श्याम जी के सृष्टि सृजन पर आधारित पोस्टों में विज्ञान व अध्यात्म का सुन्दर मिश्रण दिखाई दे रहा है. किन्तु विज्ञान आधारित कोई भी थ्योरी '...
श्याम जी के सृष्टि सृजन पर आधारित पोस्टों में विज्ञान व अध्यात्म का सुन्दर मिश्रण दिखाई दे रहा है. किन्तु विज्ञान आधारित कोई भी थ्योरी 'क्यों?' प्रश्न बिना अधूरी है. यदि किसी वैज्ञानिक थ्योरी के परिपेक्ष्य में किसी 'क्यों?' का उत्तर संतोषजनक नहीं मिलता तो वह रद्दी की टोकरी में पहुँच जाती है. अतः श्याम जी से मेरा निवेदन है की वह मेरे प्रश्नों का उत्तर देने की कृपा करें जो मेरे मन में उनकी पोस्टों को देखकर उभरे हैं.
1. "ऊपरी भाग में हलके तत्व एकत्र हुए जो आकाश भावः कहलाया। जिससे समय, गति, शब्द, गुण, वायु, महतत्व, मन, तन्मात्राएँ, अहं, वेद (ज्ञान) आदि रचित हुए।
----मध्य भाग दोनों का मिश्रण जल भाव हुआ जिससे जलीय, रसीय, तरल तत्व, इन्द्रियाँ, कर्म, अकर्म, सुख-दुःख व प्राण आदि का संगठन हुआ।
----नीचे का भाग भारी तत्व भाव था जो पृथ्वी भाव हुआ जिससे, पदार्थ तत्व, जड़, जीव, ऊर्जा, ग्रह, पृथ्वी, पृकृति, दिशाएँ, लोक, निश्चित रूप भाव वाले रचित हुए।"
देखा जाए तो ऊर्जा वायु से हलकी होती है. क्योंकि वायु में द्रव्यमान होता है जबकि ऊर्जा द्रव्यमान रहित होती है. तो फिर वायु को हल्का और ऊर्जा को भारी क्यों कहा जा रहा है? इसी प्रकार दिशा तथा प्रकृति किस प्रकार भारी तत्व है? प्राण किस प्रकार जल भाव है?
२."समय ( काल )-- अन्तरिक्ष में स्थित बहुत से भारी कणो ने, मूल स्थितिक ऊर्जा, नाभीय व विकिरित ऊर्ज़ा, प्रकाश कणों को अत्य्धिक मात्रा में मिलाकर कठोर-बन्धनों वाले कण-प्रतिकण(राक्षस) बनालिये थे. वे ऊर्जा का उपयोग रोक कर प्रगति रोके हुए थे। पर्याप्त समय बाद क्रोधित इन्द्र( रासायनिक प्रक्रिया--यग्य) ने बज्र (विभिन्न उत्प्रेरक तत्वों) के प्रयोग सेउन को तोडा।"
आप की शुरुआत की पोस्ट में कहा गया है की "प्रारंभ में न सत् था न असत ,न परम व्योम व व्योम से परे लोकादि, सिर्फ़ वह एक अकेला ही स्वयं कीशक्ति से (स्वयाम्भाव ) गति शून्य होकर स्थित था ,इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था। " तो फिर इन्द्र का जन्म कब हुआ?
3."---विभिन्न ऊर्जायें,हल्के कण व प्रकाश कण मिल्कर विरल पिन्ड (अन्तरिक्ष के शुन) कहलाये जिनमें नाभिकीय ऊर्ज़ा के कारण सन्योजन व विखन्ड्न (फ़िज़न व फ़्यूज़न) के गुण थे, उनसे सारेनक्षत्र (सूर्य तारे आदि),
आकाश गंगायें(गेलेक्सी) व नीहारिकायें(नेब्युला) आदि बने
---मूल स्थितिक ऊर्ज़ा, भारी व कठोर कण मिलाकर, जिनमें उच्च ताप भी था, अन्तरिक्ष के कठोर पिन्ड, ग्रह, उप ग्रह, प्रथ्वी आदि बने। --क्योंकि ये सर्व प्रथम द्रश्य ग्यान के रचना-पिन्ड थे व एक दूसरे के सापेक्ष घूम रहे थे ,इसके बाद ही अन्य द्रश्य रचनायें हुईं अतः समय की गणना यहीं से प्रारम्भ मानी गई।"
सूर्य तथा तारों में वह सभी कण होते हैं जो पृथ्वी तथा ग्रहों पर पाए जाते हैं. आधुनिक विज्ञान के अनुसार भारी तथा हलके कणों के बीच कोई विभाजन रेखा नहीं. यदि पृथ्वी पर नाभिकीय संलयन अत्यधिक मात्रा में आरम्भ हो जाए तो वह स्वयें तारा बन जायेगी. ऐसे में उपरोक्त थ्योरी किस प्रकार सत्य है?
४. "जब ब्रह्मा ने विष्णु की प्रार्थना की तथा क्षीर सागर (अन्तरिक्ष, महाकाश,ईथर) में उपस्थित, शेष-शय्या (बची हुई मूल संरक्षित ऊर्जा) पर लेटे नारायण (नार= जल, अन्तरिक्ष; अयन= निवास, स्थित ,विष्णु) की नाभि (नाभिक ऊर्जा) से स्वर्ण कमल (सत, तप, श्रद्धा रूप आसन) पर वह ब्रह्मा (कार्य रूप) अवतरित हुआ। आदि माया सरस्वती (ज्ञान भाव) का रूप धर वीणा बजाती हुई (ज्ञान के आख्यानों सहित) प्रकट हुई एवम ब्रह्मा के ह्रदय में प्रविष्ट हुई, और उसे श्रष्टि निर्माण क्रिया का ज्ञान हुआ"
यदि ब्रम्हा को सृष्टि निर्माण के बारे में पता ही नहीं था तो उन्होंने विष्णु की प्रार्थना क्यों की? और यदि किसी ने उन्हें बताया की उन्हें सृष्टि निर्माण करना है तो वह शक्ति कौन थी जिसने यह आर्डर दिया? यदि समस्त सृष्टि निर्माण ब्रम्हा ने किया है तो विष्णु और सरस्वती का निर्माण किसने किया?
५. "त्रिआयामी रूप सृष्टि कण- उपरोक्त रूप कण व अधिक ऊर्जा के संयोग से विभिन्न त्रिआयामी कणों काआविर्भाव हुआ, जो वस्तुतः दृश्य रूप कण, अणु, परमाणु थे जिनसे विभिन्न रासायनिक, भौतिक, नाभिकीय आदिप्रक्रियाओं (इन्द्र व अन्य ऋषियों की यज्ञों) से समस्त भूत कण, ऊर्जा व पदार्थ बने।"
क्या इन्द्र तथा ऋषि ऊर्जा या पदार्थ नहीं हैं? तो फिर वे क्या हैं? और यदि वे इनमें से कुछ हैं तो फिर वे इन्ही की रचना कैसे कर सकते हैं?
६."रूप सृष्टि कण --उपस्थित ऊर्जा एवं परमाणु पूर्व कणों से विभिन्न अदृश्य व अश्रव्य रूप कण (भूत कण-पदार्थ कण )बने जो अर्यमा (सप्तवर्ण -प्रकाश व ध्वनिकण,सप्त होत्र (सात इलेक्ट्रोनवाले असन्त्रप्त) अजैविक(इनोर्गेनिक ) व अष्ट बसु (८ इले .वाले संतृप्त ) जैविक (ओरगेनिक ) कण थे"
आधुनिक विज्ञान के अनुसार कार्बन छह इलेक्ट्रोन वाला तत्त्व है. और सारे जैविक पदार्थ इसे शामिल करके बनते हैं. दूसरी बात ध्वनिकण जैसी कोई चीज़ नहीं होती. वह तो दरअसल वायुकणों के कम्पन से पैदा होती है.
७."-अर्थात वह वह ईश्वर अशब्द,अस्पर्श ,अरूप,अव्यय,नित्य व अनादि है। भार रहित व गति रहित ,स्वयम्भू है ,कारणोंका कारण ,कारण-ब्रह्म है। उसे ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया"
यानी वही सृष्टि की रचना तथा उसे चलाने का भी कारण है. तो फिर अन्य देवी देवताओं की पूजा करने का क्या आशय?
८."यह ब्रह्म ही चेतन प्राण तत्व है जो सदैव ही उपस्थित रहता हैऔर जीवन की उत्पत्ति करता है। इसीलिए कण-कण में भगवान कहा जाता है।"
जिन कणों में जीवन नहीं होता, उनके बारे में क्या विचार है? क्या उनमें भगवान् नहीं होता?
शंकाएँ और भी हैं. किन्तु फिलहाल इतना ही.
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'तस्लीम' में पढें - 'क्या हम सिर्फ मिलावटी सामान खाने के लिए अभिशप्त हैं?'
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1. "ऊपरी भाग में हलके तत्व एकत्र हुए जो आकाश भावः कहलाया। जिससे समय, गति, शब्द, गुण, वायु, महतत्व, मन, तन्मात्राएँ, अहं, वेद (ज्ञान) आदि रचित हुए।
----मध्य भाग दोनों का मिश्रण जल भाव हुआ जिससे जलीय, रसीय, तरल तत्व, इन्द्रियाँ, कर्म, अकर्म, सुख-दुःख व प्राण आदि का संगठन हुआ।
----नीचे का भाग भारी तत्व भाव था जो पृथ्वी भाव हुआ जिससे, पदार्थ तत्व, जड़, जीव, ऊर्जा, ग्रह, पृथ्वी, पृकृति, दिशाएँ, लोक, निश्चित रूप भाव वाले रचित हुए।"
देखा जाए तो ऊर्जा वायु से हलकी होती है. क्योंकि वायु में द्रव्यमान होता है जबकि ऊर्जा द्रव्यमान रहित होती है. तो फिर वायु को हल्का और ऊर्जा को भारी क्यों कहा जा रहा है? इसी प्रकार दिशा तथा प्रकृति किस प्रकार भारी तत्व है? प्राण किस प्रकार जल भाव है?
२."समय ( काल )-- अन्तरिक्ष में स्थित बहुत से भारी कणो ने, मूल स्थितिक ऊर्जा, नाभीय व विकिरित ऊर्ज़ा, प्रकाश कणों को अत्य्धिक मात्रा में मिलाकर कठोर-बन्धनों वाले कण-प्रतिकण(राक्षस) बनालिये थे. वे ऊर्जा का उपयोग रोक कर प्रगति रोके हुए थे। पर्याप्त समय बाद क्रोधित इन्द्र( रासायनिक प्रक्रिया--यग्य) ने बज्र (विभिन्न उत्प्रेरक तत्वों) के प्रयोग सेउन को तोडा।"
आप की शुरुआत की पोस्ट में कहा गया है की "प्रारंभ में न सत् था न असत ,न परम व्योम व व्योम से परे लोकादि, सिर्फ़ वह एक अकेला ही स्वयं कीशक्ति से (स्वयाम्भाव ) गति शून्य होकर स्थित था ,इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था। " तो फिर इन्द्र का जन्म कब हुआ?
3."---विभिन्न ऊर्जायें,हल्के कण व प्रकाश कण मिल्कर विरल पिन्ड (अन्तरिक्ष के शुन) कहलाये जिनमें नाभिकीय ऊर्ज़ा के कारण सन्योजन व विखन्ड्न (फ़िज़न व फ़्यूज़न) के गुण थे, उनसे सारेनक्षत्र (सूर्य तारे आदि),
आकाश गंगायें(गेलेक्सी) व नीहारिकायें(नेब्युला) आदि बने
---मूल स्थितिक ऊर्ज़ा, भारी व कठोर कण मिलाकर, जिनमें उच्च ताप भी था, अन्तरिक्ष के कठोर पिन्ड, ग्रह, उप ग्रह, प्रथ्वी आदि बने। --क्योंकि ये सर्व प्रथम द्रश्य ग्यान के रचना-पिन्ड थे व एक दूसरे के सापेक्ष घूम रहे थे ,इसके बाद ही अन्य द्रश्य रचनायें हुईं अतः समय की गणना यहीं से प्रारम्भ मानी गई।"
सूर्य तथा तारों में वह सभी कण होते हैं जो पृथ्वी तथा ग्रहों पर पाए जाते हैं. आधुनिक विज्ञान के अनुसार भारी तथा हलके कणों के बीच कोई विभाजन रेखा नहीं. यदि पृथ्वी पर नाभिकीय संलयन अत्यधिक मात्रा में आरम्भ हो जाए तो वह स्वयें तारा बन जायेगी. ऐसे में उपरोक्त थ्योरी किस प्रकार सत्य है?
४. "जब ब्रह्मा ने विष्णु की प्रार्थना की तथा क्षीर सागर (अन्तरिक्ष, महाकाश,ईथर) में उपस्थित, शेष-शय्या (बची हुई मूल संरक्षित ऊर्जा) पर लेटे नारायण (नार= जल, अन्तरिक्ष; अयन= निवास, स्थित ,विष्णु) की नाभि (नाभिक ऊर्जा) से स्वर्ण कमल (सत, तप, श्रद्धा रूप आसन) पर वह ब्रह्मा (कार्य रूप) अवतरित हुआ। आदि माया सरस्वती (ज्ञान भाव) का रूप धर वीणा बजाती हुई (ज्ञान के आख्यानों सहित) प्रकट हुई एवम ब्रह्मा के ह्रदय में प्रविष्ट हुई, और उसे श्रष्टि निर्माण क्रिया का ज्ञान हुआ"
यदि ब्रम्हा को सृष्टि निर्माण के बारे में पता ही नहीं था तो उन्होंने विष्णु की प्रार्थना क्यों की? और यदि किसी ने उन्हें बताया की उन्हें सृष्टि निर्माण करना है तो वह शक्ति कौन थी जिसने यह आर्डर दिया? यदि समस्त सृष्टि निर्माण ब्रम्हा ने किया है तो विष्णु और सरस्वती का निर्माण किसने किया?
५. "त्रिआयामी रूप सृष्टि कण- उपरोक्त रूप कण व अधिक ऊर्जा के संयोग से विभिन्न त्रिआयामी कणों काआविर्भाव हुआ, जो वस्तुतः दृश्य रूप कण, अणु, परमाणु थे जिनसे विभिन्न रासायनिक, भौतिक, नाभिकीय आदिप्रक्रियाओं (इन्द्र व अन्य ऋषियों की यज्ञों) से समस्त भूत कण, ऊर्जा व पदार्थ बने।"
क्या इन्द्र तथा ऋषि ऊर्जा या पदार्थ नहीं हैं? तो फिर वे क्या हैं? और यदि वे इनमें से कुछ हैं तो फिर वे इन्ही की रचना कैसे कर सकते हैं?
६."रूप सृष्टि कण --उपस्थित ऊर्जा एवं परमाणु पूर्व कणों से विभिन्न अदृश्य व अश्रव्य रूप कण (भूत कण-पदार्थ कण )बने जो अर्यमा (सप्तवर्ण -प्रकाश व ध्वनिकण,सप्त होत्र (सात इलेक्ट्रोनवाले असन्त्रप्त) अजैविक(इनोर्गेनिक ) व अष्ट बसु (८ इले .वाले संतृप्त ) जैविक (ओरगेनिक ) कण थे"
आधुनिक विज्ञान के अनुसार कार्बन छह इलेक्ट्रोन वाला तत्त्व है. और सारे जैविक पदार्थ इसे शामिल करके बनते हैं. दूसरी बात ध्वनिकण जैसी कोई चीज़ नहीं होती. वह तो दरअसल वायुकणों के कम्पन से पैदा होती है.
७."-अर्थात वह वह ईश्वर अशब्द,अस्पर्श ,अरूप,अव्यय,नित्य व अनादि है। भार रहित व गति रहित ,स्वयम्भू है ,कारणोंका कारण ,कारण-ब्रह्म है। उसे ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया"
यानी वही सृष्टि की रचना तथा उसे चलाने का भी कारण है. तो फिर अन्य देवी देवताओं की पूजा करने का क्या आशय?
८."यह ब्रह्म ही चेतन प्राण तत्व है जो सदैव ही उपस्थित रहता हैऔर जीवन की उत्पत्ति करता है। इसीलिए कण-कण में भगवान कहा जाता है।"
जिन कणों में जीवन नहीं होता, उनके बारे में क्या विचार है? क्या उनमें भगवान् नहीं होता?
शंकाएँ और भी हैं. किन्तु फिलहाल इतना ही.
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'तस्लीम' में पढें - 'क्या हम सिर्फ मिलावटी सामान खाने के लिए अभिशप्त हैं?'
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ओह ! अब जीशान जी आप कचरे को और बढाने आ गये ?
ReplyDeleteमुझे लगता है यह ब्लॉग अपने मूल उद्द्येश्यों से भटक गया है
और मैं असहाय हो उठा हूँ !
मेरी राय में धार्मिक विश्वास और विज्ञान दो अलग अलग चीजें हैं। गल्ती तभी होती है, जब दोनों को एक ही में मिलाया जाता है। मेरी समझ से ऐसी साम्यता प्रदर्शित करना और उसपर सवाल करना दोनों ही गैर जरूरी चीजें हैं। इससे अच्छा है कि हम किसी सार्थक और उपयोगी विषय पर चर्चा करें, जिसमें कुछ सार हो और समाज के लिए उपयोगी भी हो। इसलिए इस बहस को अब यहीं पर खत्म करना उचित होगा।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
वाह जी बहुत ज्ञानवर्धक लेख है
ReplyDelete"आये थे हरि भजन को ओट्न लगे कपास " बहुत स्पष्ट रुप से यह समझना चाहिये कि वैदिक विज्ञान आज एक खंडहर है और आज की इमारत हमारा आधुनिक विज्ञान है । खंडहर हमारे पिछ्ले गौरव का प्रतीक है और नइ इमारत हमारा गौरव है । पुराने खंडहर पर अगर आज की इमारत बनायेंगे तो दोनो गिर जायेंगे । बस जान लिजिये कि वैदिक विज्ञान को सरछित कर लिजिये , धरोहर बना लिजिये इतना पर्याप्त है ।
ReplyDelete1. "जीशान जी अनुसार ऊर्जा द्रव्यमान रहित होती है " पता नही कैसे- E=mc2 ,U=mgh ,KE=1/2mv2 where m=mass
2. इन्द्र का जन्म कब हुआ? सृष्टि व जीवन की उत्पत्ति -भाग २ -वैदिक विज्ञान का मत
१०.मूल चेतन आत्म भाव (३३ देव) ११ रुद्र,१२ आदित्य,८ बसु , इन्द्र- संयोजक ,प्रजापति
3.नाभिकीय संलयन अत्यधिक मात्रा में होगा तो विरल पिन्ड हो जायेगा
4. , 5. ,6. प्रश्न का उत्तर लेखक से अपेछित रहेगा ?
7. अलग अलग काम के लिये अलग अलग Department है और उनके HOD भी अलग अलग होंगे तो जिसको जो काम करवाना है उस HOD की उपासना करे
8. जीवन और चेतन अलग अलग है । पहले मैने भी यही समझा था कि चेतन प्राण मतलब जीवन
अरविन्द जी ,यदि आप दर्शन, विग्यान, कला,काव्य,गणित,खगोल शास्त्र ,किसी भी विध्या की गहराई में जायेंगे तो अधीरता वश सब कचरा ही लगेंगे। हलुआ तो सभी खा लेते हैं। हमें पकी-पकाई खाने की आदत जो होगयी है,सब चीज़ें ईज़ाद अमेरिका करे ओर हम उपभोग करें।
ReplyDeleteयह विषय दर्शन है धर्म या धार्मिक विश्वास नहीं। दर्शन, मानव धर्म, व विग्यान के समन्वय से ही जीवन में श्रेष्ठता मिलती है,इस समन्वय के न होने से ही बडी बडी सभ्यताओं का नाश हुआ है व आज इतनी उन्नति होने पर भी, आतन्क्बाद,अश्लीलता,अनाचार, प्रदूषण, सिद्धान्त हीनता का बोल बाला है।
सत्येन्द्र जे, वैदिक विग्यान खन्डहर नहीं ,इतिहास है, इतिहास में झान्के बिना कौन आगे बढपाया है। आपका सो काल्ड, चार्ल्स डार्विन का श्रष्टि के बारे में मत भी प्राचीन ग्रीक व यूनानी मतॊं का प्रसार व व्याख्या ही है ।
नज़र जी की नज़र का धन्यवाद जो उन्हें लेख ग्यान्वर्धक लगा, --जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ,हों बौरी डूबन डरी रही किनारे पैठ।
ग्यान के लिये धैर्य व तप चाहिये। अविश्वास्पूर्ण अतार्किकता नहीं।
जीशान जी की सभी शन्काओं का निराकरण अलग से पोस्ट मे कर दिया गया है।
ReplyDeleteक्या आप सब अब तक मथे हुए दूध से निकले माखन का स्वाद लेना चाहेंगे या नहीं।
सदियों से हम इसी बहस,शास्त्रार्थ मे फसे रहे। बौधिक प्रदर्शन को छोड्कर और कुछ प्राप्त होने वाला नही है। आज हम बीमार होते है तो वैदिक चिकित्सा कि तरफ नही जाते(बहुत कम लोग जाते है)। बच्चो की शिछा के लिये कोंवेंट स्कूल के चक्कर लगाते हैँ , सब समय का खेल है। रहा होगा कोइ जमाना वैदिक लेकिन आज तो बह इतिहास है , गौरवशाली था , समृध था पर आज कि सच्चाइ तो आधुनिक विज्ञान है। खंडहर से ही इतिहास का पता चलता है , इतिहास मतलब खंडहर ,खंडहर मतलब इतिहास । कोइ सभ्यता कितनी भी समृध क्यु ना हो पतन सब का होता है और शायद चरम के बाद ही पतन होता है,वैदिक सभ्यता का भी तो पतन हो गया । यह तो प्रकृति का खेल है ।मेरा तो यही अनुरोध है कि सभी के विचारो को सम्मान दिया जाना चहिये, जो अप्रास्ंगिक है वह अपने आप हट जायेगा । हाँ इस ब्लाग की भी प्रशंसा करनी होगी जो इतने उच्च विचारो पर चर्चा हो रही है
ReplyDeleteहां सदियों से हम शास्त्रार्थ करते रहे आगे उन्नति करते रहे। जबसे शास्त्रार्थ भूलकर सिर्फ़ जहां से मिले खाने,व सुविधा भोगी होकर आसानी से प्राप्त को भोगने लगे बगैर उस पर गहन विचार करे ,तभी से गुलामी के अन्धकार में फ़से। तिलक,गोख्नले,गान्धी,कांग्रेस,आरएस एस,व क्रान्तिकारियों ने गुप्त शास्त्रार्थ( मीटीन्ग, मन्त्रणा )के बाद कर्म नहीं किया होता तो क्या हम आज़ाद होते?
ReplyDeleteक्या सन्सद में कोई बिल् बिना शास्त्रार्थ के पास होता है? बहस ओर शास्त्रार्थ से, सिर्फ़ सुविधा भोगी,छद्म-लेखक,आदि डरते है।
आज भी भारत में बहुत अधिक लोग वैद्यक ,आयुर्वेदिक चिकित्सकों पर जाते हैं।(हमारी अग्यानता से हमारी ही प्रणाली उन्नत न होकर वहीं की बहीं है, हम ग्यान को बढा कब रहे है, बस आयातित ग्यान से जनता को लूट कर धन व सुखप्रार्ति में मस्त हैं।यदि आयुर्वेद को पूर्ण संरक्षण् व प्रगति के द्वार खोले जायं तो जाने कितना दवाओं में खर्च होने वाला विदेश जाताहुआ धन बच जाय। )।
विग्यान कोई आधुनिक या पुरातन नहीं होता ,वह सदैव चिर युवा होता है,ओर पुरातन यनी पिछली/निचली ईंट पर ईंट रखते हुए आगे क्रमिक विकास करता है।
आप कान्वे्न्ट की शिक्षा भी इसी अधिकाधिक धन कमाने के लिये दिलाते हैं,कोई समाज़ सेवा के लिये नहीं।
परसों इस पोस्ट के सम्पादकीय स्तर पर १० टिप्पणियां थीं,पोस्ट पर एक भी नहीं, आज पोस्ट पर सिर्फ़ ४ प्रकाशित थीं( मेरे ईमेल से पूछने पर) बाकी का क्या हुआ, भई क्या टिप्पणियां भी क्या काट-छांट कर ...।
ReplyDeleteडा0 ग़ुप्ता जी लग रहा है आप तो नाराज ही हो रहे हैँ । शास्त्रार्थ का अर्थ "शास्त्रो का अर्थ" लगाना है और बहस का मेरा अर्थ भी व्यवहारिक है बहसबाज़ी (अनावश्यक की)। शास्त्रार्थ और् मन्त्रणा दोनो के अर्थ अलग है । दूसरी बात कि मैनै कभी नही देखा कि पुराने खंडहर के बचे ढाचे के उपर से ही नयी इमारत बनाया गया हो , नयी इमारत की नीव हमेशा नयी होती है (अपवादो को छोड्कर ) और समयानुसार, युगानुसार होती है ।
ReplyDeleteसत्येन्द्र जी के विचार काफी सुलझे हुए और निष्पक्ष लगे.
ReplyDeleteश्याम जी, टिप्पणियों सम्बंधी आपकी शंका का मुख्य कारण इंटरनेट एक्सप्लोरर की गडबडी है। मैंने किसी भी ब्लॉग पर कमेंट मॉडरेशन लगाया हुआ है। यदि आपको टिप्पणियां सही नहीं दिख रही है, तो आप मोजिला फायर फाक्स का इस्तेमाल करें। वैसे इस तरह की शिकायत कई लोग पहले भी कर चुके हैं, पर सभी शिकायतकर्ताओं के साथ यह पाया गया है कि वे इंटरनेट एक्सप्लोरर का इस्तेमाल कर रहे थे।
ReplyDeleteजिन वक्तों में जो ज्ञान होता है वो महत्तम होता है बाद में वो बढ़ता है तब उस समय का महत्तम हो जाता है यदि पुराने कि कमियां नए के आधार पर गिनाई जायें तो सभी में कमियां हैं अधूरापन है
ReplyDelete----बवेजा जी की टिप्पणी काफ़ी समय बाद आई है ....यद्यपि कुछ अटपटी सी भाषा है..परन्तु ..अर्थ निकलता है कि नये समय से देखा जायगा तो पुराने ग्यान में कमियां तो दिखाई देंगी ही....
ReplyDelete---सही कथन है बवेजा जी...पुराने ग्यान को ( यहां ग्यान के भौतिक उपयोग की बात नहीं होरही ) मूल बनाये बिना कोई आगे नवीन ग्यान कैसे विचारित होगा ...उसे नवीन कहा ही तब जायेगा जब वह प्राचीन का अग्रगामी प्रसार होगा( यथा न्यूटन के सिद्धान्त को हटाकर नहीं उसको अग्रगामी परिवर्धिक करके आगे नया नियम लाया गया है ...न्यूटन का सिद्धान्त (ग्यान ) खन्डहर नहीं हुआ)....पुरा ग्यान के खन्डहर को हटाकर नहीं अपितु पुरा भौतिक-उप्योग की बस्तुओं के खन्डहर को हटाकर नयीभौतिक इमारत खडी की जाती है , ग्यान कभी खन्डहर नहीं होता उप्योग की वैग्यानिक बस्तुएं होतीं हैं....
---अतः वास्तव में कोई ग्यान कभी खन्डहर नहीं होता ...उसमें कमी नहीं उसके उपयोग में समयानुसार परिवर्तन अनुभव होता है वही नव-ग्यान है ......अन्यथा हम बार बार वहीं पहुंचते रहेंगे....प्रगति कैसे होगी ...
----महाजनाः येन गतो स पन्था...