Sushruta Biography in Hindi सुश्रुत संहिता शल्य चिकित्सा Sushruta Samhita in Hindi
सुश्रुत का जीवन परिचय Sushruta Biography in Hindi
सुश्रुत संहिता शल्य चिकित्सा Sushruta Samhita in Hindi
सुश्रुत संहिता शल्य चिकित्सा Sushruta Samhita in Hindi
आधी रात का समय था। एक वृद्ध अपने कक्ष में सो रहा था। किसी ने बाहर से जोर से दरवाजा खटखटाया। वृद्ध की आँख खुल गयी। उसने उठकर दरवाजा खोला। सामने खून से लथपथ एक व्यक्ति खड़ा था। वृद्ध ने ध्यान से देखा। उस व्यक्ति की नाक कटी हुई थी और उससे रक्त-श्राव हो रहा था। वृद्ध ने उसे दिलासा दिया और अन्दर आने के लिए कहा। वृद्ध उसे लेकर बगल के कमरे में गया। उसने आगन्तुक के चेहरे पर लगे रक्त को साफ करने के बाद उसे दवा मिश्रित पानी से मुँह धुलने का निर्देश दिया। उसके बाद वृद्ध ने उस व्यक्ति को एक गिलास में भरकर मदिरा पीने को दी और स्वयं शल्य क्रिया करने की तैयारी करने लगा।
वृद्ध ने एक पत्ते से आगन्तुक व्यक्ति के घाव की नाप ली। फिर उसने दीवार पर टंगे भाँति-भाँति के उपकरणों में से कुछ उपकरण उतारे और उन्हें आग पर गर्म करने लगा। वृद्ध ने अजनबी के गाल से माँस का एक टुकड़ा काट कर उसे दवाओं से उपचारित किया। उसने माँस के टुकड़े को नाक पर रख कर उसे यथोचित आकार दे दिया। उसने कटे हुए स्थान पर घुँघची, लाल चंदन का बुरादा छिड़कर दारूहल्दी का रस लगाया। वृद्ध ने नाक को तिल के तेल से भीगी रूई से ढ़क कर पट्टी बाँधने के बाद घायल को नियमित रूप से खाई जाने वाली दवाइयों की सूची दे दी और घर जाने को कहा।
उस घायल की नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने वाला वह वृद्ध और कोई नहीं आयुर्वेद के विश्वविख्यात आचार्य सुश्रुत थे, जिन्हें ‘भारत में सर्जरी का पिता’ ( Father of Surgery in India ) / ‘प्लास्टिक सर्जरी का पिता’ ( Father of Plastic Surgery ) कहा जाता है।
उस घायल की नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने वाला वह वृद्ध और कोई नहीं आयुर्वेद के विश्वविख्यात आचार्य सुश्रुत थे, जिन्हें ‘भारत में सर्जरी का पिता’ ( Father of Surgery in India ) / ‘प्लास्टिक सर्जरी का पिता’ ( Father of Plastic Surgery ) कहा जाता है।
सुश्रुत विश्व के पहले चिकित्सक थे, जिसने शल्य क्रिया ( Caesarean Operation ) का प्रचार किया। वे शल्य क्रिया ही नहीं बल्कि वैद्यक की कई शाखाओं के विशेषज्ञ थे। वे टूटी हड्डियों के जोड़ने, मूत्र नलिका में पाई जाने वाली पथरी निकालने, शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने एवं मोतियाबिंद की शल्य-चिकित्सा में भी दक्ष थे। वे शल्य क्रिया करने से पहले उपकरणों को गर्म करते थे, जिससे उपकरणों में लगे कीटाणु नष्ट हो जाएँ और रोगी को आपूति (एसेप्सिस) दोष न हो। वे शल्य क्रिया से पहले रोगी को मद्यपान कराने के साथ ही विशेष प्रकार की औषधियाँ भी देते थे। यह क्रिया संज्ञाहरण (Anaesthesia) के नाम से जानी जाती है। इससे रोगी को शल्य क्रिया के दौरान दर्द की अनुभूति नहीं होती थी और वे बिना किसी व्यवधान के अपना कार्य सम्पन्न कर लेते थे।
सुश्रुत का जन्मकाल Sushruta Date of Birth
इतिहास के ग्रन्थों में सुश्रुत का जीवन परिचय ( Sushruta Biography in Hindi ) खाजने पर बेहद निराशा हाथ लगती है। सुश्रुत के बारे में भी हमारे पास कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। अनेक स्थान पर सुश्रुत को विश्वामित्र का पुत्र बताया गया है। किन्तु इसमें भी दुविधा यह है कि प्राचीनकाल में विश्वामित्र नामधारी अनेक व्यक्तियों का जिक्र मिलता है। इसलिए सुश्रुत के पिता कौन से विश्वामित्र थे, यह ठीक-ठीक बताना मुश्किल है। संभवत: इसीलिए अधिकाँश विद्वानों ने सुश्रुत को विश्वामित्र का वंशज माना है, जिसका जन्म छ: सौ ईसा पूर्व हुआ था। ये काशी में जन्मे थे और वहीं के दिवोदास धन्वंतरि के आश्रम में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी।
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शल्य-चिकित्सा की परम्परा Surgery in Ancient India
प्राचीन काल से हमारे देश में चिकित्सा की दो परम्पराएँ प्रचलित रही हैं ‘काय-चिकित्सा’ एवं ‘शल्य-चिकित्सा’। औषधियों एवं उपचार के द्वारा चिकित्सा की परम्परा काय-चिकित्सा के नाम से जानी जाती है। लेकिन जो चिकित्सा शल्य क्रिया द्वारा सम्पन्न होती है, उसे शल्य-चिकित्सा कहते हैं। ‘शल्य’ शब्द आमतौर से शरीर में होने वाली पीड़ा के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। शस्त्रों और यंत्रों द्वारा के प्रयोग के द्वारा उस पीड़ा को दूर करने की जो प्रक्रिया है, वह शल्य-चिकित्सा के नाम से जानी जाती है।
भारतवर्ष में चिकित्सा की परम्परा प्राचीनकाल से प्रचलित रही है। इसीलिए पुराने जमाने के विद्वानों ने कहा है कि ब्रह्मा ने इस ज्ञान को जन्म दिया। इस सम्बंध में यह धारणा है कि ब्रह्मा ने यह ज्ञान प्रजापति को दिया था। प्रजापति से यह ज्ञान अश्विनीकुमारों के पास पहुँचा। वैदिक साहित्य में अश्विनी कुमारों के चमत्कारिक उपचार की अनेक कथाएँ पढ़ने को मिलती हैं। अश्विनीकुमारों की विद्या से अभिभूत होकर देवराज इन्द्र ने आयुर्वेद का ज्ञान ग्रहण किया था।
कहा जाता है कि इन्द्र को जो चिकित्सीय ज्ञान था, उसमें विभेद नहीं था। किन्तु इन्द्र के बाद इस ज्ञान की दो प्रमुख शाखाएँ हो गयीं, जो काय-चिकित्सा और शल्य-चिकित्सा के नाम से जानी गयीं। काय-चिकित्सा के आदि ग्रन्थ ‘चरक संहिता’ ( Charak Samhita ) के अनुसार भारद्वाज, आत्रेय-पुनर्वसु, अग्निवेश आदि काय-चिकित्सा के वैद्य हैं, जबकि शल्य-चिकित्सा के आदि ग्रन्थ ‘सुश्रुत-संहिता’ ( Sushruta Samhita ) में इंद्र के बाद धन्वंतरि ( Dhanvantari ayurveda ) का जिक्र मिलता है।
सुश्रुत संहिता ग्रंथ Sushruta Samhita Book
यह एक ज्ञात तथ्य है कि काय-चिकित्सा के प्रमुख ग्रन्थ ‘चरक संहिता’ आत्रेय-पुनर्वसु के उपदेशों का संग्रह है। इसे तैयार करने का काम अग्निवेश ने किया था, किन्तु इसका सम्पादन चरक (Charak: Father of medicine ) ने किया। बाद में दृढ़बल ने इसमें कई नई बातों का समावेश किया। जबकि शल्य-चिकित्सा के आदि ग्रन्थ का नाम ‘सुश्रुत संहिता’ है। इसमें धन्वंतरि के उपदेशों का संग्रह है। धन्वंतरि के बारे में कहा गया है कि वे काशी के राजा थे। चूँकि सुश्रुत ने इन उपदेशों का संग्रह किया था, इसलिए इसे ‘सुश्रुत संहिता’ के नाम से जाना गया।
सुश्रुत संहिता ग्रंथ के रचनाकाल के बारे में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसका रचना काल ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी मानते हैं। किन्तु सुश्रुत का जन्मकाल आमतौर से छ: सौ ईसा पूर्व माना गया है। ऐसे में सुश्रुत संहिता के रचनाकाल की यह धारणा स्वयं ही खण्डित हो जाती है। सुश्रुत संहिता में लगभग पूरे भारत का जिक्र किया गया है। इस ग्रन्थ में बौद्ध धर्म से सम्बंधित अनेक शब्दों का भी उपयोग किया है। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ बौद्ध धर्म के प्रचलन में आने के बाद ही लिखा गया होगा। भले ही इतिहासकार इस ग्रन्थ के रचनाकाल के बारे में एकमत न हों, पर वे इस बात पर अवश्य सहमत हैं कि यह ग्रन्थ ‘चरक संहिता’ के बाद रचा गया।
चरक की काय-चिकित्सा द्वारा रोगी का उपचार चलते-फिरते कहीं भी किया जा सकता है, जबकि शल्य-चिकित्सा के लिए उचित उपकरण एवं अस्पताल अथवा चिकित्सा-कक्ष की आवश्यकता होती है। सुश्रुत ने अस्पताल के लिए ‘व्रणितागार’ शब्द का उल्लेख किया है। उन्होंने अपने ग्रन्थ में अस्पताल की साफ-सफाई के बारे में विशेष जोर दिया है। इससे स्पष्ट है कि उन्हें गंदगी द्वारा होने वाले संक्रमण का भान रहा होगा।
सुश्रुत संहिता का संगठन Sushruta Samhita in Hindi
चरक संहिता की ही भाँति सुश्रुत संहिता की रचना भी संस्कृत भाषा में हुई है। यहां पर हिंदी में सुश्रुत संहिता ( Sushruta Samhita in Hindi ) के बारे में जानकारी दी जा रही है। सुश्रुत संहिता ग्रंथ मुख्य रूप से शल्य-चिकित्सा का ग्रंथ है। यह पाँच स्थानों (खण्डों) में विभक्त है। प्रथम खण्ड में 46 अध्याय, द्वितीय खण्ड में 16, तृतीय में 10, चतुर्थ में 40 एवं पंचम स्थान में 8 अध्याय हैं। इस प्रकार सुश्रुत संहिता में कुल 120 अध्याय हैं।इन अध्यायों के अतिरिक्त सुश्रुत संहिता में एक परिशिष्टि खण्ड भी है, जिसे ‘उत्तर-तंत्र’ का नाम दिया गया है। इस खण्ड के अन्तर्गत 66 अध्यायों में काय-चिकित्सा का वर्णन किया गया है। इस तरह यदि शल्य-चिकित्सा और काय-चिकित्सा के सभी अध्यायों को जोड़ दिया जाए, तो सुश्रुत संहिता 186 अध्यायों वाले एक वृहद ग्रन्थ के रूप में हमारे सामने आता है। कुछ विद्वानों का मत है कि बाद में ‘रस रत्नाकर’ के रचनाकार नागार्जुन ने सुश्रुत संहिता का सम्पादन किया तथा उसमें स्वयं द्वारा रचित ‘उत्तर तंत्र’ सम्मिलित कर दिया। लेकिन ज्यादातर विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं।
सुश्रुत संहिता ग्रंथ में शल्य-चिकित्सा के उपयोगी ‘यंत्र’ और ‘शस्त्र’ पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गयी है। यंत्र भालेनुमा आकृति के औजार हैं, जो टूटी हुई हड्डियों एवं अवांछित माँस को बाहर निकालने हेतु उपयोग में लाए जाते थे। इन यंत्रों की कुल संख्या 101 बताई गयी है। उन्होंने इन यंत्रों को मुख्य रूप से छ: श्रेणियों में विभक्त किया है। सुश्रुत संहिता हिंदी Sushruta Samhita in Hindi के अनुसार वे इस प्रकार से हैं-
1. स्वस्तिकयंत्र:
ये यंत्र क्रॉस अथवा स्वास्तिक के आकार जैसे होते थे, इसलिए इन्हें स्वस्तिक यंत्र कहा गया। इनकी संरचना कुछ-कुछ जंगली जानवरों और पक्षियों के मुँह जैसी लगती थी। इसीलिए इनके नाम जानवरों/पक्षियों के नाम पर ही रखे गये थे। जैसे सिंहमुख, व्याघ्रमुख, काकमुख, मार्जारमुख एवं गृध्रमुख। ये यंत्र टूटी हुई हड्डियाँ निकालने के लिए उपयोग में लाए जाते थे। सुश्रुत संहिता में इनकी संख्या 24 बताई गयी है।
सुश्रुत संहिता में वर्णित यंत्र |
जो यंत्र शरीर की त्वचा, माँस अथवा सिरा को निकालने के काम आते हैं, उन्हें संदंशयंत्र कहा गया है। ये यंत्र देखने में संड़ासी के समान होते थे। इनकी कुल संख्या 2 बताई गयी है।
3. तालयंत्र:
कान और नाक की हड्डियों का आकार तथा बनावट शेष शरीर की हड्डियों से भिन्न होने के कारण शल्य क्रिया में उनके लिए अलग यंत्रों की आवश्यकता होती है। सुश्रुत ने ऐसे यंत्रों को तालयंत्र का नाम दिया है। इनकी संख्या 02 बताई गयी है।
4. नाड़ीयंत्र:
नाड़ीयंत्र नली के समान होते थे। इनसे विभिन्न प्रकार के काम लिये जाते थे। सुश्रुत संहिता में इनकी संख्या 20 बताई गयी है।
5. शलाकायंत्र:
शलाकायंत्र एक प्रकार की सलाइयों को कहा गया है, जो शल्य क्रिया के दौरान माँस को खोदने अथवा किसी अंग विशेष को भेदने के काम में प्रयुक्त होते थे। ये कुल 28 प्रकार के बताए गये हैं।
6. उपयंत्र:
सुश्रुत संहिता में उपयंत्रों की कुल संख्या 25 बताई गयी है। शल्य क्रिया के दौरान इनसे विभिन्न प्रकार के कार्य लिये जाते थे।
शल्य क्रिया को भलीभाँति सम्पन्न करने के लिए सुश्रुत संहिता Sushruta Samhita in Hindi में 20 प्रकार के शस्त्रों का वर्णन मिलता है। ये उत्तम लौह धातु के बनाए जाते थे और काफी धारदार होते थे। इनसे काटने का काम लिया जाता था। इन तमाम यंत्रों और शस्त्रों के साथ-साथ सुश्रुत ने अनेक प्रकार के ‘अनुशस्त्रों’ का भी वर्णन किया है। ये बाँस, चमकीली धातु, काँच, बाल एवं जानवरों के नाखूनों के बने होते थे।
शल्य क्रिया में घावों और त्वचा को सिलते समय विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है। इसके लिए सुश्रुत ने बारीक सूत, सन, रेशम, बाल आदि का प्रयोग करने की सलाह दी है। घावों की सिलाई की ही भाँति उन्होंने पट्टी बाँधने के लिए सन, ऊन, रेशम, कपास, पेड़ों की छाल आदि को उपयुक्त बताया है।
सुश्रुत संहिता में ‘युक्तसेनीय’ नामक एक विशेष अध्याय है, जिसमें घायल सैनिकों के उपचार की विधि बताई गयी है। चूँकि उस समय दो राजाओं के बीच युद्ध की घटनाएँ प्राय: ही हुआ करती थीं, इसलिए सुश्रुत ने इस अध्याय की रचना अलग से की थी। उनका कहना था कि राजाओं को अपनी सेना की देखभाल के लिए कुशल वैद्यों की नियुक्ति करनी चाहिए।
सुश्रुत ने शल्य क्रिया के अन्तर्गत भेद्यकर्म, छेद्यकर्म, लेख्यकर्म, वेद्यकर्म, एस्यकर्म, अहर्यकर्म, विस्रर्वयकर्म एवं सिव्यकर्म का जिक्र किया है। उनका मानना है कि विद्यार्थियों को शल्य क्रिया में पारंगत होने के लिए इनसे जुड़े हुए विभिन्न प्रयोग करते रहने चाहिए।
उन्होंने छेद्यकर्म के अभ्यास के लिए कुम्हड़ा, लौकी, तरबूज, ककड़ी आदि फलों को काटकर सीखने की सलाह दी है। उन्होंने बताया है कि भेद्यकर्म के लिए मशक अथवा चमड़े के किसी थैले में पानी/कीचड़ भरकर अभ्यास किया जाना चाहिए। लेख्यकर्म को सीखने के लिए उन्होंने किसी मरे हुए जनवर के बालयुक्त चमड़े को खुरचने की सलाह दी है। इसी प्रकार वेद्यकर्म सीखने के लिए उन्होंने मरे हुए जानवर की सिरा/कमल को काटकर अभ्यास करने की आवश्यकता बताई है। अपने ग्रन्थ में उन्होंने इसी प्रकार घावों को सिलने, पट्टियाँ बाँधने आदि के बारे में अभ्यास के विभिन्न तरीकों का वर्णन किया है।
सुश्रुत ने शल्य क्रिया के अन्तर्गत भेद्यकर्म, छेद्यकर्म, लेख्यकर्म, वेद्यकर्म, एस्यकर्म, अहर्यकर्म, विस्रर्वयकर्म एवं सिव्यकर्म का जिक्र किया है। उनका मानना है कि विद्यार्थियों को शल्य क्रिया में पारंगत होने के लिए इनसे जुड़े हुए विभिन्न प्रयोग करते रहने चाहिए।
उन्होंने छेद्यकर्म के अभ्यास के लिए कुम्हड़ा, लौकी, तरबूज, ककड़ी आदि फलों को काटकर सीखने की सलाह दी है। उन्होंने बताया है कि भेद्यकर्म के लिए मशक अथवा चमड़े के किसी थैले में पानी/कीचड़ भरकर अभ्यास किया जाना चाहिए। लेख्यकर्म को सीखने के लिए उन्होंने किसी मरे हुए जनवर के बालयुक्त चमड़े को खुरचने की सलाह दी है। इसी प्रकार वेद्यकर्म सीखने के लिए उन्होंने मरे हुए जानवर की सिरा/कमल को काटकर अभ्यास करने की आवश्यकता बताई है। अपने ग्रन्थ में उन्होंने इसी प्रकार घावों को सिलने, पट्टियाँ बाँधने आदि के बारे में अभ्यास के विभिन्न तरीकों का वर्णन किया है।
प्लास्टिक सर्जरी के पिता Father of Plastic Surgery
रामायण की कथा में लक्ष्मण द्वारा सूर्पणखा की नाक काट लेने का प्रसंग मिलता है। इससे पता चलता है कि प्राचीन काल में सजा के तौर पर ‘नाक काटने’ का प्रचलन था। नाक चेहरे का महत्वपूर्ण अंग है। उसके कट जाने के बाद चेहरा अत्यंत कुरूप लगने लगता है। संभवत: इसीलिए बेइज्जती के लिए ‘नाक कटने’ का मुहावरा प्रचलित हुआ। ऐसा माना जाता है कि सुश्रुत ने जब किसी व्यक्ति की कटी नाक को देखा होगा, तो उनके मन में चेहरे से कुछ माँस लेकर कृत्रिम नाक बनाने का विचार आया होगा। इसी तरह के विचार से प्रेरित होकर उन्होंने प्लास्टिक सर्जरी की शुरूआत की थी। इसीलिए उन्हें प्लास्टिक सर्जरी का पिता ( Father of Plastic Surgery ) भी माना जाता है।
सुश्रुत संहिता में नाक, कान और होंठ की प्लास्टिक सर्जरी का अनेक जगह पर जिक्र मिलता है। इससे स्पष्ट है कि शल्य-चिकित्सा के इस अंग की शुरूआत भारत में हुई, तथा अरबों के माध्यम से शेष विश्व में पहुँची। 'सुश्रुत संहिता' का सबसे पहला अनुवाद आठवीं शताब्दी में अरबी भाषा में हुआ था, जोकि 'किताब-ए-सुसरूद' के रूप में काफी प्रसिद्ध हुई।
योग्य शिक्षक Ideal Teacher
एक श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ सुश्रुत एक योग्य आचार्य भी थे। उन्होंने शल्य-चिकित्सा के प्रचार-प्रसार के लिए अनेकानेक शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धाँत बताये। वे अपने विद्यार्थियों को शल्य-चिकित्सा का ज्ञान देने के लिए प्रारंभिक अवस्था में फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। किन्तु उनके शिष्य व्यवहारिक ज्ञान के दृष्टिकोण से अल्पज्ञानी न रह जाएँ, इसके लिए वे शव विच्छेदन का भी सहारा लेते थे।सुश्रुत ने वैद्य का दर्जा माता-पिता के समान माना है। उनका कहना है कि जिस प्रकार माता-पिता नि:स्वार्थ भाव से अपने पुत्र का पालन करते हैं, उसी प्रकार वैद्य को भी नि:स्वार्थ भाव से रोगी की सेवा करनी चाहिए। इस मनोभाव को उन्होंने एक श्लोक के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया है:
मातरं पितरं पुत्रान् बान्धवानपि चातुर:।
अप्येतानभिशंकेत वैद्ये विश्वासमेति च।।
विसृजत्यात्मनात्मानं न चैनं परिशंकते।
तस्मात्पुत्रवदेनैनं पायलेदातुरं भिषक्।।
अप्येतानभिशंकेत वैद्ये विश्वासमेति च।।
विसृजत्यात्मनात्मानं न चैनं परिशंकते।
तस्मात्पुत्रवदेनैनं पायलेदातुरं भिषक्।।
(रोगी अपने माता-पिता, भाई और सम्बंधियों को भी शंकालु दृष्टि से देख सकता है, किन्तु वह वैद्य के ऊपर सम्पूर्ण विश्वास करता है। वह स्वयं को वैद्य के हाथों में सौंप देता है और उस पर जरा भी शंका नहीं करता। इसलिए वैद्य का भी यह कर्तव्य होता है कि वह रोगी की देखभाल अपने पुत्र की तरह से करे।) ('भारत के महान वैज्ञानिक' पुस्तक के अंश, अन्यत्र उपयोग पूर्णत: प्रतिबंधित)
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डॉ रजनीश जी, बहुत ही रोचक, महत्वपूर्ण एवं गौरवान्वित कर देने वाला लेख सांझा किया है आपने। लेख पढ़ने के बाद "भारत के महान वैज्ञानिक" पुस्तक को सम्पूर्ण पढ़ने की प्रबल इच्छा पैदा होती है। आपको इस बेहतरीन दस्तावेज़ की रचना के लिए साधुवाद। (डॉ प्रेमलता एवं पुष्पराज चसवाल, सम्पादक-द्वय: अनहद कृति ई-पत्रिका www.anhadkriti.com)
ReplyDeleteआदरणीय प्रेमलता जी एवं पुष्पराज जी, आपकी सराहना के लिए हृदय से आभारी हूं। यह पुस्तक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से प्रकाशित हुई है। इस सम्बंध में अधिक जानकारी इस लिंक के द्वारा प्राप्त की जा सकती है- http://me.scientificworld.in/2012/05/famous-indian-scientists-popular-indian.html
Deleteबहुत ही रोचक, महत्वपूर्ण एवं गौरवान्वित कर देने वाला लेख
ReplyDeleteशुक्रिया।
Deleteजो लोग वैदिक वाँगमय में विज्ञान का अस्तित्त्व नहीं मानते उन्हें यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिये । रजनीश जी को बधाई ।
ReplyDeleteप्लास्टिक की जगह कास्मेटिक या सौंदर्य शब्द बेहतर होगा!
ReplyDeleteदरअसल प्लास्टिक सर्जरी में सभी अन्य उप शल्य चिकित्सा सौंदर्य सर्जरी समाहित है
Deleteसुश्रुत नाक बनाने के लिए गाल से मांस का टुकड़ा नहीं ..अपितु मूलतः माथे से त्वचा का प्रतिरोपण किया करते थे ......आजकल भी प्लास्टिक सर्जरी से नाक बनाने के इस तरीके को सुश्रुत मेथड कहा जाता है.....
ReplyDeleteहमारा अक्षुण्ण गौरव-गीत इन विभूतियों से सदैव गाया जाता रहेगा। इस बेहतरीन आलेख का आभार।
ReplyDeleteप्लास्टिक सर्जरी के इतिहास के बारे में अच्छी रोचक जानकारी ! उम्दा प्रस्तुति !
ReplyDeletegood
ReplyDeleteक्या कोई ऐतिहासिक साक्ष्य है ?
ReplyDeleteया फिर सिर्फ लिखावट ही है!