(यह लेख "उत्तर प्रदेश" मासिक में नवम्बर 2009 के अंक में प्रकाशित हुआ है, जिसे यहाँ पर दो भागों में प्रकाशित किया जा रहा है।) ब...
(यह लेख "उत्तर प्रदेश" मासिक में नवम्बर 2009 के अंक में प्रकाशित हुआ है, जिसे यहाँ पर दो भागों में प्रकाशित किया जा रहा है।)
बच्चों और कहानियों के बीच हमेशा से चोली दामन का साथ रहा है। वे कहानियाँ पढ़ते या सुनते ही नहीं कहानियों में जीते भी हैं। उन्हें वक्त-बेवक्त तरह-तरह की कहानियाँ बनाते हुए भी देखा जा सकता है।
एक जमाना था जब बच्चों के लिए सिर्फ और सिर्फ परी कथाएं ही लिखी जाती थीं, पर इधर के कुछेक वर्षों में बच्चों की दुनिया में विज्ञान कथाओं का तेजी से प्रवेश हुआ है और धड़ाघड़ विज्ञान कथाओं के संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। इस तेजी और इस माहौल को बनाने में ‘पराग‘ का बड़ा योगदान है। ‘पराग‘ हिन्दी की वह इकलौती बाल पत्रिका है, जिसने विज्ञान कथाओं को भरपूर मात्रा में प्रोत्साहित किया। ‘पराग‘ के अलावा ‘मेला‘, ‘सुमन सौरभ‘, ‘बाल भारती‘ और ‘बाल वाटिका‘ में भी समय-समय पर बाल विज्ञान कथाओं का प्रकाशन होता रहा है। इस क्रम में ‘विज्ञान प्रगति‘ को भी शामिल किया जा सकता है, क्योंकि उसमें छपने वाली ज्यादातर कहानियाँ बच्चों और किशोरों को ध्यान में रखकर लिखी गयी प्रतीत होती हैं।
अगर हम बाल विज्ञान कथाओं का गहराई से अध्ययन करें तो कुछ प्रवृत्तियां उभर कर सामने आती हैं, जिन पर विस्तृत चर्चा किया जाना आवश्यक हो जाता है। ये प्रवृत्तियां निम्नानुसार हैं-
1. स्वरूप का भ्रम:- यह बहुत आश्चर्य का विशय है कि एक सदी का सफर तय करने के बाद भी हिन्दी की बाल विज्ञान कथाएँ अपने स्वरूप को स्पष्ट करने में असफल सिद्ध हुई हैं। आज भी ऐसे बहुत से रचनाकार हैं, जो विभिन्न विषयों पर बातचीत की शैली में दी गयी वैज्ञानिक जानकारियों को विज्ञान कथाओं के नाम से सम्बोधित करते हैं। मालती बसंत की पुस्तक ‘बाल विज्ञान कथाएँ‘ और अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन‘ कृत ‘बंटी का कम्प्यूटर‘ इसके साक्षात प्रमाण हैं।
हिन्दी की पहली विज्ञान कथा “आश्चर्य वृत्तांत” (अंबिकादत्त व्यास, 1893) को माना गया है। अर्थात 100 साल से भी अधिक का सफर तय करने के बाद यदि विज्ञान कथा को लेकर इस तरह का धुंधलका कायम हैं, तो रचनाकारों के लिए यह चिंता का विषय है। ऐसी स्थितियां जहां एक ओर सम्बंधित रचनाकार की पठन रूचि पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं, वहीं वह बाल साहित्य आलोचना को भी किसी न किसी रूप में कटघरे में खडा करती है। क्योंकि विज्ञान कथाओं की समीक्षा करते वक्त यदि तटस्थता का परिचय दिया जाए और बेबाक विवेचन को बढावा दिया जाए तो कारण नहीं कि ऐसी स्थितियां सामने आएं।
विज्ञान कथा के नाम पर अक्सर ऐसी रचनाएं देखने को मिलती हैं, जिनमें कहानी तो सामान्य सी होती है, किन्तु उनमें वैज्ञानिक तथ्यों का उपयोग कर लिया जाता है और तत्पश्चात रचना को विज्ञान कथा का नाम दे दिया जाता है। हरीश गोयल की बाल विज्ञान कथा ‘शुक्र ग्रह और अंतरिक्ष लुटेरा‘ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैः-
‘‘ब्लैक वेनिस वहां से निकल चुका था। उन्होंने उसका पीछा ‘आर्टमिस कैज्म‘ में किया। यह एक अंगूठी के आकार का एक कैनियन (महा खडड) था। यह ‘एफ्रोडाइट टेरा‘ के दक्षिण में था। ‘एफ्रोडाइट टेरा‘ अफ्रीका की तरह एक महाद्वीप था। यह भूमध्य रेखा के दोनों ओर स्थित एक उच्च स्थल था। जब वह ‘आर्टिमिस‘ में हाथ नहीं आया, तो उन्होंने ब्लैक डेनिस का पीछा ‘एफ्रोडाइट‘ में करते हुए ‘डायना कैज्म‘ (गहरी खाई) में किया, लेकिन वहां भी वह उनके हाथ नहीं आया।”‘ (मिशन आकाशगंगा, पृष्ठ-146)
उक्त कहानी का पात्र ब्लैक डेनिस एक विचित्र उपकरण चुरा कर शुक्र ग्रह में चला जाता है। जहां कथा नायक अमित और रोहित उसका पीछा करते हैं। अन्त में वह पकड़ा जाता है। कहानी में सिर्फ शुक्र ग्रह के भौगोलिक वातावरण का वर्णन किया है। उक्त कहानी में न तो कोई वैज्ञानिक घटना है और न ही कोई प्रेरक विचार। जाहिर सी बात है। कि ऐसी रचनाएं किसी भी दृष्टिकोण से विज्ञान कथा की श्रेणी में नहीं आती हैं।
2. तार्किकता का अभावः- जिस प्रकार विज्ञान तर्कों के सहारे चलता है, उसी प्रकार विज्ञान कथा भी तर्कों के सहारे आगे बढ़ती है। रचनाकार जिस तथ्य/सिद्धान्त के सहारे अपनी कथावस्तु को आगे बढ़ाती है, वह तार्किकता की दृष्टि से खरा उतरना चाहिए। विज्ञान कथाकार से यह अपेक्षा की जाती है कि उसे वर्तमान तक ज्ञात/मान्य वैज्ञानिक जानकारियों का सम्यक ज्ञान होगा और वह अपनी रचनाओं में उनका उल्लंघन नहीं होने देगा। यदि वह अपनी किसी रचना में ज्ञात नियम को तोड़ता भी है, तो इसके कारण और नये नियम के समर्थन में यथावश्यक दलील इसके साथ प्रस्तुत करनी चाहिए।
किन्तु देखा यह गया है कि बहुधा रचनाकार विज्ञान कथा के इस सामान्य से नियम की भी परवाह नहीं करते हैं। संजीव जायसवाल ‘संजय‘ की कहानी ‘मानव फैक्स मशीन‘ इसका एक ताजा उदाहरण है। इस कहानी में यह दर्षाया गया है कि इम्तेहान की वजह से विपुल अपनी मौसी की लडकी की शादी में अमेरिका नहीं जा पाता है। ऐसे में उसके पिता उसे स्वयं द्वारा अविष्कृत ‘मानव फैक्स मशीन‘ से वहां भेज देते हैं। किन्तु तकनीकी गड़बड़ी की वजह से वह फैक्स अमेरिका में दो प्रतियों में पहुंच जाता है। जबकि मूल विपुल अपने घर में सुरक्षित रहता है। यहां पर रचनाकार के द्वारा विज्ञान के मूल नियम ‘ऊर्जा न कभी घटती है, न कभी बढती है वह सिर्फ अपना स्वरूप परिवर्तित करती है‘ की जबरदस्त अवहेलना हुई है। जिससे एक अच्छी कहानी होने के बावजूद इसपर प्रश्नचिन्ह लग गया है। इसलिए लेखकों को चाहिए कि वे विज्ञान कथा लिखने से पहले पर्याप्त अध्ययन कर लें, ताकि उनकी रचना तकनीकी दृष्टि से सुदृढ़ रहे।
विषय के निवर्हन के साथ-साथ विज्ञान कथाओं के वातावरण के चित्रण में भी वैज्ञानिक दृश्टिकोण की नितांत आवश्यकता होती है। किन्तु देखा यह गया है कि रचनाकर इसके प्रति भी पूरी तरह से लापरवाह होते हैं। इस सम्बंध में दो उदाहरण दृष्टव्य हैं-
‘‘यहां के वातावरण में बहुत खूबियां हैं। यहां की मिट्टी भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। वातावरण के प्रभाव से यहां कोई चीज सड़ती-गलती या विकृत नहीं होती। और यह झील? इसके जल में मिश्रित रासायनों का इतना अच्छा प्रभाव है कि निरन्तर स्नान से जवानी का शरीर जवान ही बना रह जाता है।‘‘ (सीपियाण्डेला की सैर, शोभनाथ लाल, पृष्ठ-69)
‘‘फूलों के वृक्ष ऊंचे थे। लेकिन हाथ बढाने पर फल स्वतः सुलभ हो जाते थे। यह अनुभव करना मुश्किल था कि वृक्षों की डालियां ही झुक जाती थीं या तोड़ने वाले की बाहें लम्बी होकर फल प्राप्त कर लेती थीं।”‘ (वही, पृष्ठ-81)
पहले उद्धरण में जो बातें कही गयी हैं, वह किसी जादुई नगरी का आभास कराती हैं, वैज्ञानिक प्रगति सम्पन्न राष्ट्र का नहीं। क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो जो चीज बनती/पैदा होती है, उसकी एक निश्चित/लगभग आयु होती है। अर्थात एक निश्चित समय के बाद वह अनुपयोगी हो जाती है और धरती पर मौजूद जीवाणु उसे खाकर समाप्त कर देते हैं। लेकिन यदि इस क्रिया का अन्तिम हिस्सा बाधित हो जाए तो सोचिए कि धरती पर क्या स्थिति होगी? इस उद्धरण को पढ़ने पर मस्तिष्क में अनायास ही देवलोक का चित्र घूम जाता है, जहां देवता हमेशा जवान रहते हैं और चीजें कभी नष्ट नहीं होतीं।
यही बात दूसरे पैरे में भी देखी जा सकती है। किन्तु लेखक यहां पर यह भूल जाता है कि वह कोई परी कथा न लिखकर विज्ञान कथा लिख रहा है, जिसमें हर बात का एक लॉजिक होता है, एक स्पष्ट कारण होता है। सिर्फ घटनाओं में ही नहीं वातावरण के चित्रण में भी जिसको ध्यान में रखने की आवश्यकता होती है। क्योंकि यह तार्किकता/गम्भीरता ही है, जो कहानी को विज्ञान कथा का स्वरूप प्रदान करती है। इसके अभाव में विज्ञान कथा का प्रभाव खण्डित होता है और रचनाकार की प्रतिभा पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है। इसलिए लेखकों को इस सम्बंध में विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता होती है।
(अगली कड़ी में जारी...)
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एक अच्छा और गंभीर कार्य -अगली कड़ी प्रतीक्षित है!
ReplyDeleteउत्तर प्रदेश में प्रकाशित आलेख का यहाँ होना आवश्यक था । विज्ञान कथाओं की आमद और उनकी प्रासंगिक भूमिका को स्पष्ट करता आलेख । काफी उदाहरण दिये हैं आपने, इससे बहुत कुछ स्पष्ट और प्रामाणिक-सा हो गया है । आलेख का आभार ।
ReplyDeleteउत्तर प्रदेश पास के बुक स्टाल पर मिल नहीं पाई. यहाँ पर लेख देने के लिए आभार.
ReplyDeleteविज्ञान कथाओं पर पहली बार इस तरह का लेख पढ रहा हूं। अगली कडी की प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteविज्ञान कथाओं पर एक स्तरीय लेख. अच्छा लगा पढ कर.
ReplyDeleteअच्छा है विज्ञान कथाओं का बढ़ता चलन.
ReplyDeleteपर काल्पनिक कथाएं भी बच्चों में कल्पनाशीलता व रचनाधर्मिता को जागृत व समृद्ध करने के लिए उतनी ज़रूरी हैं.
Aaj bacchhon ki Vigyan kathaon mein ruchi adhik hai.
ReplyDeleteAlochnatamak addhyyan ka yah bhaag pasand aaya..
ab dusra bhaag padhne ja rahi hun.