ब्लैक होल (Black Hole) के बारे में सम्पूर्ण जानकारी।
महाभारत में एक कथा आती है, भकासुर (Bakasura) की। इस राक्षस की भूख इतनी विशाल थी कि वह गांव के गांव को खा जाता था। आखिरकार उस देश के वासियों ने तय किया कि हर दिन एक परिवार का एक सदस्य कई बैलगाड़ियों में भोजन भरकर उसे पहुंचाएगा, और इसके बदले वह अंधाधुंध लोगों को पकड़कर नहीं खाएगा। अंत में भीम (Bhima) इस राक्षस का वध कर डालता है।
ब्रह्मांड में भी ऐसे ही कुछ खगोलीय पिंड हैं जिनकी भूख भकासुर की भूख के समान अमिट होती है। इनका गुरुत्वाकर्षण बल इतना प्रबल होता है कि वे आसपास के तारों, ग्रहों, और अन्य खगोलीय पिंड़ों को अपनी ओर खींच लेते हैं और उन्हें अपने में मिला लेते हैं। यहां तक कि प्रकाश भी उनके गुरुत्वाकर्षल बल से बचकर निकल नहीं पाता है। इसलिए इन खगोलीय पिंड़ों को कृष्ण विवर (Black Hole-ब्लैक होल) कहा जाता है।
कृष्ण विवर (Black Hole) तब बनता है जब कोई बड़ा तारा बूढ़ा हो जाता है, यानी उसमें मौजूद ज्वलनशील पदार्थ (यानी हाइड्रोजन) सब खत्म हो जाता है। तारे विशाल आकार के होते हैं। उनका गुरुत्वाकर्षण बल भी उतना ही विशाल होता है। यह बल तारे की सामग्री को उसके केंद्र की ओर निरंतर खींचता रहता है। लेकिन तारे के केंद्र में हाइड्रोजन रहती है, जो तारे की भीषण गरमी के कारण फैलती जाती है। उसके फैलाने के कारण जो दाब उत्पन्न होता है, वह तारे के गुरुत्वाकर्षण बल का प्रतिरोधित करता है। इसलिए तारा पूर्णतः अंदर की ओर नहीं धंसता।
लेकिन एक समय बाद तारे के अंदर मौजूद हाइड्रोजन खत्म हो जाती है और गुरुत्वाकर्षण बल को रोकने के लिए हाइड्रोजन गैस का दाब मौजूद नहीं रहता। इससे तारा हवा निकल जाने पर गुब्बारे का खोल जिस तरह सिकुड़ जाता है, उसी तरह अंदर बैठ जाता है।
यदि तारा लगभग सूर्य के आकार का हुआ, तो वह सिकुड़कर लगभग 100 किलोमीटर व्यास वाले पिंड में बदल जाता है। इससे अधिक छोटे आकार में उसे दबाने के लिए उस तारे में पर्याप्त गुरुत्वाकर्षण बल नहीं होता है। अब उस तारे को श्वेत बौना (White Dwarf-वाइट ड्वार्फ) या न्यूट्रोन तारा (Neutron Star) कहा जाता है। वह अरबों वर्षों तक जीवित रहकर धीरे-धीरे अपनी ऊष्मा और ऊर्जा खोता रहता है।
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पर यदि तारा हमारे सूर्य से लगभग तीन से पांच गुना बड़ा हुआ, तो उसका गुरुत्वाकर्षण बल इतना ताकतवर होगा कि इस तरह उसके अंदर की ओर धंसने की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है, और एक वक्त ऐसा आता है जब पूरा का पूरा तारा दबकर धूल के एक कण से भी छोटे आकार का हो जाता है, और फिर वह पूर्णतः गायब ही हो जाता है। ऐसी अवस्था में पहुंचे तारे को कृष्ण विवर कहते हैं। इस तारे के अणु-परमाणु गुरुत्वाकर्षण बल के कारण इतने पास-पास दबा दिए गए होते हैं कि उसका गुरुत्वाकर्षण बल मूल तारे से कई लाख गुना बढ़ जाता है।
कैसा होता है कृष्ण विवर?
कोई नहीं कह सकता, क्योंकि उसका गुरुत्वाकर्षण बल प्रकाश तक को रोक लेता है, इसलिए वह दिखाई ही नहीं देता। इसे इस तरह समझा जा सकता है।
कोई नहीं कह सकता, क्योंकि उसका गुरुत्वाकर्षण बल प्रकाश तक को रोक लेता है, इसलिए वह दिखाई ही नहीं देता। इसे इस तरह समझा जा सकता है।
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल से किसी उपग्रह को अंतरिक्ष में निकालने के लिए उपग्रह को 11 किलोमीटर प्रति सेकंड से अधिक रफ्तार से उड़ाना पड़ता है। अब मान लीजिए कि आपको सूर्य के गुरुत्वाकर्षण बल से किसी उपग्रह को अंतरिक्ष में निकालना है। सूर्य पृथ्वी से कई गुना भारी है और उसका गुरुत्वाकर्षण बल भी पृथ्वी से कई गुना ज्यादा है। इस बल को निरस्त करके उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुंचाने के लिए उपग्रह को 618 किमी प्रति सेकंड से उड़ाना पड़ेगा।
अब किसी कृष्ण विवर की कल्पना कीजिए, जो सूर्य से भी तीन से पांच गुना या उससे भी अधिक भारी होता है, यानी उसका गुरुत्वाकर्षण बल सूर्य के गुरुत्वाकर्षण बल से कई गुना ज्यादा होता है। इसका मतलब यह हुआ कि उससे किसी उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुंचाने के लिए उपग्रह को 618 किमी प्रति सेकंड से कई गुना ज्यादा रफ्तार से उड़ाना होगा।
अब, भौतिकी का एक सिद्धांत है कि कोई भी पदार्थ प्रकाश की रफ्तार से अधिक तेज नहीं चल सकता। प्रकाश की रफ्तार 3,00,000 किमी प्रति सेकंड है। मतलब यह हुआ कि कृष्ण विवर से किसी भी चीज का बाहर निकालना असंभव है, प्रकाश का भी, क्योंकि प्रकाश की रफ्तार भी कृष्ण विवर के गुरुत्वाकर्षण बल को निरस्त करने के लिए आवश्यक रफ्तार से कम पड़ती है।
अब किसी कृष्ण विवर की कल्पना कीजिए, जो सूर्य से भी तीन से पांच गुना या उससे भी अधिक भारी होता है, यानी उसका गुरुत्वाकर्षण बल सूर्य के गुरुत्वाकर्षण बल से कई गुना ज्यादा होता है। इसका मतलब यह हुआ कि उससे किसी उपग्रह को अंतरिक्ष में पहुंचाने के लिए उपग्रह को 618 किमी प्रति सेकंड से कई गुना ज्यादा रफ्तार से उड़ाना होगा।
अब, भौतिकी का एक सिद्धांत है कि कोई भी पदार्थ प्रकाश की रफ्तार से अधिक तेज नहीं चल सकता। प्रकाश की रफ्तार 3,00,000 किमी प्रति सेकंड है। मतलब यह हुआ कि कृष्ण विवर से किसी भी चीज का बाहर निकालना असंभव है, प्रकाश का भी, क्योंकि प्रकाश की रफ्तार भी कृष्ण विवर के गुरुत्वाकर्षण बल को निरस्त करने के लिए आवश्यक रफ्तार से कम पड़ती है।
कृष्ण विवर इतना भूखा होता है कि उसके पास के हर खगोलीय पिंड को वह अपनी ओर खींच लेता है, और उसके अंदर पहुंचते ही उस पिंड का नामोनिशान मिट जाता है। उसे निगलने के बाद कृष्ण विवर की शक्ति और बढ़ जाती है, क्योंकि उसके द्रव्यमान में उस पिंड का द्रव्यमान भी जुड़ जाता है और इससे उसका गुरुत्वाकर्षण बल भी बढ़ जाता है। इससे वह और भी दूर-दूर के खगोलीय पिंड़ों को अपनी ओर खींचने और निगलने लगता है।
आपके मन में सवाल उठ रहा होगा, कि जब कृष्ण विवर दिखाई ही नहीं देता और प्रकाश तक को रोक लेता है, तो वैज्ञानिकों को उसके अस्तित्व के बारे में पता कैसे चला?
हम हवा को देख नहीं पाते, पर हवा के कारण झूम रहे वृक्षों को देखकर समझ जाते हैं कि हवा चल रही है। उसी प्रकार कृष्ण विवर के आस-पास के खगोलीय पिंडों की गति में मौजूद असामान्यताओं को देखकर हम अनुमान लगा सकते हैं कि आसपास कृष्ण विवर है।
हबल जैसे दूरबीनों ने ब्रह्मांड के ऐसे दृश्य हमें भेजे हैं जिनमें दिखाई दे रहा है कि कुछ तारों की गैसीय सामग्री किसी अदृश्य बिंदु की ओर खिंची चली जा रही है। ऐसा संभवतः किसी कृष्ण विवर के गुरुत्वाकर्षण बल के प्रताप से हो रहा है।
वैज्ञानिक मानते हैं कि हमारी आकाशगंगा के केंद्र में भी एक कृष्ण विवर है जो आस-पास के तारों को निगल-निगलकर निरंतर बड़ा होता जा रहा है।
अरे, आप घबरा गए? चिंता मत कीजिए। उसे हमारे सौर मंडल तक पहुंचने के लिए कम से कम 20 अरब वर्ष लगेंगे!
खगोलशास्त्री मानते हैं कि कृष्ण विवर ब्राह्मड के उद्भव और अंत के संबंध में हमें जानकारी दे सकते हैं।
ब्रह्मांड के उद्भव के संबंध में कई संकल्पनाएं हैं, जिनमें से प्रमुख दो हैं। एक संकल्पना के अनुसार यह माना जाता है कि शुरू में ब्रह्मांड की सारी सामग्री एक विशाल पिंड के रूप में मौजूद थी, जिसमें आज से लगभग 10 अरब वर्ष पहले विस्फोट हुआ, जिससे सारी सामग्री पूरे अंतरिक्ष में फैल गई। दरअसल फैलने की यह प्रक्रिया अब भी जारी है।
दूसरी संकल्पना के अनुसार ब्रह्मांड का उद्भव और पराभव एक लोलक के समान निरंतर चलता रहता है। ब्रह्मांड के मूल पिंड़ में विस्फोट होता है, और उसकी सामग्री फैलती जाती है, और फिर सारी सामग्री वापस लौटकर मूल पिंड में समा जाती है, जिसमें फिर विस्फोट होता है। यह क्रम निरंतर दुहराया जाता रहता है।
इस प्रक्रिया में कृष्ण विवर की कोई अहम भूमिका लगती है। शायद कृष्ण विवरों द्वारा खगोलीय पिंडों को निगले जाने से ही ब्रह्मांड के मूल पिंड का निर्माण होता है, जिसमें विस्फोट होने से ब्रह्मांड नए सिरे से बनता है।
ये सब बातें हमारी कल्पना को भी चकरा देनीवाली हैं। ब्रह्मांड के बारे में सोचते हुए हम हमारी कल्पना शक्ति की सीमाओं को छूने लगते हैं। पर मनुष्य प्रारंभ से ही इन सवालों से जूझता रहा है। हमारे दर्शनशास्त्रों का उद्भव ही इस सवाल का उत्तर खोजते हुए हुआ है कि ब्रह्माड किस तरह अस्तित्व में आया। पहले दार्शनिक इन सवालों का जवाब तर्कशास्त्र के आधार पर देते थे, आजकल खगोलविज्ञानी बड़े-बड़े दूरबीनों से अंतरिक्षा का प्रेक्षण करके और भौतिकी के सिद्धांतों के उपयोग से इन सवालों का उत्तर देते हैं। इन दार्शनिकों और खगोलशास्त्रियों के प्रयासों से ब्रह्मांड के बारे में हमारी समझ निरंतर बढ़ रही है।
ब्लैक होल के बारे में अन्य जानकारी के लिये देखें यह महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंट्री
बढिया जानकारी है।आभार।
ReplyDeleteइतनी गंभीर बातों को बहुत ही सरल शब्दों में सरल तरीके से समझाया .. बहुत बहुत धन्यवाद !!
ReplyDeleteब्लेक होल के बारे में इतनी अच्छी जानकारी.......आभार.
ReplyDeleteअच्छी जानकारी.
ReplyDeleteकृष्ण विवर के बारे में बहुत ही रोचक तरीके से प्रस्तुत जानकारी ! बहुत आभार !
ReplyDeletespeed of light is
ReplyDelete300,000 km/second
and not
3000 km/second.
Please check :)
कैसे कोई black hole इतना छोटा हो सकता है, कि रेत के एक कण से भी छोटा हो। और इतना शक्तिशाली कैसे हो सकता है।
ReplyDeleteमैने भी ये सब किताबों में पढ़ा है, और ये भी मानता हूं ये सच है
लेकिन मैने आज तक कोई ऐसी चीज़ नही देखी जो रेत के कण के जितनी हो, और वज़न में एक किलो की हो, तो फिर ये black hole तो ना जाने कितने लाख किलो का का होगा। इस लिये यकीन से परे है।
और जिस तरह black hole की power की बात होती है, उस हिसाब से तो इसको अब तक सारे अंतरिक्ष को ही निगल लेना चाहिये था। और ये नहीं निगल पाया, तो आप खुद ही अनुमान लगाइये, कि हमारा अन्तरिक्ष कितना बड़ा और विशाल है
Black hole पर और भी बहुत सारी theories हैं जैसे time travel, जो मुझे बेहद पसन्द हैं, उन पर भी जानकारी दीजियेगा। मुझे time travel पढ़ना बेहद पसन्द है
धन्यवाद !!
अन्ना, बहुत सुन्दर लेख। नॉन टेक्निकल लोग भी समझ पाएँगें।
ReplyDeleteयोगेश जी की बात पर ध्यान दें। कहीं गणित गड़बड़ है। सुधार अपेक्षित है।
"अणो अणीयान ,महतो महीयान" वह ब्रह्म सूक्ष्म से सूक्ष्मतम, दीर्घ से दीर्घतम है। स्वयम्भू( जिसमें सब समाया है),परिभू(जो सब में समाया है), स्रिष्टि के आदि -अन्त में सिर्फ़ अन्धकार होता है,वह एक अकेला ब्रह्म (समस्त स्रष्टि सहित)स्वयं की गति से उपस्थित रहता है। कौन,कहां, कैसे -कोई नहीं जानता। उसी की इच्छा से श्रिष्टि व प्रलय होती है क्रमशः।
ReplyDeleteइसी तरह से स्रष्टि का बिग-बेन्ग सिद्धान्त में,फ़ैलना-सिकुडना-फ़ैलना( श्र्ष्टि-प्रलय क्रम)----इसी क्रष्ण-विवर की महिमा को
समझा जाय।
महाभारत में एक अन्य कथा में- श्री क्रष्ण, अर्जुन को अपना वास्तविक सत्य दिखाने के लिये अन्तरिक्ष के पार ,निबिडतम अन्धकार में ले गये थे। वह यही क्रष्ण-विवर था???
आप के इस आलेख ने मेरी समस्या को बहुत हद तक हल कर दिया। साँख्य में प्रधान से(मूल प्रकृति) जो पदार्थ के मूल पिंड के समान है से विकास की अवधारणा मौजूद है। आप ने विश्व के उद्भव के दो सिद्धान्त बताए हैं। वस्तुतः दूसरा सिद्धान्त पहले का ही विकसित रूप है। पहला सिद्धांत केवल मूल पदार्थ के पिंड सिंगुलरिटी से विश्व के विकास की अवधारणा है। लेकिन विश्व का यह फैलाव अनंत नहीं हो सकता। कृष्ण विवर इस सोच के लिए आधार देते हैं कि विश्व पुनः पदार्थ की सिंगुलरिटी में परिवर्तित हो सकता है। पुनः सिंगुलरिटी में बदलने से पुनः महाविस्फोट तक वह अचेतन ही होगा। लेकिन पूरी तरह से अचेतन नहीं हो सकता। यदि ऐसा हुआ तो फिर पुनः महाविस्फोट की गुंजाइश नहीं रहेगी। जो सिंगुलरिटी में महाविस्फोट के वर्तमान सिद्धांत को भी गलत सिद्ध कर देगी। इस लिए हमें साँख्य के उस सिद्धांत की ओर लौटना होगा जहाँ प्रधान त्रिगुणात्मक है और ये त्रिगुण सिंगुलरिटी में क्रियाशील रहते हैं लेकिन साम्य बनाए रखते हैं। जिस दिन यह साम्य टूटता है पुनः विश्व का विकास प्रारंभ हो जाता है। विकास प्रधान का स्वभाव है और संभवतः पुनः सिंगुलरिटी में बदलना भी।
ReplyDeleteयोगेश जी, प्रकाश की रफ्तार को अब ठीक कर दिया है। धन्यवाद।
ReplyDeleteकिसी अगले पोस्ट में समय और कृष्ण विवर के संबंधों के बारे में लिखने की कोशिश करूंगा।
योगेश जी,
ReplyDeleteइस जानकारी के लिए,
आभार!
the speed of light is
ReplyDelete186,282.397 miles per second
बढिया जानकारी है।आभार।
ReplyDeleteIn India since we follow the SI Units thus the speed of light in vaccume (in Meter/Second) is *Exactly *"299,792,458" m/s
ReplyDeletewhere as it is *approximately* 186,282.397 miles per second. But in Indian context I would suggest going by the meter scale and not miles.
बहुत ही उम्दा लेख है. वैज्ञानिक सूचना को आम भाषा में समझाने की अद्भुत कला. अद्वितीय.
ReplyDeleteब्रह्मांड के बारे में जितना जाना जाये कम है और जिज्ञासा है की बढ़ती जाती है....आभार इस ज्ञान वर्धक आलेख के लिए...
ReplyDeleteregards
Black hole pracheen sandarbhon se jodte huye bahut sundar dhang se prastut kiya hai. Aabhaar.
ReplyDeleteरोचक और आश्चर्यजनक
ReplyDeleteप्रणाम स्वीकार करें
Black hole suna to bahut tha par aaj iske baare mai bahut achhi jankari apne bahut hi saral tarike se uplabdha karayi hai...
ReplyDeleteSaral shabdon mein bahut hi acchi jaankari. Dhanyavad.
ReplyDeleteसाइंस ब्लॉगर्स एशोसियेसन को बहुत बधाई।
ReplyDeleteमुझे यह आलेख बहुत रोचक लगा!
ReplyDeleteuseful and important information. the blog is amazing.
ReplyDeleteDr Jagmohan Rai
बहुत रोचक लगी यह जानकारी बहुत उत्सुकता थी इस बारे में पूरी तरह से जानने की ..आपने बहुत अच्छे से बताया इसको शुक्रिया
ReplyDeletesaari jankariyaan rochak aur gyan vardhak hain....isi tarah ki gyaanvardhak baaten padhne ke liye baar-baar aana laga rahega....
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख !
ReplyDeleteMujhe bhi sabki tarah is blog ko padhkar bahut achchha laga.
ReplyDeleteLekin mujhe thodi aur jankari chahiye
Ki
Agar 2 black hole mil jaye to kya hoga
Aur isme 1 sart aur hai ki dono ek samaan ho
Bohut Hi Badiya Hai?
ReplyDeleteBohut Hi Badiya Hai?
ReplyDeleteBohut Hi Badiya Hai?
ReplyDeleteWonderful....
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