डी . एन . ए . की खोज के शुरूआती पड़ाव - गतांक से आगे - कम नहीं है। कथा शुरू शुरू करते हैं वैट्सन और क्रिक के इस कथा में पदार्प...
डी.एन.ए. की खोज के शुरूआती पड़ाव-
गतांक से आगे- कम नहीं है।
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गतांक से आगे- कम नहीं है।
कथा शुरूशुरू करते हैं वैट्सन और क्रिक के इस कथा में पदार्पण से लगभग एक सदी पहले से --वास्तव में महत्वपूरण जैव–रासायनिक पदार्थों के रूप में फैट्स¸ काबोर्हाइड्रेट्स–विशेषकर शुगर्स एवं स्टार्च्स¸ प्रोटीन्स तथा न्यूक्लिक एसिड्स की पहचान 1860 के दशक तक ही कर ली गई थी। इन सब में न्यूक्लिक एसिड्स की पहचान सबसे बाद में हुई। एक चिकित्सक की योग्यता रखने वाले स्वीडिश बायोकेमिस्ट फ्रेड्रिक मिस्शर ने 1860 के दशक में अस्पताल में सर्जरी के रोगियों के घाव से हटाए गई पट्टियों पर लगे पस से कोशिकाओं को अलग कर एक नए रसायन का पता लगाया।
चूंकि यह रसायन कोशिकाओं के न्युक्लयस से प्राप्त हुआ था तथा इसकी संरचना जैविक क्रिया–कलापों में अब तक सबसे महत्वपूरण समझे जाने वाले रसायन प्रोटीन्स से अलग थी¸ अतः इन्होंने इसे न्युक्लीन नाम दिया। यही नहीं¸ इन्होंने ऐसी तकनीकि का विकास किया¸ जिससे नाना प्रकार की कोशिकाओं से न्यूक्लियस को अलग कर न्युक्लीन को आसानी से प्राप्त किया जा सके। बाद में मिस्शर ने न्युक्लीन के रासायनिक घटकों का भी पता लगाने का प्रयास किया। प्रोटीन्स में पाए जाने वाले काबर्न¸ हाइड्रोजन¸ ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन के अतिरिक्त इनमें विशेष रूप से फॉस्फोरस भी पाया गया (यह वह समय था जब अनुवांशिकी के पिता कहे जाने वाले मेंडल ने अनुवांशिक नियमों की व्याख्या करते हुए अपना शोध–पत्र प्रकाशित किया था।)
आगे आने वाले वर्षों में मिस्शर ने यह भी पता लगा लिया कि न्युक्लीन के अणु काफी बडे़ होते हैं तथा इनमें कई एसिडिक ग्रुप्स समाहित होते हैं। न्युक्लीन¸ न्युiक्लयस में एक अन्य रसायन प्रोटामीन (एक प्रकार का प्रोटीन) से संबद्ध रहता है।
1870 के दशक में ही न्यूक्लियस में पाए जाने वाले क्रोमोज़ोम्स की पहचान हो चुकी थी एवं 1880 के दशक में माइटोसिस द्वारा कोशिका विभाजन की प्रक्रिया का ज्ञान भी हो चुका था। साथ ही 1881 में एडवर्ड ज़चारियाज़ ने यह पता लगा लिया था कि अनुवांशिक गुणों को वहन करने वाले क्रोमोज़ोम्स की संरचना में आंशिक रूप से ही सही¸ न्युक्लीन का हाथ अवश्य होता है।
1884 में एक अन्य जीवविज्ञानी हर्टविग ने यह भी सुझाया था कि फर्टीलाइज़ेशन के साथ–साथ अनुवांशिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित करने में न्युक्लीन की भूमिका हो सकती है। लेकिन इनके अनुसंधानों एवं सुझावों पर जीव वैज्ञानिकों ने अधिक ध्यान नहीं दिया और अगले कई दशकों तक यही माना जाता रहा कि प्रोटीन के अणु ही जीवन के प्रत्येक क्रिया–कलाप में सबसे महत्वपूरण भूमिका निभाते हैं।इस भ्रांति को पूरी तरह टूटने तथा कोशिका के क्रिया–कलापों एवं अनुवांशिकता में न्युक्लीन (जिसे बाद में न्यूक्लिक एसिड का नाम दिया गया) की महत्वपुर्ण भूमिका को पूरी तरह समझने और स्वीकार करने में 1950 का दशक आ गया।
जेम्स वाटसन और फ्रांसिस क्रिक [१९५३] |
60–70 साल की इस लंबी काल अवधि में वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहे। धीरे–धीरे ही सही¸ रसायनज्ञ एवं जीव–वैज्ञानिक न्युiक्लक एसिड्स की संरचना तथा अनुवांशिकता में इसकी भूमिका से जुड़े रहस्यों से पर्दा हटाने में लगे रहे। इसकी संरचना में शुगर घनिष्ट रूप से संबद्ध है– इस तथ्य का ज्ञान वैज्ञानिकों को 1890 का वर्ष आते–आते हो चुका था। लेकिन यह शुगर पांच काबर्न अणुओं से बना राइबोज़ शुगर है¸ इसका सुनिश्चित ज्ञान होने में अगले तीस साल का समय गुजर गया। वास्तव में न्यूक्लिक एसिड्स की संरचना के आधुनिक ज्ञान के पीछे एक रशियन वैज्ञानिक¸ फीबस लेविन एवं इनके सहयोगियों द्वारा किए गए प्रारंभिक कार्य का बड़ा ही महत्व पूर्ण हाथ है। 1891 मे लेविन अमेरिका चले आए तथा रॉकफेलर इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल रिसर्च में किए गए इनके कार्य के फलस्वरूप ही 1909 में यीस्ट की कोशिकाओं से प्राप्त न्युक्लिक एसिड्स में राइबोज जैसे शुगर की पुष्टि हो पाई।
इसके कई वर्षों बाद 1920 के दशक में ही इस तथ्य की पुष्टि हो पाई कि एक अन्य प्रकार का न्युक्लिक एसिड होता है जिसमें राबोज़ शुगर के स्थान पर इसी से मिलता जुलता¸ परंतु एक ऑक्सीजन के परमाणु की कमी वाला डीऑक्सीराइबोज़ शुगर पाया जाता है। राइबोज़ एवं डीआक्सीराइबोज़ शुगरयुक्त¸ दोनों ही प्रकार के न्युक्लिक एसिड्स जन्तु तथा पौधों की कोशिकाओं में पाए जाते हैं– इस तथ्य को समझने एवं स्वीकारने में वैज्ञानिकों कुछ वर्ष और लग गए।बाद के अनुसंधानों से इनके साइक्लिक संरचना का ज्ञान भी हो गया।
इनके पंचकोणीय आकार में चार कोणों पर एक–एक काबर्न होते हैं तथा पांचवें कोण पर ऑक्सीजन होता है। ऑक्सीजन वाले कोण से घड़ी की सुई वाली दिशा में स्थित पहले कोण पर अवस्थित काबर्न को 1¸ दूसरे को 2¸ तीसरे को 3 तथा चौथे को 4 काबर्न कह सकते हैं। चौथे काबर्न से एक साइड चेन के रूप में पांचवा काबर्न जुड़ा रहता है। डी•एन•ए• एवं आर•एन•ए• की रस्सी का निर्माण करते समय एक फॉस्फेट तथा चार ऑक्सीजन के योग से बने फॉस्फेट के अणु¸ डी ओक्सी राईबोज़ अथवा राइबोज़ शुगर के दो अणुओं को जोड़ने का काम करते हैं। फॉस्फेट का एक अणु¸ इन पेंटोज शुगर्स के एक अणु के काबर्न 3 से जुड़ता है तो दूसरे अणु के काबर्न 5 से जुड़ता है। फॉस्फेट एवं पेंटोज़ शुगर्स के अणुओं के इस प्रकार के जोड़ से एक लंबी श्रृंखला का निर्माण होता है¸ जो डी•एन•ए• या आर•एन•ए• की रस्सी का काम करता है।
न्यूक्लिक एसिड्स की संरचना से संबद्ध एडेनिन¸ गुआनिन¸ साइटोसिन¸ थाइमिन तथा युरेसिल नामक नाइट्रोजन बेसेज़ की पहचान भी बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही कर ली गई थी। ये सभी काबर्नयुक्त साइक्लिक रसायन हैं। इनमें से दो–एडेनिन तथा गुआनिन प्युरीन समूह से संबद्ध हैं तथा इनकी रचना में काफी समानता होती है। शेष तीन– साइटोसिन¸ थाइमिन तथा युरेसिल पाइरीमिडीन समूह से संबद्ध हैं। इन तीनों की संरचना एडेनिन तथा गुआनिन की तुलना में थोड़ी–बहुत सरल होती है एवं इनमें आपस में समानता भी होती है। बाद के अनुसंधानों ने यह भी सुनिश्चित किया कि एडेनिन¸ गुआनिन एवं साइटोसिन तो डी•एन•ए• तथा आर•एन•ए• दोनों में ही पाए जाते हैं परंतु थाइमिन केवल डी•एन•ए• में तथा युरेसिल केवल आर•एन•ए• में ही पाए जाते हैं। ये नाइट्रोजन बेसेज़ फॉस्फेट द्वारा एक श्रृंखला में जोड़े गए राइबोज़ अथवा डीऑक्सीराइबोज़ शुगर्स के प्रत्येक अणु के काबर्न 1 से जुड़े होते हैं।
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यह तो विद्यार्थियों के लिए भी काफी उपयोगी प्रस्तुति है !
ReplyDeleteपसंद आ रहा है, अगले अंक की प्रतीक्षा में
ReplyDelete---
गुलाबी कोंपलें
चाँद, बादल और शाम
ग़ज़लों के खिलते गुलाब
अरे !! यह तो हम कभी का पढ़ चुके थे ........अच्छा हुआ कि आपने पुनः कंठस्थ करा दिया!!
ReplyDeleteधन्यवाद!!
अरे !! यह तो हम कभी का पढ़ चुके थे ........अच्छा हुआ कि आपने पुनः कंठस्थ करा दिया!!
ReplyDeleteधन्यवाद!!
"हमारे लिए ये जानकारी कुछ नई है .......रोचक लगी "
ReplyDeleteRegards
नमस्कार ,
ReplyDelete@प्रवीण जी ,मैं जानती हूँ कि आप को यह पाठ की पुनरावर्ती जैसा लग रहा होगा:) .जंतु विज्ञान विषय के विद्द्यार्थी यह सब जानते होंगे,मगर आगे आने वाले सम्बंधित लेखों के लिए,यह आधार बनाया जा रहा है, ताकि पाठकों और जिज्ञासुओं को बेसिक जानकारी के लिए कहीं और न जाना पडे .ज्यादा से ज्यादा सामग्री इसी ब्लॉग पर मिल जाए.
यहाँ ब्लॉग पर आते रहीये.धन्यवाद .
बहुत जानकारी भरा आलेख है...अगले आलेख का इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteडी0एन0ए0 की रोचक दुनिया को बेहद सरल रूप में पाठकों के सामने हेतु आभार।
ReplyDeletebahut achhi jaankari rahi
ReplyDeleteहम तो इससे बिल्कुल अज्ञान थे आपके माध्यम से सरल भाषा मे पढने को मिल रहा है ।
ReplyDeleteबहुत रोचक जानकारी अल्पना जी ..शुक्रिया
ReplyDeleteachhi jankari...
ReplyDeleteरोचक जानकारी.
ReplyDeletenice information
ReplyDeleteबेहद महत्वपूर्ण विषय पर दी गयी रोचक जानकारी।
ReplyDeleteरोचक जानकारी है. सिलसिला चलाए रखिए.
ReplyDeleteबहुत मेहनत से समझा रहे हैं. अच्छी लग रही है. सीखने जो मिल रहा है. आभार.
ReplyDeleteDear Alpana ji,
ReplyDeleteThanks for editing and presenting this article in such a nice and appreciable manner. Congratulations! Keep up the good work.I am always with you.Some criticism and sarcasm is bound to take place. Those who feel that we are revising their biology lesson, let them know that these articles are not meant for them. Its for those who want to know and had no opportunity earlier. We wish to popularize science among common masses and I think this is the main objective of such a wonderful blog.
Thanks.
Dr.G.D.Pradeep