डॉ. गुरु दयाल प्रदीप जी का लिखा हुआ एक लेख प्रस्तुत कर रही हूँ. यह लेख पूरी तरह विश्व के विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा इस क्षेत्र में की ज...
डॉ. गुरु दयाल प्रदीप जी का लिखा हुआ एक लेख प्रस्तुत कर रही हूँ. यह लेख पूरी तरह विश्व के विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा इस क्षेत्र में की जा रही रिसर्च का निचोड़ है.--अल्पना वर्मा
'लड़की क्यों लड़कों सी नहीं होती?' ..जी हां! यह पंक्ति कुछ समय पहले आई एक हिंदी फ़िल्म के गाने की हैं। ज़ाहिर है इसमें नया कुछ नहीं है। वाकई लड़कियां लड़कों सी नहीं होतीं शारीरिक संरचना तथा कार्यकी से ले कर स्वभावगत अंतर स्त्री–पुरूष में साफ़–साफ़ दिखता है। हम मनुष्यों में ही क्यों¸ लगभग सभी जंतुओं में नर एवं मादा में थोड़ा–बहुत अंतर होता ही है। प्रकृति ने इनमें यह अंतर संभवत: प्रजनन–कार्य में इनकी अलग–अलग भूमिकाओं को ध्यान में ही रख कर किया होगा। इन अंतरों से न तो कोई श्रेष्ठ बन जाता है और न ही कोई हीन। ये अंतर तो एक दूसरे के पूरक हैं।
जहां तक शारीरिक संरचना एवं कार्यकी में अंतर की बात है¸ यह सभी के समझ में आती है। लेकिन स्वभावगत–अंतर के संदर्भ में लोगों की जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई है। चूंकि स्वभाव का संबंध व्यक्ति के सोचने–समझने की शक्ति अथार्त स्नायुतंत्र¸ विशेषकर मस्तिष्क की कार्य–प्रणाली से है अत: पहले तो यही सोचा गया कि शायद दोनों के बौद्धिक स्तर में कुछ अंतर होगा। लेकिन वैज्ञानिक स्तर पर किए गए तमाम प्रयोग इसे नकारते हैं। सबसे पहले तो इस आधार पर नर–नारी में कोई अंतर है ही नहीं और यदि थोड़ा–बहुत है भी तो यह उसी प्रकार है जैसे किन्हीं दो पुरुषों या महिलाओं में व्यक्तिगत स्तर पर होता है।
फिर भी ‘लड़कियां लड़कों सी नहीं होती’ जैसा कौतुहल उस हिंदी फिल्म के युवा परंतु अपरिपक्व नायक के मन में ही नहीं उठता¸ बल्कि जीवन के यथार्थ रूप में भी यह यक्ष–प्रश्न परिपक्व लोगों के मन भी आता है और इससे वैज्ञानिक भी अछूते नहीं है। तमाम अभिवावक एवं शिक्षक लड़कियों की प्रगति से अक्सर संतुष्ट नज़र आते हैं¸ लेकिन लड़कों की शिकायत परोक्ष–अपरोक्ष रूप से करते नज़र आ ही जाएंगे। इस अंतर के पीछे छिपे ‘क्यों’ की व्याख्या सभी अपने–अपने अनुभव¸ ज्ञान¸ दार्शनिकता आदि के बल करने का प्रयास करते हैं। ‘अरे साहब¸ लड़कियां स्वभाव से ही आज्ञाकारी होती हैं¸ वे पढ़ने में ज़्यादा ध्यान लगाती हैं¸ लड़के तो बस कुछ ज़्यादा ही खिलंदड़े होते हैं¸ उनका ध्यान इधर–उधर ज़्यादा भटकता है¸ लड़कियों में परिपक्वता जल्दी आती है तो लड़कों में देर से¸ आदि¸ आदि।’
अब देखिए न इस फिल्मी गाने के गीतकार ने नायक के इस कौतुहल का उत्तर नायिका द्वारा कुछ इस प्रकार दिलवा दिया है— ‘तुम लड़कों को जानवर से इंसान बनाने के लिए¸ जीने का ढंग सिखाने के लिए¸ वगैरह वगैरह के लिए ही लड़कियां लड़कों जैसी नहीं होतीं!’ कितना सही¸ कितना ग़लत¸ इसका निर्णय आप करते रहिए।
लेकिन इस तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता कि आधुनिक शिक्षा पद्धति में लड़कियां लड़कों से औसतन बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं— यह वर्ष दर वर्ष के परीक्षा परिणाम साफ़–साफ़ दर्शा रहे हैं। यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व–व्यापी है। अमेरिका जैसे देश में न केवल परीक्षा परिणाम अपितु शिक्षा को अधूरा छोड़ देने में लड़कियों का प्रतिशत लड़कों से कम है। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है¸ वैज्ञानिक¸ विशेषकर मनोविज्ञान¸ शिक्षा एवं स्नायुतंत्र से जुड़े वैज्ञानिक अपने–अपने समय के अधुनातन उपकरणों तथा परीक्षण पद्धतियों की मदद से लड़के और लड़कियों के बीच के इस अंतर को समझने का प्रयास करते रहे हैं। इसी प्रयास में अमेरिका के वैंडरबिल्ट युनिवर्सिटी के ‘केनेडी सेंटर फॉर रिसर्च ऑन ह्युमन डेवेलपमेंट' से संबद्ध अनुसंधानकर्ता स्टीफेन कमराटा एवं रिचर्ड वुडकॉक द्वारा हाल ही में किया गया अनुसंधान उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण है। कमराटा¸ श्रव्य एवं वक्तृत्व विज्ञान का प्रोफेसर होने के साथ–साथ विशिष्ट शिक्षा के सह–प्रोफेसर एवं केनेडी सेंटर के उप निदेशक भी हैं। वुडकॉक भी इसी सेंटर के एक सदस्य एवं श्रव्य एवं वक्तृत्व विज्ञान विषय के विज़िटिंग प्रोफेसर होने के साथ–साथ युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया में अनुसंधान प्रोफ़ेसर भी हैं।
इन लोगों ने दो साल से ले कर नब्बे साल के अस्सी हज़ार से भी अधिक स्त्री–पुरुषों के मस्तिष्क में विचारों के संसाधन–गति (processing speed) से संबद्ध परीक्षणों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया। ये आंकड़े 1977 से 2001 की लंबी कालावधि में किए गए ‘वुडकॉक–जॉनसन सिरीज़ के संज्ञानात्मक (cognitive) एवं उपलब्धि(achievement) परीक्षणों के तीन समूहों से प्राप्त किए गए थे। यहां 'संसाधन–गति' से तात्पर्य है — किसी सामान्य कठिनाई–स्तर वाले कार्य को निश्चित समय–सीमा के अंतर्गत प्रभावी तरीके से सटीक एवं दक्ष रूप में पूरा कर पाने की क्षमता।
क्या लड़कियाँ होती हैं लड़कों जैसी?
'लड़की क्यों लड़कों सी नहीं होती?' ..जी हां! यह पंक्ति कुछ समय पहले आई एक हिंदी फ़िल्म के गाने की हैं। ज़ाहिर है इसमें नया कुछ नहीं है। वाकई लड़कियां लड़कों सी नहीं होतीं शारीरिक संरचना तथा कार्यकी से ले कर स्वभावगत अंतर स्त्री–पुरूष में साफ़–साफ़ दिखता है। हम मनुष्यों में ही क्यों¸ लगभग सभी जंतुओं में नर एवं मादा में थोड़ा–बहुत अंतर होता ही है। प्रकृति ने इनमें यह अंतर संभवत: प्रजनन–कार्य में इनकी अलग–अलग भूमिकाओं को ध्यान में ही रख कर किया होगा। इन अंतरों से न तो कोई श्रेष्ठ बन जाता है और न ही कोई हीन। ये अंतर तो एक दूसरे के पूरक हैं।
जहां तक शारीरिक संरचना एवं कार्यकी में अंतर की बात है¸ यह सभी के समझ में आती है। लेकिन स्वभावगत–अंतर के संदर्भ में लोगों की जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई है। चूंकि स्वभाव का संबंध व्यक्ति के सोचने–समझने की शक्ति अथार्त स्नायुतंत्र¸ विशेषकर मस्तिष्क की कार्य–प्रणाली से है अत: पहले तो यही सोचा गया कि शायद दोनों के बौद्धिक स्तर में कुछ अंतर होगा। लेकिन वैज्ञानिक स्तर पर किए गए तमाम प्रयोग इसे नकारते हैं। सबसे पहले तो इस आधार पर नर–नारी में कोई अंतर है ही नहीं और यदि थोड़ा–बहुत है भी तो यह उसी प्रकार है जैसे किन्हीं दो पुरुषों या महिलाओं में व्यक्तिगत स्तर पर होता है।
फिर भी ‘लड़कियां लड़कों सी नहीं होती’ जैसा कौतुहल उस हिंदी फिल्म के युवा परंतु अपरिपक्व नायक के मन में ही नहीं उठता¸ बल्कि जीवन के यथार्थ रूप में भी यह यक्ष–प्रश्न परिपक्व लोगों के मन भी आता है और इससे वैज्ञानिक भी अछूते नहीं है। तमाम अभिवावक एवं शिक्षक लड़कियों की प्रगति से अक्सर संतुष्ट नज़र आते हैं¸ लेकिन लड़कों की शिकायत परोक्ष–अपरोक्ष रूप से करते नज़र आ ही जाएंगे। इस अंतर के पीछे छिपे ‘क्यों’ की व्याख्या सभी अपने–अपने अनुभव¸ ज्ञान¸ दार्शनिकता आदि के बल करने का प्रयास करते हैं। ‘अरे साहब¸ लड़कियां स्वभाव से ही आज्ञाकारी होती हैं¸ वे पढ़ने में ज़्यादा ध्यान लगाती हैं¸ लड़के तो बस कुछ ज़्यादा ही खिलंदड़े होते हैं¸ उनका ध्यान इधर–उधर ज़्यादा भटकता है¸ लड़कियों में परिपक्वता जल्दी आती है तो लड़कों में देर से¸ आदि¸ आदि।’
अब देखिए न इस फिल्मी गाने के गीतकार ने नायक के इस कौतुहल का उत्तर नायिका द्वारा कुछ इस प्रकार दिलवा दिया है— ‘तुम लड़कों को जानवर से इंसान बनाने के लिए¸ जीने का ढंग सिखाने के लिए¸ वगैरह वगैरह के लिए ही लड़कियां लड़कों जैसी नहीं होतीं!’ कितना सही¸ कितना ग़लत¸ इसका निर्णय आप करते रहिए।
लेकिन इस तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता कि आधुनिक शिक्षा पद्धति में लड़कियां लड़कों से औसतन बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं— यह वर्ष दर वर्ष के परीक्षा परिणाम साफ़–साफ़ दर्शा रहे हैं। यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व–व्यापी है। अमेरिका जैसे देश में न केवल परीक्षा परिणाम अपितु शिक्षा को अधूरा छोड़ देने में लड़कियों का प्रतिशत लड़कों से कम है। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है¸ वैज्ञानिक¸ विशेषकर मनोविज्ञान¸ शिक्षा एवं स्नायुतंत्र से जुड़े वैज्ञानिक अपने–अपने समय के अधुनातन उपकरणों तथा परीक्षण पद्धतियों की मदद से लड़के और लड़कियों के बीच के इस अंतर को समझने का प्रयास करते रहे हैं। इसी प्रयास में अमेरिका के वैंडरबिल्ट युनिवर्सिटी के ‘केनेडी सेंटर फॉर रिसर्च ऑन ह्युमन डेवेलपमेंट' से संबद्ध अनुसंधानकर्ता स्टीफेन कमराटा एवं रिचर्ड वुडकॉक द्वारा हाल ही में किया गया अनुसंधान उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण है। कमराटा¸ श्रव्य एवं वक्तृत्व विज्ञान का प्रोफेसर होने के साथ–साथ विशिष्ट शिक्षा के सह–प्रोफेसर एवं केनेडी सेंटर के उप निदेशक भी हैं। वुडकॉक भी इसी सेंटर के एक सदस्य एवं श्रव्य एवं वक्तृत्व विज्ञान विषय के विज़िटिंग प्रोफेसर होने के साथ–साथ युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया में अनुसंधान प्रोफ़ेसर भी हैं।
इन लोगों ने दो साल से ले कर नब्बे साल के अस्सी हज़ार से भी अधिक स्त्री–पुरुषों के मस्तिष्क में विचारों के संसाधन–गति (processing speed) से संबद्ध परीक्षणों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया। ये आंकड़े 1977 से 2001 की लंबी कालावधि में किए गए ‘वुडकॉक–जॉनसन सिरीज़ के संज्ञानात्मक (cognitive) एवं उपलब्धि(achievement) परीक्षणों के तीन समूहों से प्राप्त किए गए थे। यहां 'संसाधन–गति' से तात्पर्य है — किसी सामान्य कठिनाई–स्तर वाले कार्य को निश्चित समय–सीमा के अंतर्गत प्रभावी तरीके से सटीक एवं दक्ष रूप में पूरा कर पाने की क्षमता।
इन आंकड़ो के विश्लेषण के बाद इन अनुसंधानकर्ताओं का भी कहना है कि बौद्धिक स्तर पर स्त्री–पुरुष में कोई खास अंतर नहीं होता। जहां तक संसाधन–गति का सवाल है तो जीवन के शुरुआती सालों (केजी एवं प्री–प्राइ़मरी कक्षा में पढ़ने वाले) में लड़के–लड़कियों में कोई अंतर नही होता¸ लेकिन जैसे–जैसे उम्र बढ़ती है उनमें अंतर साफ़ दिखाई पड़ता है— विशेषकर¸ 13 से 19 वाले किशोर वय में। निधार्रित समय सीमा में किसी कार्य को प्रभावी तरीके से सटीक एवं दक्ष रूप में पूरा कर लेने की क्षमता के मामले में लड़कियां हमेशा लड़कों से बाज़ी मार लेती हैं। ध्यान रहे¸ आधुनिक शिक्षा पद्धति में अधिकांश परीक्षाएं समय–बद्ध एवं बंधे–बधाए ढर्रे वाली होती हैं¸ साथ ही प्राय: नीरस भी होती हैं। इनके अनुसार यदि वास्तव में किसी की कार्य क्षमता अथार्त संसाधन–क्षमता का परीक्षण करना है तो समय सीमा की पाबंदी हटा देनी चाहिए एवं दिया गया कार्य चुनौतियों भरा एवं रुचिकर होना चाहिए। ऐसी स्थिति में पुरुषों की संसाधन क्षमता बेहतर होती है।
एक और मजे़दार बात इनके अनुसंधान से निकल कर आई है। जब भाषा द्वारा विचार संप्रेषण सबंधी परीक्षण किए गए तो कुछ क्षेत्रों जैसे— वस्तुओं को पहचाना¸ विलोम एवं पर्यायवाची शब्दों का ज्ञान¸ शब्दों के अनुरूपता का ज्ञान आदि के मामले में लड़कों की संसाधन–गति लड़कियों से बेहतर पाई गई। यह तथ्य इस पुरानी लोकप्रिय अवधारण को तोड़ता है कि लड़कियां संप्रेषण–कला लड़कों से जल्दी सीखती हैं और इसमें सदैव आगे रहती हैं।
स्त्री–पुरुष की संसाधन–गति में परिलक्षित ये अंतर और भी कौतुहल जगाते हैं¸ यथा— सोचने¸ समझने अथवा परिस्थितियों के विश्लेषण के समय स्त्री–पुरुष के मस्तिष्क में चलने वाली प्रकिया क्या अलग–अलग होती है या वहां कोई अंतर नहीं है। इस संदर्भ में यहां एक–आध अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधानों की चर्चा करना प्रासंगिक है।
अल्बटार् युनिवर्सिटी से मनोचिकित्सा में पीएच डी कर रहीं एमिली बेल एवं उसी विभाग के मनोचिकित्सक डॉ पीटर सिल्वरस्टोन द्वारा दिसंबर 2005 में 'न्युरो इमेज' नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार एक ही कार्य के संपादन में स्त्री एवं पुरुष अपने मस्तिष्क के अलग–अलग हिस्सों का उपयोग करते हैं। इसके उलट कभी–कभी किसी कार्य–विशिष्ट के संपादन में पुरुष जिस हिस्से का उपयोग करता है¸ स्त्री उसी हिस्से का उपयोग किसी अन्य कार्य के संपादन में करती है।
इस शोध के लिए इन लोगों ने दायें हाथ से कार्य करने वाले 23 स्वस्थ पुरुषों एवं 10 महिला स्वयंसेवकों को तरह–तरह के कार्य संपादित करने के लिए कहा गया। इनमें से कुछ स्मृति से¸ कुछ मौखिक संप्रेषण से¸ तो कुछ दृश्यावलोकन तो कुछ छोटी–मोटी मांसपेशीय गतिविधियों से संबधित थे। इन कार्यों को संपादित करते समय इनके मस्तिष्क में होने वाली प्रक्रियाओं को 'फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेंस इ़मेज़िंग' (fMRI) द्वारा प्रबोधित (Monitor) किया गया। लगे हाथों 'फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेंस इमेज़िंग' के बारे में थोड़ा–बहुत जान लेने में कोई हर्ज नहीं है। वैसे तो अब काफ़ी लोकप्रिय नाम है और सभी जानते है कि इस विधा द्वारा शरीर के उन अंगों के चित्र प्राप्त किए जा सकते हैं जिनका निर्माण कोमल ऊतकों द्वारा होता है¸ जैसे कि मस्तिष्क। fMRI जैसी विशिष्ट विधा द्वारा किसी कार्य के संपादन के समय मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों की स्नायु कोशिकाओं में होने वाले विद्युतीय परिवर्तनों का आंकलन¸ रक्त के प्रवाह में होने वाले परिवर्तनों द्वारा किया जा सकता है।
'नेचर न्युरोसाइंस' के अपैल 2006 अंक में एमोरी युनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों¸ स्टीफेन हैमॅन् एवं किम वैलेन के नेतृत्व में प्रकाशित इसी से मिलते–जुलते एक अन्य शोध–पत्र का निचोड़ यह है कि एक ही स्तर के यौन उत्तेजना के समय भी पुरुषों एवं महिलाओं के मस्तिष्क के ‘एमिग्डाला’ (यह 'एमिग्डाला' भावनाओं एवं अभिप्रेरणा का नियंत्रक होता है) वाले हिस्से में होने वाली गतिविधियां अलग–अलग प्रकार की होती हैं। पुरुषों के 'एमिग्डाला' में विद्युतीय गतिविधियों का स्तर महिलाओं की तुलना में काफ़ी ऊंचा होता है। इस शोध में 14 पुरुष एवं 14 महिला स्वयंसेवकों ने भाग लिया। उन्हें यौन कियाओं से संबंधित ऐसे चित्र दिखाए गए जो उनमें समान स्तर की यौन उत्तेजना भर सकें। पूछने पर उन्होंने समान स्तर वाले उत्तेजना की जागृति की बात को स्वीकारा भी¸ लेकिन जब इस अवस्था के दौरान उनके 'एमिग्डाला' का fMRI लिया गया तो पुरुषों में यह ज्यादा सक्रिय नज़र आया।
एक और मजे़दार बात इनके अनुसंधान से निकल कर आई है। जब भाषा द्वारा विचार संप्रेषण सबंधी परीक्षण किए गए तो कुछ क्षेत्रों जैसे— वस्तुओं को पहचाना¸ विलोम एवं पर्यायवाची शब्दों का ज्ञान¸ शब्दों के अनुरूपता का ज्ञान आदि के मामले में लड़कों की संसाधन–गति लड़कियों से बेहतर पाई गई। यह तथ्य इस पुरानी लोकप्रिय अवधारण को तोड़ता है कि लड़कियां संप्रेषण–कला लड़कों से जल्दी सीखती हैं और इसमें सदैव आगे रहती हैं।
स्त्री–पुरुष की संसाधन–गति में परिलक्षित ये अंतर और भी कौतुहल जगाते हैं¸ यथा— सोचने¸ समझने अथवा परिस्थितियों के विश्लेषण के समय स्त्री–पुरुष के मस्तिष्क में चलने वाली प्रकिया क्या अलग–अलग होती है या वहां कोई अंतर नहीं है। इस संदर्भ में यहां एक–आध अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधानों की चर्चा करना प्रासंगिक है।
अल्बटार् युनिवर्सिटी से मनोचिकित्सा में पीएच डी कर रहीं एमिली बेल एवं उसी विभाग के मनोचिकित्सक डॉ पीटर सिल्वरस्टोन द्वारा दिसंबर 2005 में 'न्युरो इमेज' नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार एक ही कार्य के संपादन में स्त्री एवं पुरुष अपने मस्तिष्क के अलग–अलग हिस्सों का उपयोग करते हैं। इसके उलट कभी–कभी किसी कार्य–विशिष्ट के संपादन में पुरुष जिस हिस्से का उपयोग करता है¸ स्त्री उसी हिस्से का उपयोग किसी अन्य कार्य के संपादन में करती है।
इस शोध के लिए इन लोगों ने दायें हाथ से कार्य करने वाले 23 स्वस्थ पुरुषों एवं 10 महिला स्वयंसेवकों को तरह–तरह के कार्य संपादित करने के लिए कहा गया। इनमें से कुछ स्मृति से¸ कुछ मौखिक संप्रेषण से¸ तो कुछ दृश्यावलोकन तो कुछ छोटी–मोटी मांसपेशीय गतिविधियों से संबधित थे। इन कार्यों को संपादित करते समय इनके मस्तिष्क में होने वाली प्रक्रियाओं को 'फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेंस इ़मेज़िंग' (fMRI) द्वारा प्रबोधित (Monitor) किया गया। लगे हाथों 'फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेंस इमेज़िंग' के बारे में थोड़ा–बहुत जान लेने में कोई हर्ज नहीं है। वैसे तो अब काफ़ी लोकप्रिय नाम है और सभी जानते है कि इस विधा द्वारा शरीर के उन अंगों के चित्र प्राप्त किए जा सकते हैं जिनका निर्माण कोमल ऊतकों द्वारा होता है¸ जैसे कि मस्तिष्क। fMRI जैसी विशिष्ट विधा द्वारा किसी कार्य के संपादन के समय मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों की स्नायु कोशिकाओं में होने वाले विद्युतीय परिवर्तनों का आंकलन¸ रक्त के प्रवाह में होने वाले परिवर्तनों द्वारा किया जा सकता है।
'नेचर न्युरोसाइंस' के अपैल 2006 अंक में एमोरी युनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों¸ स्टीफेन हैमॅन् एवं किम वैलेन के नेतृत्व में प्रकाशित इसी से मिलते–जुलते एक अन्य शोध–पत्र का निचोड़ यह है कि एक ही स्तर के यौन उत्तेजना के समय भी पुरुषों एवं महिलाओं के मस्तिष्क के ‘एमिग्डाला’ (यह 'एमिग्डाला' भावनाओं एवं अभिप्रेरणा का नियंत्रक होता है) वाले हिस्से में होने वाली गतिविधियां अलग–अलग प्रकार की होती हैं। पुरुषों के 'एमिग्डाला' में विद्युतीय गतिविधियों का स्तर महिलाओं की तुलना में काफ़ी ऊंचा होता है। इस शोध में 14 पुरुष एवं 14 महिला स्वयंसेवकों ने भाग लिया। उन्हें यौन कियाओं से संबंधित ऐसे चित्र दिखाए गए जो उनमें समान स्तर की यौन उत्तेजना भर सकें। पूछने पर उन्होंने समान स्तर वाले उत्तेजना की जागृति की बात को स्वीकारा भी¸ लेकिन जब इस अवस्था के दौरान उनके 'एमिग्डाला' का fMRI लिया गया तो पुरुषों में यह ज्यादा सक्रिय नज़र आया।
चाहे भले ही इन तीनों शोध कार्यों का उद्देश्य अलग–अलग रहा हो तथा एवं इनका दायरा एक छोटे से समूह तक ही सीमित रहा हो¸ लेकिन ये सभी इस तथ्य की ओर इशारा अवश्य करते हैं कि स्त्री एवं पुरुष के मस्तिष्क में विचारों के संसाधन की प्रकिया में काफ़ी अंतर होता है। यह अंतर दोनों के किशोर वय मे कदम रखने के साथ ही परिलक्षित होने लगता है। इस अंतर को अच्छी तरह समझने के लिए ऐसे शोध कार्यों को बड़े पैमाने पर¸ वह भी fMRI जैसे अत्याधुनिक उपकरणों एवं विधाओं की सहायता से करने की आवश्यकता है। इस बात को कमराटा एवं वुडकॉक भी अच्छी तरह समझते हैं एवं भविष्य में fMRI का उपयोग कर वे अपने प्रयोगों को और भी बड़े स्तर पर करने की योजना बना रहे हैं।
संभवत: स्त्री–पुरुष के बीच के इस अंतर को अच्छी तरह समझने के बाद शिक्षाविद इनके अनुरूप सही शिक्षा पद्धतियों एवं परीक्षण विधाओं का विकास कर बढ़ते बच्चों के विकास को सही दिशा दे सकें। साथ ही¸ बच्चों को इस कच्ची उम्र में हीन भावन से ग्रसित होने से बचा कर भविष्य में एक स्वस्थ एवं संतुलित समाज की रचना में सहायक बन सकें।मनोचिकित्सा के क्षेत्र में ऐसे प्रयोगों के महत्व को तो नकारा ही नहीं जा सकता है।
[By Dr.G.D.Pradeep]
एक गंभीर वैज्ञानिक विवेचन जो विभिन्न अध्ययन सन्दर्भों से यह दर्शता है कि बौद्धिक स्तर पर लडकी लड़के में सांख्यिकीय अंतर भी नहीं है !
ReplyDeleteबल्कि लडकियां हम उम्र लड़कों से कई मायनों में परिपक्व और सिंसियर होती हैं और उनका इमोशनल कोशेंट भी अछा होता है !
bahut hi badhiya aur jankari pradan karta lekh likha hai.
ReplyDeletewakai ladke aur ladkiyon mein boddhik star par koi khas antar nhi hota.kuch bhram failaye huye hain jinse nikalne ki jaroorat hai.
aapne bahut hi achhi jankaari di...dhayavaad..
ReplyDeleteहमें भी कोई अंतर नहीं दीखता सिवाय शारीरिक संरचना के . बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeletekhiar ye baat to sach hai ki ladkiyan ladkon se behtar pradarshn kar rahi hain ....aur thoda antar to swabhavik hai
ReplyDeleteआभार इस आलेख को यहाँ प्रस्तुत करने का. बेहतरीन विवेचना की है.
ReplyDeleteलडकियों और लडकों की भिन्नता को लेकर गहरा विवेचन है। इसी बहाने इससे सम्बंधित ताजी रिसर्च की भी जानकारी मिल गयी। इस हेतु डा0 प्रदीप जी का हार्दिक आभार, जो उन्होंने इस तरह की स्तरीय सामग्री इस ब्लॉग में प्रकाशन हेतु प्रदान की। साथ ही अल्पना जी का भी आभार, उनके लेख को श्रम पूर्वक हम तक पहुंचाने के लिए।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगा यह आलेख ..ब्लेक टेम्पेल्ट पर पढने में मुझे तो बहुत असुविधा होती है ..इस लिए पीछे पोस्ट किये गए कुछ पोस्ट नहीं पढ़ पायी ..पर यह किसी तरह से पढ़ ली :) हो सके तो इसका रंग हल्का कर दे शुक्रिया
ReplyDeleteरंजना जी बेकग्राउंड के रंग सम्बन्धी समस्या की ओर ध्यान दिलाने हेतु धन्यवाद.अब इस का रंग सफ़ेद कर दिया है अक्षरों का रंग kala--अब पढने में आसानी होगी.
ReplyDeleteअच्छा लेख है। यदि इस बात पर भी ध्यान दिया जाए कि दोनों के लालन पालन में भी अन्तर किया जाता है तो बात निष्कर्ष तक पहुँच सकेगी।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
bahut hi achha lekh prastut kiya hai alpanaji,vishleshan meinharpoint badi bariki se liya gaya hai.
ReplyDeleteएक अच्छा लेख विशलेषण सहित। और यह सच भी है।
ReplyDeleteक्या ही बेहतर हो कि इन अंतरों को हम तुलना के रूप में न देख कर सिर्फ़ प्रकृति की व्यवस्था के रूप में देखें. विअसे भी इन वैज्ञानिक अध्ययनों का उद्देश्य स्त्री-पुरुष के बीच विभेद पैदा करना नहीं, बल्कि उनकी सीमाओं-क्षमताओं को समझना है. जैसा कि इस लेख के भी आरंभ में ही आग्रह किया गया है.
ReplyDeleteबहुत सही अनुसन्धान और अध्ययन .
ReplyDeleteअल्पना जी
ReplyDeleteबहुत ही ज्ञानवर्धक और विश्लेष्णात्मक आलेख पढ़वाने के लिए हम आपके आभारी हैं.
- विजय तिवारी 'किसलय'
We need to understand that biological difference is no ground for comparison
ReplyDeleteAnd why compare at all ?? Girl and Boy are two separate entities and they cant and should not be compared because comaprison brings in inferiority in one and superiority in other
All together a good article
............हाँ अन्तर है....अन्तर है.....अन्तर है.....है....है....है.....है.....!!
ReplyDeleteबेहद उपयोगी आलेख । और यह भूतनाथ जी क्या कर रहे हैं, भूत-भूत तो नहीं खेल रहे !
ReplyDeleteaapne bahut hi achhi jankaari di...dhayavaad....with explanation...kaaphi rochak visay...
ReplyDeleteRochak vishay par acchi jaankari di aapne.
ReplyDeleteनारि -पुरुश में अन्तर तो है,
ReplyDeleteसभी समझ्ते ,सदा रहेगा. ।
दो नर या दो नारी जग में,
एक समान भला कब होते ।
भेद बना है ,बना रहेगा ,
भेद भाव व्यवहार नहीं हो।
-----काव्य-उपन्यास ’शूर्पनखा ’ से
ये नतीजे तब हैं जब विश्व में एक पुरुषप्रधान समाज व्यवस्था है। समानता स्थापित हो जाने पर स्थिति की कल्पना की जा सकती है।
ReplyDeleteBahut sunder jankaripoorn lekh. ladkiyan ladkon se aage hee nikal rahin hain ab to. unki ichchashakti jyada strong hotee hai.
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