पिछली कड़ी में हमने जाना कि अंटार्कटिका क्या है . इसमें हम जानेंगे कि यह कहाँ है? इसकी खासियत क्या है और यह कैसा दिखता है .यदि ग्लोब ...

पिछली कड़ी में हमने जाना कि अंटार्कटिका क्या है. इसमें हम जानेंगे कि यह कहाँ है? इसकी खासियत क्या है और यह कैसा दिखता है .यदि ग्लोब में देखे तो उसके नीचे चारो और पानी से घिरा हुआ एक महाद्वीप दिखायी देगा यही विश्व का सातवां महाद्वीप अंटार्कटिका ....यह महाद्वीप असल में चारो और पानी से घिरा हुआ है इस का पानी और जमीन से एक अनोखा रिश्ता है ...कभी यह पानी के साथ मिल कर जम कर जमीन का हिस्सा बन जाता है... कभी पिघल कर उस से अपना रिश्ता अलग कर लेता है ....गर्मियो के आते ही यह जमी बर्फ पिघलने लगती है और यह महाद्वीप पौना रह जाता है ...जमने पर यह 2 करोड़ 50 लाख वर्ग किलोमीटर तक फ़ैल जाता है .... इस के कारण इसको कुछ लोग घटता बढता महाद्वीप या धकड़ता हुआ महाद्वीप भी कहते हैं .
जब यह जमने लगता है तो ठंडे पानी जमने की क्रिया में बर्फ से नमक का हिस्सा अलग हो जाता है ....यह नमक नीचे बैठ कर उस से अलग हो जाता है और यह नीचे पानी को और खारा बना देता है ..जब सैंकडों हजारो किलीमीटर में यही क्रिया होती है तो बेहद खारे पानी की एक विशाल धारा तेजी से नीचे बैठने लगती है .....इसका वेग बहुत अधिक तेज होता है इतना की इसी से विश्व के महासागरों में बहने वाले प्रवाह पैदाहोते हैं ..... दुनिया भर के समुन्दरों के बहावों का उद्गम इसी अंटार्कटिका सागर के हर साल जमने बिखरने के बहाव से होता है ..
यह महाद्वीप लगभग गोलाकार है ....यह एक उलटी कडाही की तरह दिखायी देता है ...यहाँ पर ठण्ड में तापमान -70 से -80 और गर्मी में -20 से -35 डिग्री तक होता है ...इस ठण्ड के बाद भी यहाँ धूप बहुत तीखी होती है क्यों कि यह महाद्वीप बहुत ऊँचा है और वातावरण में कहीं भी धूल और प्रदूषण नही है पर यहाँ धूप से भी बर्फ पिघलती नही है क्यों कि यह बर्फ से टकरा कर वातावरण में वैसे की वैसी वापस चली जाती है जैसे किसी शीशे से गिर कर लौट गई हो...
इतनी ठण्ड के कारण यहाँ नमी बिल्कुल नही होती है सारी की सारी नमी बर्फ बन कर नीचे गिर जाती है और इस इलाके को बेहद सूखा बना देती है ...

यहाँ की जमीन और आसमान एक से बढ़ कर एक एक विचित्र बातो से भरे हुए हैं ... यहाँ न दिशाये हैं कुछ आंधियां दिन रात चलती रहती है तो कुछ तूफान हफ्तों तक नही थमने को आते हैं... यह जगह भयानक तूफानों का गढ़ है .यह तूफ़ान विशाल चक्रवातों की रूप में आते हैं और 300 किलीमीटर के हिसाब से यहाँ तूफानी हवाएं चलती है ....इन्ही विशाल आँधियों के कारण इन चक्रवातों को हिमवात कहा जाता है ....यह हमेशा पाश्चिम से पूर्व की और बढते हैं .....इन्ही हिमवातों के कारण अंटार्कटिका महाद्वीप और उसके चारो और फैले सागर में बीच ताप का अन्तर है ....सर्दी के मौसम में यह अन्तर और भी अधिक बढ़ जाता है और सर्दियों में तूफानों की संख्यां भी अधिक हो जाती है यहाँ रहने वाले लोग एक चुटकला सुनाते हैं कि इस सप्ताह सिर्फ़ दो ही तूफ़ान आए एक तीन दिन चला तो दूसरा चार दिन ..अब आप ही अंदाजा लगाये कि क्या हालत है यहाँ पर आने वाले तूफानों की
इस के अलावा यहाँ एक विशेष प्रकार की आंधी चलती है जिसे नीचे की बहने वाली भारी हवा कहा जाता है. इसका स्थान, इसकी दिशा इसका समय सब कुछ निश्चित है.... बिल्कुल धडी की तरह पाबन्द जैसे यहाँ कुदरत ने किसी नाच का आयोजन किया हो और उस में इसको रात भर तांडव करने को कहा हो यह सूरज डूबने के साथ शुरू होती है और सूरज निकलने तक बंद हो जाती है पर कभी कभी यह अपनी मर्जी करती है और दोपहर तक भी चलती रहती है ...यह अलग तरह की हैं और इसको निर्धारित करती है उस स्थान की ऊँची बरफ की सतह और बनावट .... अब यह क्यों आती है ? होता यह है कि यहाँ ऊपर की हवा ठंडी होती है गर्मी के मौसम में सूरज दिन भर चमकता है तो गर्म हवा ऊपर की और उठने लगती है ,शाम होते ही तापमान में कमी आती है और यह हवा नीचे बैठने लगती है ....फ़िर यह ठंडी और भारी हवा पहाडो से नीचे की और इस तेजी से बहती है कि बर्फ सूखी रेत की तरह उड़ने लगती है और इतनी तेज की सामने खड़ा इंसान भी न दिखायी दे...
एक और ख़ास बात यहाँ की है कि हमारे यहाँ जब रेत तपने लगती है तो उसकी मृग मरीचिका कहा जाता है जिस को देख कर हिरन पानी के लिए भटकता रहता है ....अब यहाँ हिरन तो होते नहीं पर यहाँ एक दो नहीं वरन तीन तरह के छलावे होते हैं एक यह कि जब कभी सतह के पास हवा की एक ठंडी परत बैठ जाती है और उसके ऊपर गर्म हवा की कोई परत आ जाती है तब एक भ्रम दिखाई देता है कि जमीन में सारी चीजे उलटी लटकी हुई है ........दूर के पहाड़ मीलो दूर आइस बर्ग सभी कुछ हवा में उलटे लटके दिखायी देते हैं ...दूसरा यहाँ वाईट आउट होता है यह दिन की रौशनी में होता है जब सब कुछ दीखते हुए भी वास्तव में कुछ नही दिखता है ......आगे का गड्ढा हाथ भर है या हाथी भर कुछ पता नही चलता ....सामने चलता आदमी हवा में उड़ता सा दिखायी देता है ,क्यों की जमीन दिखाई नही देती ......दिशा बोध ख़तम हो जाते हैं आदमी तो आदमी पक्षी तक इस दुधिया रोशनी में धोखा खा जाते हैं और तेज उड़ते उड़ते जमीन से टकरा जाते हैं॥
तीसरी तरह का छलावा होता है वहां न हवा होता है न कोई धूल न धुंआ , इस से दूरी को भापने की क्षमता एक दम गड़बड़ जाती है हर चीज पास दिखायी देने लगती है ...जैसे कोई पहाड़ 220 मीटर दूर लगता है पर असली में वह 2 या 3 किलोमीटर दूर होता है ....हम पैदल चलना शुरू कर देते हैं जिस मंजिल की और पर वह पीछे हटता जाता है आता ही नही ....यह हैं इसके तीन भ्रम जमीन की चीजे .....दिशाए दिखना ही समाप्त और दूर की चीज बस यह सामने
यहाँ हम चलते हुए अक्सर एक बात भूल जाते हैं कि हम चल रहे जहाँ वह असल में जमीन नही पानी ही पानी है ..यहाँ अंटार्कटिका में भीतर के ऊँचे पठार से बर्फ नीचे की और सरकाना शुरू करती है वह पहाडो से होती हुई समुन्दर के तट की और लगातार नीचे बहती रहती है बर्फ की इन नदियों को ग्लेशियर कहते हैं जब यह नदी बहुत विशाल होती है तो इसको आइस शीट कहा जाता है .....और यही मैदानी इलाकों में आ कर पिघलने लगते हैं पर यहाँ अंटार्कटिका की ठण्ड के कारण अधिकांश गलेशियर पिघलते नहीं है वह आगे बढ़ते हुए सीधे समुन्दर में चले जाते हैं और यही टुकड़े आइस बर्ग कहलाते हैं ......इसका केवल एक छोटा सा हिस्सा पानी के ऊपर दिखता है करीब 90 % पानी में होता है इस लिए जहाज इनकी टक्कर से बचने के लिए इन्हे देखते ही दूर हो जाते हैं
यहाँ लगतार तूफ़ान तो आते हैं एक ख़त्म होते ही दूसरा शुरू हो जाता है इन्ही तूफानी के कारण सागर से नमी आती है और यहाँ बादल मंडराते रहते हैं ........इस तरह यहाँ बारिश न होने पर भी बीस दिन बादल ही छाए रहते हैं पर यह गरजते नहीं और न ही इन में बिजली की चमक होती है ......कभी कभी इन बादलों के अन्दर बर्फ के क्रिस्टल इस तरह चमकते हैं कि सूरज की परछाइयां सी बन जाती है और सूरज के चारों और एक बड़े से गोले में दर्जनों बाल सूरज दिखायी देते हैं यह एक बहुत सुंदर दुर्लभ दृश्य है, जैसे एक साथ समस्त सूर्य परिवार के सदस्य दर्शन दे रहे हो......
जब यहाँ बर्फ की आंधी चलती है तो उड़ती रेत की तरह हर चीज को ढक लेती है बर्फ के यह टीले ठीक रेतीले टीलों की तरह होते हैं बस रंग इनका सफ़ेद होता है इस तरह के इलाकों में चलना बहुत मुश्किल होता है इसको एक विशेष नाम दिया गया है सास्त्रुगी ....क्या यह किसी भारतीय भाषा से मिलता जुलता शब्द नही लगता आपको ? लेखक के मन में भी यही विचार आया था ..और उन्होंने इसको संस्कृत के शब्द सहस्त्र -तुंग शब्द से लिया यानी के हजारो शिखर क्या इसी से यह सह्स्त्र्तुगी शब्द आया है ।?.क्या धुर उत्तर के बर्फानी इलाकों में कभी संस्कृत का कुछ प्रभाव था .? कोई भाषा जानने वाला भाषा विद् ही यह बता सकता है ...
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बहुत ही रोचक एवं मजेदार जानकारियॉं मिल रही हैं, शुक्रिया। आगे भी यह कडी चलती रहे, यही कामना है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर जानकारी, मजा ही आ गया।
ReplyDeleteओह, अब जाकर पता चला समुद्री धाराओं का राज।
ReplyDeleteइस रोचक जानकारी के लिए बहुत बहुत आभार।
बहुत दिनों बाद चिट्ठाजगत पर आना हुआ. विज्ञान सबंधित इस कदम पर अनेकों बधाई और आशा है की यह हमें रोचक ,ज्ञानवर्धक जानकारी देता रहेगा और हमें एक " साइंटिफिक टेम्परामेंट" अपनी सोच में लाने के लिए प्रेरित करेगा.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी जानकारी..एक साथ कई सूरज देख पाना कितना सुहाना होता होगा.
ReplyDeleteajit vadnekar ji kahan hain??
ReplyDeletejaldi aayiye, aapki jaroorat hai.. :)
कैसे कैसे छलावे। सच रोचक जानकारी । अगली कडी का इंतजार।
ReplyDeleteरंजना जी,
ReplyDeleteइतना अच्छा लिख रही हैं कि कुछ कहा ही नहीं जा सकता।
Uff .... jitni rochak utni hi bhayakrant karane wali.
ReplyDeletePar pahli baar jana yah sab. Bahut bahut dhanyawaad.
बहुत रोचक जानकारी मिल रही है.....इंतजार रहेगा आगे की कडियों का भी।
ReplyDeleteरोमाचंक !!!
ReplyDeleteहर कड़ी में रोचकता बनी रही, सुन्दर जानकारी साझा करने का शुक्रिया
ReplyDelete---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
आपका यह योगदान विज्ञान लेखन के मानकी करण का उदाहरण बनेगा !
ReplyDeleteMajedar jaankari hai, dhanyavaad.
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