मदद करने की जन्मजात प्रवृत्ति के साथ आया है इंसान ?

आख़िर यह इंसानी चोला क्यों मिला है हमें ?जीवन का आखिर मकसद क्या है ?क्या इंसान सिर्फ़ गलतियों का पुतला है ?पापमय और युद्ध उन्मांदी है...


आख़िर यह इंसानी चोला क्यों मिला है हमें ?जीवन का आखिर मकसद क्या है ?क्या इंसान सिर्फ़ गलतियों का पुतला है ?पापमय और युद्ध उन्मांदी है ?स्वार्थी और हिंसक जहाँ सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता ही विकास का आधार बनी हुई है ?मूल प्रवृत्ति में हिंसक है इंसान जैसा विलियम गोल्दिंग्स अपने उपन्यास :"लोर्ड ऑफ़ दा फ्लाईज़" में दर्शातें हैं जहाँ निर्जन प्रदेश में भटकने को विवश बच्चे देखते ही देखते हिंसक और उग्र हो उठतें हैं ,सवाल सर्वाइवल का जो है ?क्या हाड तोड़ प्रतियोगिता के इस आलमी दौर में सहयोग सहकार ,आलमी मुद्दों पर मिल बैठ कर मंत्रणा करना अब बेमानी है ?

या फ़िर मदद को सहज भाव से आगे आना इंसान की जन्मजात फितरत है ,जो शिशुओं में भी प्रगट होती है ।
अपनी किताब "वाई वी कोप्रेट " में मिचेल तोमसेलो जो पेशे से एक डिवलपमेंट साइकोलोजिस्ट है साबित करतें हैं -मौके के अनुरूप शिशु भी अपने नन्ने हाथ सहज बुद्धि से प्रेरित हो अनजान की मदद को भी बढ़ादेतें हैं ।मिचेल ना सिर्फ़ शिशुयों को सीधे सीधे ओब्ज़र्व करतें हैं उनकी तुलना चिम्पेंजी के नवजातों और शिशुओं से भी करतें हैं सिर्फ़ डेड़ साला (१८ माह )की उम्र में शिशु जब देखतें है किसी के दोनों हाथ में सामान है और वह दरवाज़ा खोलना चाहता है या उसके हाथ से कपड़ा सुखाने की क्लिप (चिमटी ,क्लाथ्सपिन )गिर गई है तो बच्चे आप से आप समबुद्धि से उत्प्रेरण लेकर मदद को आगे आ जातें हैं ।

"कैरट एंड स्टिक एप्रोच" किसी भी प्रकार के प्रलोभन से, उपकार और मदद को हाज़िर होने की यह प्रवृत्ति ना घटती है और ना बढती है ।

मिचेल "मेक्स प्लांक इंस्टिट्यूट ऑफ़ फॉर एवोल्युश्नरी अन्थ्रो -पोलोजी "के सह -निदेशक हैं ।,जो जर्मनी के लिपजिग में स्थित  है ।विकासात्मक मानव विज्ञान के माहिर मिचेल कहतें हैं -मदद को आगे आना, अन्तर्जात ,एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है शिशुओं की. समाज में उठने बैठने के कायदे क़ानून तो माँ बाप बाद में ही सिखातें हैं यह प्रवृत्ति तो हार्ड -वायर्ड है ।

बेशक प्रागेतिहासिक दौर में आदमी भोजन जुटाने के लिए शिकार पर निकलता था .उनमे भी तो डिविज़न ऑफ़ लेबर था -श्रम विभाजन था ,एक अध्धय्यन के अनुसार इन घुमंतू समाजों में ६८ फीसद केलोरीज़ जुटाने का जिम्मा मर्द का होता था .इनकी संतानें २० साल से नीचे जितना खर्च करते थे उतना जुटाना उनकी मजबूरी नहीं थी .दोनों सेक्सों में ही नहीं बच्चों को भी माँ बाप कापरस्पर सहयोग और संरक्षण मिलता था ।

संरक्षण की यह लम्बी अवधि उन्हें भोजन जुटाने के लिए तैयार करती थी । न्यू -मेक्सिको यूनिवर्सिटी के मानव विज्यानी हिलार्द कप्लान मानवीय विकास के अनेक चरणों में सहयोगकी इस अविरल धारा को कल कल बहते देखतें हैं ।

किसी ने ग़लत नहीं लिखा है -दुनिया में आया है तो फूल खिलाये जा /आंसू किसी के लेके खुशियाँ लुटाये जा
"परहित सरस धरम नहीं भाई "/चाइल्ड इज दी फादर ऑफ़ ऐ मेन विलियम  वर्ड्सवर्थ ने यूँ ही नहीं कहा होगा ।

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COMMENTS

BLOGGER: 21
  1. रोचक और सार्थक पोस्ट... सचमुच बच्चों में सहज ही प्रेम होता है बड़े होते होते वह उससे वंचित होते जाते हैं.

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  2. यही पोस्ट आज ही एक और ब्लॉग पर है -वीरुभाई कृपया ध्यान दें -जो पोस्ट साईंस ब्लागर्स के लिए दें उसे कम से कम तुरंत ही कहीं और तो न ही दें -!
    सुझाव के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ!
    किन्तु इससे तो ग़दर मच जाएगा !

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  3. बिलकुल नई जानकारी दी है आपने. धन्यवाद.

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  4. धरती पर जीवन के संतुलन को बांये रखने के लिए मदद करने की प्रवति बहुत ही जरूरी है . केवल आदमी ही नहीं बल्कि जानवरों में भी एक दुसरे की मदद करने की प्रवति होती है चाहे वो मदद किसी भी रूप में हो .
    जागरूकता से भरी पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाई .!

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  5. अरविन्द जी , अनजाने में यह अपराध हुआ ,मैं कुछ व्यक्तिगत समस्याओं में उलझा साइंस ब्लॉग पर कब इस पोस्ट का ड्राफ्ट छोड़ आया पता ही न चला .आइन्दा के लिए सोफ्ट वेयर में डाल लिया है छोटे से दिमाग में .शुक्रिया पुनरावृत्ति दोष के प्रति आगाह करने के लिए .अब राम राम भाई पर लेटेस्ट पोस्ट दिल्ली से दिल्लगी है .कृपया देखें -http://veerubhai1947.blogspot.com/

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  6. मेरा तो यह भी मानना है कि जिस प्रकार व्‍यक्ति का रंग रूप वगैरह उसके जींस द्वारा निर्धारित होता है, वैसे ही उसका व्‍यवहार भी जींस की ही करामात होता है।

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  7. व्यवहार व आदतें तो निश्चय ही जींस में होते है, परन्तु यह सहायता करने की बात...शिशु द्वारा मूर्खतापूर्ण सोच ही है ....आजकल रोजाना एसी मूर्खतापूर्ण खोजें ये लोग करते रहते हैं क्योंकि इन्हें अपने लिए निश्चित धन को खर्च करना होता है एवं बस कुछ करना होता है , चाहे उसका अर्थ कुछ भी न हो एवं बाद में खारिज होजाय ...उनकी रोटी तो चल ही गयी.....

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  8. जाकिर भाई आदमी सिर्फ जीवन खण्डों का ज़मा जोड़ नहीं है परिवेश भी है अर्जित व्यवहार भी है ,हार्ड कोर प्रवृत्ति जैसे कोई अपराधी बनता है जीवन खण्डों में बीज रूप हो सकती है लेकिन उसका पल्लवन तो तदनुरूप माहौल में ही होता है .मदद कर ने की सहज प्रवृत्ति हम सबमे जन्मजात है इसमें कोई संदेह नहीं है .कोई किसी के लफड़े में डर की वजह से न पड़े (दिल्ली जैसी वाहियात जगह में )यह और बात है लेकिन मन में भाव ज़रूर आता है ,मैं कुछ मदद करूँ .

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  9. .

    Veerubhai ji ,

    It's a beautiful post , quite spiritual as well. with changing time we are indeed progressing but the impact of Kaliyug is too huge and is affecting the thinking and behaviour of people . They are becoming kinda selfish and children are not getting their due time and affection from them .

    Thanks for giving the link of your post.

    .

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  10. वीरेन्‍द्र जी, मानव व्‍यवहार मेरा पसंदीदा विषय है। इस विषय पर मैंने पिछले दिनों 'तस्‍लीम' पर 'खुशियों का विज्ञान' शीर्षक से रोचक लेख भी लिखे थे, जो काफी पसंद किये गये थे।

    मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहूंगा कि पिछले 20 सालों (लेखन की शुरूआत के साथ ही) के अध्‍ययन, शोध एवं अनुभव के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हमारे आसपास का वातावरण हमारे जींसों में निहित व्‍यक्तित्‍व पर आंशिक फर्क ही डाल पाता है। मैंने इस चीज को कई तरीके से परखा है, कई एंगल से कसौटी पर कसा है (और अभी भी इस दिशा में लगा हुआ हूं)। हालांकि वर्तमान धारणाएं मेरी इस सोच का खण्‍डन करती हैं, पर बावजूद इसके जैसे-जैसे मैं आगे बढ रह हूं, मेरी धारणा दृढ से दृढतर होती जा रही है।
    फिलहाल मैं इसपर काम कर रहा हूं और जिस दिन इस धारणा के प्रति 100 प्रति दृढ हो जाऊंगा, इसपर इस शोधपरक किताब भी लिखूंगा।

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  11. नेचर और नर्चर या फिर नेचर एंड नर्चर -दि डिबेट गोज़ आन .अगर सब कुछ जीवन खंड ही तय करतें हैं तो भैया सारी कहावतें नसीहतें जैसे" संग का रंग चढ़ता है" ,"जैसा पानी वैसी वाणी ","जैसा खाना वैसी सेहत" सब गुड गोबर गलत हो जाएगा .एक सड़े हुए आम को दस अच्छे आम के साथ रख दो बाकी भी सड़ने लगेंगे .और कोई एक जीवन इकाई नियामक बनके नहीं आती है व्यवहार की समूह होता है इन जीवन इकाइयों का कौन सी कब सक्रिय होगी कोई निश्चय नहीं अलबत्ता परिवेश एक सक्षम ट्रिगर बनता है यानी माहौल यानी संगत यानी परवरिश .

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  12. वीरेन्‍द्र जी, मेरे विचार में ये कहावतें आंशिक रूप से ही सत्‍य हैं। उदाहरण के लिए हम 'जैसा खाना वैसी सेहत' को लेते हैं। एक परिवार के लोग आमतौर से एक जैसा ही खाना खाते हैं, पर उनकी सेहत अलग-अलग होती है। किसी को कब्‍ज की बीमारी, किसी को लूज मोशन, तो किसी को और कुछ। इससे साफ पता चलता है कि व्‍यक्ति की तबियत खाने से कुछ हद तो प्रभावित होती है, लेकिन उसमें बडा रोल उसके शरीर का संगठन निभाता है। इसे एक अन्‍य उदाहरण से देखते हैं। हम मान लेते हैं कि दो भाई हैं। उसमें से एक भाई का हाजमा अक्‍सर खराब रहता है, जबकि दूसरा कंकण पत्‍थर तक हजम कर लेता है। दोनों भाई एक दावत में जाते हैं और पूरी-कचौरी जम कर खाते हैं। अब जाहिर सी बात है कि अगले दिन कमजोर हाजमे वाले का पेट खराब होना तय है। यहां पर खाने की प्रकृति एक जैसी थी, पर उसे ग्रहण करने वाले पर उसका असर अलग-अलग हुआ। इससे यह पता चलता है कि हाजमा के लिए शारीरिक संगठन मुख्‍य रूप से जिम्‍मेदार है न कि भोज्‍य पदार्थ। इसे हम इस प्रकार से कह सकते हैं कि वातावरण जींसों द्वारा निर्धारित प्रकृति पर फर्क डालता तो है, पर आंशिक रूप से।

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  13. वीरेन्‍द्र जी, आपकी यह पोस्‍ट कल के 'हिन्‍दुस्‍तान' में सम्‍पादकीय पृष्‍ठ पर प्रकाशित हुई है। बधाई स्‍वीकारें।

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  14. वीरेन्‍द्र जी, मैंने कमेंट में जो कुछ कहा, यह मेरी व्‍यक्तिगत सोच है, इसे अन्‍यथा मत लीजिएगा। यहां पर मेरा आशय आपकी बात को गलत साबित करना नहीं है। मैं सिर्फ अपने अनुभव और अपनी सोच को सामने रख रहा हूं। अभी मेरी यह सोच पूरी तरह से प्रामाणिक/परिपक्‍व नहीं है, इसलिए हो सकता है कि मैं अपनी बात सही ढंग से नहीं रख पा रहा हूं। हो सकता है कि इस वजह से मेरे विचार आपको 'हास्‍यास्‍पद' भी लग रहे हों। पर यदि आप मेरे कार्यों से परिचित होंगे, तो समझ सकते होंगे कि मैं कोई बेपर की उड़ान नहीं भर रहा हूं। मेरी इस सोच के पीछे एक व्‍यापक अध्‍ययन और प्रेक्षणीय दृष्टि है। समय आने पर मैं इसे सही ढंग से उद्घाटित करने का प्रयत्‍न करूंगा।

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  15. मेरे प्यारे प्यारे खबरची ,डॉ जाकिर भाई ,ब्लॉग पर विमर्श करके आप एक सार्थक बहस को आगे बढा रहें हैं जो अभी तक अ निर्णीत है .आपकी सक्रियता और सूचना हमारी ऊर्जा है.हिन्दुस्तान में इस चिठ्ठे के प्रकाशन की खबर देकर आपने साइंस ब्लॉग का खुद अपना मान बढ़ाया है . हम तो साइंस ब्लॉग की एक रचना ,एक पोस्ट मात्र हैं ,रचना -कार,और सज्जाकार आप हैं इस ब्लॉग के .आइन्दा ऐसा संशय मन में ना लायें अपने बारे में .विमर्श ही ब्लॉग की चिठ्ठे की सार्थकता है वरना ये सारा भारत "संसद " में चलने वाला फसाद हो जाए .
    और हम सब सांसदों से बेहूदा .

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  16. अच्छि और सार्थक जानकारी अब तक मैने इस पर गौर नही किया था अब अब याद करता हूं तो इस तथ्य को सही ही पाता हूं । चाहे पेड़ों मे पानी डालना हो या किसी और काम मे मदद पांच से छह वर्ष उम्र तक बच्चे यह काम खुद ही अपने हाथ मे लेना चाहते हैं । पर इससे बड़ी उम्र के बच्चे कठिन परिस्थितियों मे ही स्व्यं होकर आगे आते हैं । आम कामो को टालने की प्रव्रुत्ती होती है ऐसा मेरा अनुभव है

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  17. बहुत ख़ूबसूरत, रोचक, उम्दा और जागरूकता से भरी पोस्ट के लिए हार्दिक बधाइयाँ !

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  18. सहयोग की प्रवृत्ति जन्मजात न भी हो,तो इसे अर्जित करने में ही मनुष्यता है।

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  19. नामंजूर
    और ज्यादा समझ मे भी नहीं आई पोस्ट ...
    माफ़ी
    मेरे हाथ से कपड़ा सुखाने की क्लिप नीचे गिर गयी मेरी बेटी ने उठा कर छत से ही नीचे गिरा दी :)

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  20. मैं तो कई बार इस प्रवृत्ति का अनेक बार शिकार बना। बाजार से निकलते हुए ठठेरे की दुकान से एक लोटा बाजार में लुढ़का। सहज ही अपने सामने उसे देख मन में ख्याल आया कि उसे उठा कर ठठेरे को दे दूँ। वर्ना उसे दुकान से उतरना पड़ेगा। मैं ने लोटा उठाना चाहा तभी ठठेरे ने जोर की आवाज लगाई। तब तक देर हो चुकी थी। लोटा तप कर लाल था और मेरी उंगलियाँ जलने लगीं थीं।

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Name

- दर्शन लाल बावेजा,1,- बी एस पाबला,1,-Dr. Prashant Arya,2,-अंकित,4,-अंकुर गुप्ता,7,-अभिषेक ओझा,2,-अल्पना वर्मा,22,-आशीष श्रीवास्‍तव,2,-इन्द्रनील भट्टाचार्जी,3,-काव्या शुक्ला,2,-जाकिर अली ‘रजनीश’,56,-जी.के. अवधिया,6,-जीशान हैदर जैदी,45,-डा प्रवीण चोपड़ा,4,-डा0 अरविंद मिश्र,26,-डा0 श्‍याम गुप्‍ता,5,-डॉ. गुरू दयाल प्रदीप,8,-डॉ0 दिनेश मिश्र,5,-दर्शन बवेजा,1,-दर्शन लाल बवेजा,7,-दर्शन लाल बावेजा,2,-दिनेशराय द्विवेदी,1,-पवन मिश्रा,1,-पूनम मिश्रा,7,-बालसुब्रमण्यम,2,-योगेन्द्र पाल,6,-रंजना [रंजू भाटिया],22,-रेखा श्रीवास्‍तव,1,-लवली कुमारी,3,-विनय प्रजापति,2,-वीरेंद्र शर्मा(वीरुभाई),81,-शिरीष खरे,2,-शैलेश भारतवासी,1,-संदीप,2,-सलीम ख़ान,13,-हिमांशु पाण्डेय,3,.संस्‍था के उद्देश्‍य,1,।NASA,1,(गंगा दशहरा),1,100 billion planets,1,2011 एम डी,1,22 जुलाई,1,22/7,1,3/14,1,3D FANTASY GAME SPARX,1,3D News Paper,2,5 जून,1,Acid rain,1,Adhik maas,1,Adolescent,1,Aids Bumb,1,aids killing cream,1,Albert von Szent-Györgyi de Nagyrápolt,1,Alfred Nobel,1,aliens,1,All india raduio,1,altruism,1,AM,18,Aml Versha,1,andhvishwas,5,animal behaviour,1,animals,1,Antarctic Bottom Water,1,Antarctica,9,anti aids cream,1,Antibiotic resistance,1,arunachal pradesh,1,astrological challenge,1,astrology,1,Astrology and Blind Faith,1,astrology and science,1,astrology challenge,1,astronomy,4,Aubrey Holes,1,Award,4,AWI,1,Ayush Kumar Mittal,1,bad effects of mobile,1,beat Cancer,1,Beauty in Mathematics,1,Benefit of Mother Milk,1,benifit of yoga,1,Bhaddari,1,Bhoot Pret,3,big bang theory,1,Binge Drinking,1,Bio Cremation,1,bionic eye Veerubhai,1,Blind Faith,4,Blind Faith and Learned person,1,bloggers achievements,1,Blood donation,1,bloom box energy generator,1,Bobs Award,1,Breath of mud,1,briny water,1,Bullock Power,1,Business Continuity,1,C Programming Language,1,calendar,1,Camel reproduction centre,1,Carbon Sink,1,Cause of Acne,1,Change Lifestyle,1,childhood and TV,1,chromosome,1,Cognitive Scinece,1,comets,1,Computer,2,darshan baweja,1,Deep Ocean Currents,1,Depression Treatment,1,desert process,1,Dineshrai Dwivedi,1,DISQUS,1,DNA,3,DNA Fingerprinting,1,Dr Shivedra Shukla,1,Dr. Abdul Kalam,1,Dr. K. N. 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