वैज्ञानिक डॉ. हरगोविंद खुराना (Dr Hargobind Khorana) की जीवनी और उनके आविष्कार
(जनसंदेश टाइम्स, 19 नवम्बर, 2011 में प्रकाशित)
प्राचीनकाल में लोगों का विचार था कि ईश्वर ने एक दिन में संसार के सारे प्राणियों की रचना की। लेकिन आज से 100 साल पहले चार्ल्स डार्विन ने अपने विकासवाद के सिद्धाँत के द्वारा यह बताया कि धरती पर प्राणियों के विकास की एक लम्बी कहानी है। आज धरती पर जिस रूप में प्राणी पाए जाते हैं, उन्हें यहाँ तक पहुँचने के लिए लम्बे संघर्ष का सामना करना पड़ा है।
डार्विन के सिद्धाँत के अस्तित्व में आने के बाद जहाँ एक ओर पूरी दुनिया में तहलका मचा, वहीं बहुत से वैज्ञानिक इस दिशा में शोध के लिए प्रवृत्त हुए। ऐसे में वैज्ञानिकों का ध्यान आनुवाँशिक गुणों की ओर भी गया। आनुवाँशिक गुण यानी माता-पिता से उनके बच्चों में पहुँचने वाले लक्षण। इस दिशा में सर्वप्रथम ग्रेगर जॉन मेण्डल (Grager John Mendel) ने कार्य किया और दुनिया को बताया कि आनुवंशिकता के गुण कुछ खास तत्वों के द्वारा संतानों में पहुँचते हैं। आगे चलकर यह बात थोड़ी और स्पष्ट हुई, जब पता चला कि इन गुणों को पहुँचाने में गुणसूत्रों (Chromosome) का हाथ होता है। लेकिन जब इस दिशा में और गहराई से खोज की गयी, तो यह ज्ञात हुआ कि जीन में जीवन के चिन्ह छिपे होते हैं। ऐसे में जीवन के रहस्यों को समझने के लिए जीन को समझना बहुत आवश्यक था।
चूँकि जीन कई प्रकार के एसिड (अम्ल) से मिलकर बनते हैं, इसलिए उनके अध्ययन के लिए रसायन विज्ञान का सहयोग लेकर विज्ञान की एक नई शाखा ‘जैव रसायन’ (Biochemistry) का जन्म हुआ। तब जाकर यह पता लगा कि जीन की रचना दो प्रकार के एसिडों से हुई है। इनके नाम हैं डिऑक्सी राइबोन्यूक्लिक एसिड (Deoxyribonucleic Acid-DNA) और राइबोन्यूक्लिक एसिड (Ribonucleic Acid-RNA)। इसी के साथ यह भी पता चला कि ये एसिड ही जीवन की मूल इकाइयाँ हैं।
डी.एन.ए. के अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों को यह पता चला कि उसकी रचना एक सर्पिलाकार सीढ़ी के समान होती है। यह खोज सन 1953 में जेम्स वाट्सन (James Watson) और फ्राँसिस क्रिक (Francis Crick) ने की थी। लेकिन अब भी एन एसिडों के बारे में बहुत सी चीजें जाननी बाकी थीं। डॉ. हरगोविंद खुराना ने इस क्षेत्र में शोधकार्य किया। उन्होंने पहली डी.एन.ए. के रासायनिक पदार्थ का पूर्ण रूप से विश्लेषण करने में सफलता प्राप्त की। इससे उनकी प्रसिद्धि सारे विश्व में फैल गयी।
सन 1970 में डॉ. खुराना ने एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने अपनी प्रयोगशाला में यीस्ट (खमीर) के ट्रांसफर आर.एन.ए. का संश्लेषण करके कृत्रिम जीन तैयार करने में सफलता पाई। उन्होंने ट्रांसफर आर.एन.ए. का संश्लेषण करने के पूर्व 77 कडि़यों (Nucleotides-न्यूक्लिओटाइड्स) में से कुछ कडि़यों को अलग कर लिया। उसके बाद उन्होंने अलग-अलग उन छोटे-छोटे अंशों का संश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने 3-5 फास्फाडाई ऐस्टर बंध का निर्माण किया। उसके बाद डी.एन.ए. के वलय में से ऐसे अंशों को, जो एक दूसरे के पूरक थे, पर अंशंत: एक दूसरे पर ओवरलैपिंग की क्रिया कराई। अंत में डी.एन.ए. लाइगेज की सहायता से उन्होंने दोनों वलयों के पास वाले भागों को बैक्टीरियाजन्य एंजाइम की मदद से आपस में जोड़ दिया।
इस क्रिया में प्रयुक्त होने वाले बैक्टीरियाजन्य एंजाइम की यह खासियत होती है कि यदि उसे डी.एन.ए. अणु के किसी भी वलय में रिक्त स्थान मिलता है, तो वह उसे भर देता है। इसके साथ ही साथ वह डी.एन.ए. के एक वलय की मरम्मत भी कर सकता है। इस प्रकार डॉ. खुराना को एक ऐसे डी.एन.ए. अणु के संश्लेषण में सफलता मिली, जिसके दो वलयों में से प्रत्येक में 77 न्यूक्लिओटाइड थे। इस संश्लेषित कृत्रिम जीन में न्यूक्लिओटाइडो का वही क्रम था, जो यीस्ट के एलानीन ट्रांसफर आर.एन.ए. के प्राकृतिक जीन में होता है। डॉ. खुराना द्वारा निर्मित यह जीन जीवित तो रहा, पर प्राकृतिक रूप से कार्य नहीं कर सका।
किन्तु इससे डॉ. खुराना निराश नहीं हुए। अगली बार उन्होंने एश्करशिया कोली (Escherichia Coli) पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। यह एक ऐसा जीवाणु है, जो मनुष्य और जानवरों की आँतों मे रहता है। इस जीवाणु की संरचना के विषय में वैज्ञानिक जानकारियाँ उपलब्ध थीं, इसलिए उन्हें इसपर काम करना थोड़ा आसान लगा। अगस्त 1973 में पुन: एक जीन का निर्माण कर दिखाया। इसमें 126 कडि़याँ थीं और प्रसन्नता की बात यह थी कि यह कार्यशील भी रहा।
हरगोविंद खुराना का जन्म 09 जनवरी, 1922 में अविभाजित पंजाब के मुल्तान जिले के रायपुर नामक गाँव में हुआ था। वे जब 12 वर्ष के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया। ऐसी दशा में उनके बड़े भाई नंदलाल उनके अभिभावक बने और उनकी पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा संभाला।
हरगोविंद की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के स्कूल में हुई। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उन्होंने एमएससी तक की सभी परीक्षाएँ अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण की और 1946 में इंग्लैण्ड चले गये। वहाँ पर उन्हें लिवरपूल विश्वविद्यालय (Liverpool University) में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. अलेक्जेंडर टॉड (Prop. Alexander Todd) के साथ काम करने का मौका मिला। उन्होंने जैव रसायन के अन्तर्गत ‘न्यूक्लिओटाइड’ (Nucleotide) विषय में शोधकार्य किया।
सन 1948 में उनका शोधकार्य पूरा हुआ। उसी दौरान उन्हें भारत सरकार से एक और छात्रवृत्ति मिली, जिससे वे आगे के अध्ययन के लिए स्विटजरलैण्ड चले गये। वहाँ पर उन्होंने प्रो. प्रिलॉग के साथ रहकर काम किया। छात्रवृत्ति समाप्त होने के बाद जब वे स्वदेश लौटे, तो दुर्भाग्यवश उन्हें न तो आगे के शोध के लिए कोई यथोचित स्थान उपलब्ध हो सका और न ही कोई ढंग की नौकरी ही मिल सकी। इससे वे खिन्न हो गये और वापस इंग्लैण्ड लौट गये।
डॉ. खुराना ने कैम्ब्रिज विश्विद्यालय (Cambridge University) में प्रो. टॉड की देखरेख में शोधकार्य किया। 1952 में उनके पास कोलम्बिया विश्विद्यालय (Columbia University) से बुलावा आया। वे वहाँ चले गये और जैव रसायन विभाग के अध्यक्ष चुन लिये गये। वहाँ पर रहकर उन्होंने आनुवाँशिकी में शोध करने का निश्चय किया। धीरे-धीरे उनके शोध पत्र अन्तर्राष्ट्रीय शोध जर्नलों में प्रकाशित हुए। इससे वे काफी चर्चित हो गये और उन्हें अनेक पुरस्कार भी प्राप्त हुए।
सन 1960 में डॉ. खुराना अमेरिका चले गये। वहाँ पर वे विस्काँसिन विश्वविद्यालय के एंजाइम शोध संस्थान के सहायक निदेशक नियुक्त हुए। आगे चलकर वे संस्थान के महानिदेश भी बने। डॉ. खुराना वर्ष 1952 में ही स्विटजरलैण्ड के एक संसद सदस्य की पुत्री से विवाह कर चुके थे। उनकी पत्नी एस्थर एक बहुत ही समझदार स्त्री थीं। अब तक वे दो पुत्रियों और एक पुत्र के पिता बन चुके थे। ऐसे में डॉ. खुराना का मन वहीं लग गया और उन्होंने सन 1966 में अमेरिका की नागरिकता ग्रहण कर ली।
डॉ. खुराना ने एंजाइम शोध संस्थान (Engime Research Institute) में रहते हुए जेनेटिक कोड पर शोध कार्य किया। उनके इस शोध में अमेरिकी वैज्ञानिक मार्शल निरेनबर्ग और डॉ. रॉबर्ट डब्लू. रैले ने सहयोग दिया। उनका यह शोध बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ, जिसपर उन्हें वर्ष 1968 का चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
डॉ. हरगोविन्द खुराना को नोबेल पुरस्कार के अतिरिक्त सन 1958 में कनाडा का मर्क मैडल, सन 1960 में कनाडियन पब्लिक सर्विस का स्वर्ण पदक, सन 1967 में डैनी हैनमैन पुरस्कार, सन 1968 में लॉस्कर फेडरेशन पुरस्कार तथा लूसिया ग्रास हारी विट्ज पुरस्कार प्राप्त हुए। सन 1969 में डॉ. खुराना भारत आए। उस समय भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से अलंकृत किया। इसके अतिरिक्त उन्हें पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ ने डी.एस-सी. की मानद उपाधि भी प्राप्त हुई।
दिनांक 09 नवम्बर 2011 को इस महान वैज्ञानिक ने जीवन की अन्तिम सांस ली। डॉ. खुराना ने अपने अनुसंधानों से जेनेटिक विकारों के कारण और उनको सुधारने की दिशा में आशा की किरण दिखाई है। आशा की जाती है कि उनसे प्रेरणा लेकर आने वाले समय में वैज्ञानिक कैंसर जैसे रोगों के कारण एवं उसके निवारण की दिशा में सफलता पाएँगे।
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Post Written by +DrZakir Ali Rajnish
बहुत ही बढियां सुलिखित आलेख जो नोबेलजेता डॉ. हरगोविंद खोराना के कृतित्व और व्यक्तित्व से बखूबी परिचित कराता है !
Deleteआभार
Deleteसंग्रहणीय प्रस्तुति!
Deleteसरल शब्दों में आपने हर गोविन्द जी के योगदान का उल्लेख किया है .इस महान आत्मा को पुष्पांजलि आपको इस पुण्य कर्म के लिए बधाई डॉ जाकिर भाई .
Deleteसरल शब्दों में आपने हर गोविन्द जी के योगदान का उल्लेख किया है .इस महान आत्मा को पुष्पांजलि आपको इस पुण्य कर्म के लिए बधाई डॉ जाकिर भाई .
Deleteबहुत सुन्दर आलेख। अचानक आज देखने को मिला। दरअसल मेरे बेटे को अपने स्कूल प्रोजेक्ट के लिए एक चित्र मिला । लेकि न यह चित्र अपरिचित था इसलिए नेट पर सर्च किया और इस ब्लॉग और खुरानाजी के बारे में यह लेख पढ़ने को मिला। ज्ञानवर्धक ब्लॉग
DeleteSalute to all about his done which make easier to understand such critical thing about gene and human life but also regrets that he some how disappointed by India
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