पूरा माहौल मुहैया करवाती है मुंबई नगरिया. उमस भरा होता है यहाँ मौसम बे-मिजाज़. साफ़ सफाई और स्वास्थ्य विज्ञान का यहाँ नितांत तोड़ा है. गैर -भरोसे मंद स्ट्रीट फ़ूड यहाँ इफरात से है. पेय जल अपेय है. अपने खतरे पे पियो. निर-जीवाणुक हो इसकी कोई गारंटी नहीं है. शौचालयों का अभाव है. यहाँ भी खुले में जंगल जातें हैं लोग. पूरे मरीन ड्राइव वे पर एक शौचालय/मूत्रालय है. जय हो वृहन (महानगर) पालिका. जय बी.एम्.सी.
अस्पताल यहाँ खचाखच भरे हैं. बचावी उपाय अस्पताली संक्रमण के नदारद हैं. हैं भी कहीं कहीं तो उन्हें अपनाना मुमकिन नहीं. हेल्थ प्रोवाइदर्स कम मरीज़ ज्यादा ऐसे में एक से दूसरे मरीज़ को टीका लगाने के लिए पहुँचने से पहले हाथ धोना भी हमेशा मुमकिन नहीं होता. जबकि बहुत सारे मामले संक्रमण के इस सरल उपाय से टाले जा सकते हैं. यहाँ कौन किसको दोष दे. एक अनार सौ बीमार वाली बात है.
इसमें आप जोड़ दीजिये उन फ्लाई-बाई-नाईट, बे-ईमान लालची अल्पकालिक चिकित्सकों को जो कम समय में अधिक से अधिक लाभ कमाने के लालच में बिना सोचे समझे नुस्खे लिख देते हैं, जबकि इन्हें दवा के औषध विज्ञान फार्मा-कोलोजी का जरा भी इल्म नहीं है न दवा की डोज़ का न ली जाने वाली अवधि का. न इस बात का कि कौन सी दवा कब दी जाए. लेकिन सब चलता है साहब पचास फीसद निजी प्रेक्टिशनर ऐसे ही (इच) है.
मरीज़ भी जल्दी में है. उसे ठीक होने की जल्दी है काम पे दिहाड़ी कट जायेगी. डॉ. तो पहले ही करिश्मा दिखाने को तैयार बैठा है. ऐसी ही एक कमसिन मोहतरमा २३ वर्षीय छात्रा (घाटकोपर वासी) अपने पारिवारिक चिकित्सक द्वारा दवा लिखी गई माइल्ड डोज़ को परे करके एक भकुए के पास पहुंची उन्होंने इसे दस दिन के एंटी-बायोटिक इंजेक्शन कोर्स पर डाल दिया. उसे लगा ठीक हो गई. दवा बंद करते ही यह छात्रा मष्तिष्क तंतु शोथ (मेनिंजाईतिस, Meningitis) की चपेट में आ गई. फिलवक्त ये घाटकोपर अस्पताल में भरती हैं इन्हें रोग से उबरने में खासा वक्त लग रहा है. रिकवरी स्लो है.
गत तीन सालों में मुंबई नगरिया एंटी-बायोटिक्स के एक विषमय चक्र में फंस गई है जिसे देखो एंटी-बायोटिक लिख रहा है सर्दी जुकाम में भी.पूछो तो कहता है भाई साहब यह सेकेंडरी इन्फेक्शन मुल्तवी रखने के लिए है. बकौल डॉ अमोल मनेरकर- मरीज़ आता विषाणु संक्रमण लेकर है और दवा दे जाती है उसे जीवाणु रोधी एंटी-बायोटिक. ये सरासर गलत है. आप कोहिनूर अस्पताल से सम्बद्ध हैं. वायरस के खिलाफ जबकि बे -असर रहतीं हैं एंटी-बायोटिक दवाएं फिर भी धडल्ले से लिखी जा रहीं हैं.
इसमें आप जोड़ दीजिये उन फ्लाई-बाई-नाईट, बे-ईमान लालची अल्पकालिक चिकित्सकों को जो कम समय में अधिक से अधिक लाभ कमाने के लालच में बिना सोचे समझे नुस्खे लिख देते हैं, जबकि इन्हें दवा के औषध विज्ञान फार्मा-कोलोजी का जरा भी इल्म नहीं है न दवा की डोज़ का न ली जाने वाली अवधि का. न इस बात का कि कौन सी दवा कब दी जाए. लेकिन सब चलता है साहब पचास फीसद निजी प्रेक्टिशनर ऐसे ही (इच) है.
मरीज़ भी जल्दी में है. उसे ठीक होने की जल्दी है काम पे दिहाड़ी कट जायेगी. डॉ. तो पहले ही करिश्मा दिखाने को तैयार बैठा है. ऐसी ही एक कमसिन मोहतरमा २३ वर्षीय छात्रा (घाटकोपर वासी) अपने पारिवारिक चिकित्सक द्वारा दवा लिखी गई माइल्ड डोज़ को परे करके एक भकुए के पास पहुंची उन्होंने इसे दस दिन के एंटी-बायोटिक इंजेक्शन कोर्स पर डाल दिया. उसे लगा ठीक हो गई. दवा बंद करते ही यह छात्रा मष्तिष्क तंतु शोथ (मेनिंजाईतिस, Meningitis) की चपेट में आ गई. फिलवक्त ये घाटकोपर अस्पताल में भरती हैं इन्हें रोग से उबरने में खासा वक्त लग रहा है. रिकवरी स्लो है.
गत तीन सालों में मुंबई नगरिया एंटी-बायोटिक्स के एक विषमय चक्र में फंस गई है जिसे देखो एंटी-बायोटिक लिख रहा है सर्दी जुकाम में भी.पूछो तो कहता है भाई साहब यह सेकेंडरी इन्फेक्शन मुल्तवी रखने के लिए है. बकौल डॉ अमोल मनेरकर- मरीज़ आता विषाणु संक्रमण लेकर है और दवा दे जाती है उसे जीवाणु रोधी एंटी-बायोटिक. ये सरासर गलत है. आप कोहिनूर अस्पताल से सम्बद्ध हैं. वायरस के खिलाफ जबकि बे -असर रहतीं हैं एंटी-बायोटिक दवाएं फिर भी धडल्ले से लिखी जा रहीं हैं.
कब असरकारी सिद्ध होता है एंटी-बायटिक
कैसे इस्तेमाल में लिया गया है प्रति-जैविकी पदार्थ? क्या ज़रूरी होने पर ही या...? क्या हर मामले में सही डोज़ का निर्धारण हो सका है? क्या सही अवधि तक दवा तजवीज़ की गई है? क्या दवा का निर्धारण करते वक्त शरीर की तौल और रोगी की उम्र को मद्दे नजर रखा गया है? यदि इन तमाम सवालों के ज़वाब सकारात्मक हैं 'हाँ 'में है तब और केवल तब ही एंटी-बायोटिक अपना पूरा असर दिखा पायेगा. यह कहना है डॉ शिवकुमार साहब का. Dr Shiv kumar Utture महाराष्ट्र चिकित्सा परिषद् के सदस्य तथा तथा भारतीय चिकत्सा संघ के पूर्व मुखिया भी रह चुकें हैं.
बैक्टीरिया होता है कुशल रणनीतिकार
जो लोग दवाओं के औषध विज्ञान से ही वाकिफ नहीं हैं, जीवाणु विज्ञान की जिन्हें समझ नहीं है ऐसे तमाम लोग धड़ल्ले से तजवीज़ कर देतें हैं एंटी-बायोटिक. और इसी अभिज्ञता से जीवाणु को पनपने में बड़ी मदद मिलती है. जब भी और जितनी मर्तबा आप जीवाणु-प्रति-रोधी दवाओं एंटी-बायोटिक्स का कोर्स करते हैं. जीवाणु की कमज़ोर किस्म ज़रूर नष्ट हो जाती हैं लेकिन ताकत दार किस्म घात लगाके शरीर में ही छिप जाती है अगले हमले की ताक में. जब आप कोर्स पूरा भी नहीं करते हैं बीच से ही भाग खड़े होतें हैं बेक्टीरिया एंटी-बायटिक से लड़ने की रणनीति बना लेता है और डटके मुकाबला करता है. द्विगुणित होने लगता दोबारा. तब ऐसा ही प्रतीत होता है हम हारी हुई लड़ाई ही लड़ रहें हैं. वर्तमान में कुछ ही शेष बचे असरकारी एंटी-बायोटिक का इस्तेमाल ही हो पा रहा है.
चिकित्सा विज्ञान का बी.ए. पास बाकायदा डिग्री सुशोभित MBBS डॉक्टरों ने भी इस स्थिति को लाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी हैं. बहुलांश में दोषी वही हैं प्रति-जैविकी पदार्थों के मनमाने इस्तेमाल के लिए. नीम हकीम तो छोटी मछली हैं जिन्हें दवा कम्पनियों की तरफ से कोई तोहफे भी नहीं मिलते हैं.
केवल यदि विषाणु से पैदा रोगों में एंटी-बायोटिक दवाओं का चलन बंद हो जाए तो एक तरफ बे-तहाशा इनकी बिक्री का ग्राफ नीचे आ जाये दूसरी तरफ वर्तमान स्थिति और दुरावस्था को प्राप्त न होवे.
विशेषज्ञों की राय
कैसे इस्तेमाल में लिया गया है प्रति-जैविकी पदार्थ? क्या ज़रूरी होने पर ही या...? क्या हर मामले में सही डोज़ का निर्धारण हो सका है? क्या सही अवधि तक दवा तजवीज़ की गई है? क्या दवा का निर्धारण करते वक्त शरीर की तौल और रोगी की उम्र को मद्दे नजर रखा गया है? यदि इन तमाम सवालों के ज़वाब सकारात्मक हैं 'हाँ 'में है तब और केवल तब ही एंटी-बायोटिक अपना पूरा असर दिखा पायेगा. यह कहना है डॉ शिवकुमार साहब का. Dr Shiv kumar Utture महाराष्ट्र चिकित्सा परिषद् के सदस्य तथा तथा भारतीय चिकत्सा संघ के पूर्व मुखिया भी रह चुकें हैं.
बैक्टीरिया होता है कुशल रणनीतिकार
जो लोग दवाओं के औषध विज्ञान से ही वाकिफ नहीं हैं, जीवाणु विज्ञान की जिन्हें समझ नहीं है ऐसे तमाम लोग धड़ल्ले से तजवीज़ कर देतें हैं एंटी-बायोटिक. और इसी अभिज्ञता से जीवाणु को पनपने में बड़ी मदद मिलती है. जब भी और जितनी मर्तबा आप जीवाणु-प्रति-रोधी दवाओं एंटी-बायोटिक्स का कोर्स करते हैं. जीवाणु की कमज़ोर किस्म ज़रूर नष्ट हो जाती हैं लेकिन ताकत दार किस्म घात लगाके शरीर में ही छिप जाती है अगले हमले की ताक में. जब आप कोर्स पूरा भी नहीं करते हैं बीच से ही भाग खड़े होतें हैं बेक्टीरिया एंटी-बायटिक से लड़ने की रणनीति बना लेता है और डटके मुकाबला करता है. द्विगुणित होने लगता दोबारा. तब ऐसा ही प्रतीत होता है हम हारी हुई लड़ाई ही लड़ रहें हैं. वर्तमान में कुछ ही शेष बचे असरकारी एंटी-बायोटिक का इस्तेमाल ही हो पा रहा है.
चिकित्सा विज्ञान का बी.ए. पास बाकायदा डिग्री सुशोभित MBBS डॉक्टरों ने भी इस स्थिति को लाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी हैं. बहुलांश में दोषी वही हैं प्रति-जैविकी पदार्थों के मनमाने इस्तेमाल के लिए. नीम हकीम तो छोटी मछली हैं जिन्हें दवा कम्पनियों की तरफ से कोई तोहफे भी नहीं मिलते हैं.
केवल यदि विषाणु से पैदा रोगों में एंटी-बायोटिक दवाओं का चलन बंद हो जाए तो एक तरफ बे-तहाशा इनकी बिक्री का ग्राफ नीचे आ जाये दूसरी तरफ वर्तमान स्थिति और दुरावस्था को प्राप्त न होवे.
विशेषज्ञों की राय
यदि संक्रमण को अपना चक्र पूरा करने दिया जाए और लक्षणों के आधार पर यानी लक्षनात्मक, रोग सूचक, SYMPTOMATICALLY ही मरीज़ का उपचार किया जाए तो यह एक बेहतर स्थिति होगी, बढ़िया रणनीति होगी. लेकिन? और इस लेकिन का कोई ज़वाब नहीं है क्योंकि यहाँ हर शख्श जल्दी में है. हर कोई पहले ही दाव में पहले ही मौके में रोग मुक्त होना चाहता है.
ऐसे में जब डॉ को कुछ समझ नहीं आता. मर्ज़ का ठौर नहीं ले पाता वह एंटी-बायोटिक आजमाता है. रामबाण समझ लिया गया है इन प्रति-जैविकी पदार्थों को. करिश्मा दिखाने का दवाब जो है उस पर. डॉ मनरेकर का यही कहना है.
डॉ विश्व मोहन कटोच कहतें हैं यह मामला कुछ यूं हैं बहुत बड़ी संख्या है ऐसे डॉक्टरों की जो बहुत सारे एंटी-बायोटिक आजमा रहें हैं. आप भारतीय चिकित्सा शोध परिषद् के महा-निदेशक हैं.
फौरी ज़रुरत है आज की:
ऐसे में जब डॉ को कुछ समझ नहीं आता. मर्ज़ का ठौर नहीं ले पाता वह एंटी-बायोटिक आजमाता है. रामबाण समझ लिया गया है इन प्रति-जैविकी पदार्थों को. करिश्मा दिखाने का दवाब जो है उस पर. डॉ मनरेकर का यही कहना है.
डॉ विश्व मोहन कटोच कहतें हैं यह मामला कुछ यूं हैं बहुत बड़ी संख्या है ऐसे डॉक्टरों की जो बहुत सारे एंटी-बायोटिक आजमा रहें हैं. आप भारतीय चिकित्सा शोध परिषद् के महा-निदेशक हैं.
फौरी ज़रुरत है आज की:
इन गोलियों का बे-हूदा चलन रोका जाए. लोगों को छोटा मोटा संक्रमण बर्दाश्त भी करना चाहिए.
50 प्रतिशत डॉक्टर अंडरक्वालिफाइड हैं
50 प्रतिशत डॉक्टर अंडरक्वालिफाइड हैं
गिर्गौम में एक क्लिनिक 90 सालों से सेवा रत है यहाँ आपको मिलेंगे डॉ. कृष्णकांत ढेबरी. इनके पिता श्री आर पी ढेबरी साहब जनरल प्रेक्टिशनर संघ के संस्थापक थे. वह दौर १९६० के दशक का था. बकौल डॉ .कृष्ण कान्त मुंबई नगरी के तकरीबन तकरीबन ५०% चिकित्सक या तो पूरी तरह योग्यता प्राप्त नहीं हैं अंडर क्वालिफाइड हैं या फिर नीम हकीम. संघ का आशय इन प्रेक्टिश साहब जादों की समस्याओं को हल करना था. अहम सवालों पर एक आम राय कायम करना भी था चिकित्सा से जुड़े होते थे ये तमाम सवाल .इन सवालों में ड्रग रेजिस्टेंस भी शुमार था. अब इन पर किसी का जोर नहीं है ये क्या नुस्खा लिखते हैं इस मामले में किसी का कोई दखल नहीं है. और ऐसा आप यूं ही नहीं कहते उस दौर के तमाम दस्तावेजों को खंगालने के बाद साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए कहते हैं.
620 अरब रुपयों है भारत का औषध उद्योग
फार्मासितिकल इंडस्ट्री का एक ही मकसद एक ही इरादा रहता है इस उद्योग का कैसे अपने ब्रांड को आगे किया जाए. आम प्रेक्टिशनर झट मंहगे ब्रोड स्पेक्ट्रम एंटी-बायोटिक का नुस्खा लिख देता है जबकि तीस रूपये की दस गोलियों का एक पत्ता भी वही काम करता है. जिस जीवाणु, रोगकारक को आप एक साधारण (फोर्मूलेशन) गोली से मार सकते हैं उस पर ब्रोड स्पेक्ट्रम इंटर-कोंतिनेंतल मिसाइल(स्ट्रोंग एंटी-बायोटिक) आजमाने की कहाँ ज़रुरत है?620 अरब रुपयों है भारत का औषध उद्योग
डॉ मनरेकर इस विचार का समर्थन करते हुए कहते हैं- सर्दी के संग आने वाले बुखार मलेरिया में मैं एक रूपये की एक गोली CHLOROQUINE ही तजवीज़ करता हूँ. दो तीन दिन में आप के पैरों में फिर से जान आजाती है. डॉ मनरेकर अपने एक मरीज़ का किस्सा कुछ यूं बयान करतें हैं- 'डॉ साहब आप मुझे वह २०० रूपये वाला इंजेक्शन क्यों नहीं लगाते हैं. मेरे उससे असहमति व्यक्त करने पर वह मुझे छोड़कर वहीँ चला जाता है. तो ज़नाब मरीज़ भी माशा अल्लाह हैं. एक से बढ़कर एक.
OH CARP!
स्ट्रोंग एंटी-बायोटिक का इस्तेमाल करने का मतलब है हम स्थिति में कोशिश तो सुधार लाने की कर रहें हैं लेकिन सत्यानाश बुरे के साथ लाभदायक अच्छी नेक बेक-टीइरिया का भी कर रहें हैं.
GOOD BACTERIA OR GUT FLORA
हमारा तमाम पाचन क्षेत्र २,२ किलोग्राम जीवाणुओं को पनाह दिए हुए है. इस HUMAN DIGESTIVE TRACT की प्रकृति प्रदत्त महिमा अपार है .
लेकिन एंटी-बायोटिक का गैर ज़रूरी सैलाब अपने साथ तमाम दोस्त जीवाणुओं को भी बहा ले जाता है. ऐसे में रोग कारकों की पौ बारह हो जाती है खुलके खेलते हैं पैथोजंस. यही कहना है माइक्रो-बायोलोजिस्ट (सूक्ष्म जैविकीविद) डॉ .प्रीती मेहता का. आप KEM अस्पताल से सम्बद्ध हैं.
दुखद और घातक पहलु एक और भी है. शहर की अंतड़ियों (सीवरेज सिस्टम) को देखिये बेहाल हैं. वहां बिलबिला रहें हैं अरबों खरब दवा प्रति-रोधी जीवाणु. उत्परिवर्तित हो रहे हैं. यह म्युटेंट फॉर्म और भी ज्यादा घातक होती चली जाती है. खुले में शौच के लिए निकलने वालों का भी इसमें बड़ा योगदान है. यही गत ६५ सालों का हासिल है. लोगों के पास शौचालय नहीं हैं. खुले में जंगल जाना पड़ता है. पोखर गंदे नालों से मल साफ़ करना पड़ता है.
ऐसे घटाटोप में इन जीवाणुओं को पनपने खुलके खेलने का मौक़ा खूब मिलता है. ये कब हमारी हवा में आजातें हैं इसका पता ही नहीं चलता. बा-रास्ता भू -जल ये हमारी खाद्य श्रृंखला में भी निस्संकोच चले आतें हैं. देख भाल के खाइए स्ट्रीट फ़ूड.
बरसात में और भी कहर ढातें हैं ये जीवाणु
प्रति-वर्ग किलोमीटर ज्यादा लोगों का ज़माव फिर चाहे वह लोकल हो या अस्पताल, बाज़ार हो या फ़ूड पार्क संक्रमण को और सहज सम्प्रेश्नीय बना देता है.
टिपण्णी कर्ताओं से माफ़ी चाहता हूँ क्योंकि टिपण्णी देख नहीं पा रहा हूँ इसलिए आपतक वापस नहीं पहुँच पा रहा हूँ .
कृपया नेहा बनाए रहें,आपकी टिपण्णी हमारे लेखन की आंच हैं . बा -रहा शुक्रिया आपका .वीरुभाई.
आदरणीय वीरेन्द्र जी, बहुत ही श्रमपूर्वक तैयार की है आपने यह रिपोर्ट। आशा है इससे लोग लाभान्वित होंगे।
ReplyDeleteउपयोगी रिपोर्ट। आभार!
ReplyDeleteसार्थक रिपोर्ट !
ReplyDeleteजाकिर भाई,
ReplyDeleteइस लेख कि सार्थकता को अगर आम इंसान समझ जाए तो फिर वह एंटी -बायोटिक्स के दुरूपयोग से बच जाए. लेकिन आम इंसान तो इससे अनभिज्ञ होता है , जब डॉक्टर ही प्रतिबंधित दवाओं और एंटी-बायोटिक्स बिना पूरी जांच के देने लगते हैं . यहाँ पर नीम हकीम डॉक्टरों के बोलबाला के चलाते एक आम आदमी, जो इस देश का सबसे बड़ा प्रतिशत है. ऐसे दौर से गुजरता है और गुजारा रहा है. पूरी तरह से विसंक्रमण की प्रक्रिया से तो अस्पतालों में कोई भी यन्त्र नहीं गुजरता है फिर सुपर बग की उपस्थिति से इनकार कैसे किया जा सकता है ? शरीर में रोग के अनुसार एंटी-बायोटिक्स से रेजिस्टेंट होने की जानकारी बगैर विभिन्न स्रोतों के कल्चर किये बिना पता नहीं लग सकती है और इस लम्बी प्रक्रिया से न जल्दी सरकारी अस्पताल में और न ही प्रायवेट प्रेक्टिस करने वाले डॉक्टर ही करवाते हैं. जब स्थिति हाथ से बाहर हो जाती है और मरीज खुद ही कहीं और जाकर इलाज की जरूरत महसूस करने लगता है तब जाकर पता लगता है. लेकिन कुछ दुर्भाग्यशाली मरीज तो इससे पहले ही चल बसते हैं. इस विषय में कुछ मैं भी इस ब्लॉग के लिए भेजना चाहती हूँ. अगर आप ऐसा करने की अनुमति दें.
आदरणीय रेखा जी, इस मामले पर एक कहावत याद आ रही है- कुछ गुड़ ढीला, कुछ बनिया। वैसे गल्ती चाहे जिसकी हो, उसका खामियाजा तो अन्ततोगत्वा मरीज को ही भुगतना पडता है।
Deleteआपको इस विषय में रूचि है, यह जानकार प्रसन्नता हुई, मैं ब्लॉग का निमंत्रण आपको अलग से भेज रहा हूं। आपको इस ब्लॉग से जोडकर हम सबको प्रसन्नता होगी।
बहुत उपयोगी जानकारी....
ReplyDeleteएन्टिबायोटिक वह दुधारी तलवार है जिसका इस्तेमाल सोच समझ कर करना नितान्त आवश्यक है ।
ReplyDeleteआपका यह लेख इस दिशा में एक उपल्ब्धि है ।
बहुर उपयोगी जानकारी है। धन्यवाद।
ReplyDeleteएक मुकम्मल आलेख
ReplyDeleteकोई भी दवा एक सीमा तक ही ठीक है। किसी भी दवा पर निर्भरता जीवन के उल्लास को कम कर देती है। वह दवा अगर एंटी-बायोटिक हो,तो जीवन और कष्टकर हो जाता है। तब और ज़्यादा,जब वह भी रेजिस्टेंट हो जाए।
ReplyDeleteमुझे लगता है कि अधिकांश पढ़े-लिखे और बिना पढ़े-लिखे डॉक्टर्स में व्यावहारिक तौर पर बहुत अंतर नहीं है। कम से कम इस मामले में कि दोनो ही एण्टीबायोटिक्स का अन्धाधुन्ध प्रयोग करते हैं। डायरिया में सामान्यतः कोई एण्टीबायोटिक्स नहीं देना चाहिये किंतु इसका पालन करने वाले डॉक्टर्स बहुत कम हैं। मरीज को ज़ल्दी है काम पर जाने की, डॉक्टर को ज़ल्दी है पैसा कमाने की। शॉर्ट्कट दोनों की प्राथमिकता है। ऐसे में नोज़ोकोमियल इंफ़ेक्शन होने ही हैं। सुपरबग हमारी शॉर्टकट जीवन शैली का उत्पाद है। यदि हमने अपनी जीवनशैली को नहीं बदला तो स्थितियाँ और भी भयंकर होने वाली हैं।
ReplyDeleteThis is very usefulll information. But all of these probloms only doctor is responsible because patient does no know what to do..
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