पिछले अंक में आपने पढ़ा हिन्दी बाल विज्ञान कथाओं की दो मुख्य कमियों “स्वरूप का भ्रम” और “तार्किकता का अभाव” के बारे में। अब आगे.. 3. विष...
पिछले अंक में आपने पढ़ा हिन्दी बाल विज्ञान कथाओं की दो मुख्य कमियों “स्वरूप का भ्रम” और “तार्किकता का अभाव” के बारे में। अब आगे..
3. विषय का दुहरावः- हिन्दी की बाल विज्ञान कथाओं को पढते समय जो चीज सबसे ज्यादा खटकती है, वह है विषय की मौलिकता। ज्यादातर विज्ञान कथाएँ ऐसी हैं, जो सीधे अंतरिक्ष यात्रा से जुडी हुई हैं। ऐसी कहानियों में किसी नये गृह की खोज, एलियंस से मुठभेड़ ही मुख्य विषय होता है। इस तरह की कहानियों में दो चीजें कॉमन होती हैं, या तो वे हमें सुधारने का उपदेश देकर चले जाते हैं या फिर धरती के प्राणी तकनीक में पीछे होने के बावजूद एलियंस को मात देने में कामयाब हो जाते हैं।
इस सम्बंध में हाल ही में प्रकाशित तीन बाल विज्ञान कथा संग्रहों को देखना एक दिलचस्प अध्ययन हो सकता है। ‘अंतरिक्ष का स्वप्निल लोक‘ रमाशंकर का पहला विज्ञान कथा है, जिसमें कुल 10 कहानियाँ संकलित हैं। इनमें से 4 कहानियाँ अंतरिक्ष पर केन्द्रित हैं, 4 कहानियाँ अपराध पर आधारित हैं और सिर्फ 2 सामान्य कहानियाँ हैं। बच्चों के एक चर्चित विज्ञान कथाकार हैं राजीव सक्सेना। हाल ही में ‘अंतरिक्ष का संदेश‘ नामक उनका बाल विज्ञान कथा संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में तेरह कहानियाँ हैं, जिनमें से सिर्फ एक कहानी क्लोनिंग पर आधारित है। बाकी की 12 कहानियाँ अंतरिक्ष और उसके कल्पित एलियंस से पटी पड़ी हैं।
दिल्ली प्रेस की एक लोकप्रिय बाल पत्रिका है ‘सुमन सौरभ‘, जिसमें समय-समय पर विज्ञान कथाओं का प्रकाशन होता रहता है। हाल ही में उसमें प्रकाशित कहानियों को संकलित करके ‘मिशन आकाशगंगा‘ नामक संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में कुल 22 कहानियाँ हैं, जिसमें से 19 कहानियाँ अंतरिक्ष में चक्कर लगा रही हैं। कुछ कहानियों के शीर्षक भी लाजवाब हैं- ट्यूनिक के शैतान, यूके्रस ग्रह से यूरेनियम, टैमटो का संदेश, ब्रहस्पति ग्रह पर पीछा, नरभक्षी मानवों का ग्रह, पृथ्वी से चंद्रमा की रोमांचक यात्रा, शुक्र ग्रह और अंतरिक्ष लुटेरा।
एलियंस के नाम पर इस तरह की ऊल-जलूल कल्पना पढकर निराशा होना स्वाभाविक है। ये कहानियाँ विज्ञान कथाओं को बदनाम करती हैं। ऐसी कहानियाँ न तो वैज्ञानिक दृष्टि से और न ही साहित्यिक दृष्टि से खरी उतरती हैं। इस सम्बंध में विज्ञान कथा लेखक शुकदेव प्रसाद का कथन समीचीन है-
‘‘जीवन की खोज में आज से प्रायः तीन दशकों पूर्व निकला नासा का यान ‘वायेजर-1‘ विगत 6 नवम्बर 2003 को अपने सौरमण्डल की परिधि से बाहर निकल गया है। ...लेकिन अपने पूरे 26 वर्षीय अभियान में सौरमण्डल के किसी कोने से भी जीवन के स्पंदनों की धड़कन उसे नहीं सुनाई पड़ी। इसी प्रकार आज से साढ़े तीन दशकों पूर्व नासा की ही ओर से प्रेषित अन्तरिक्षयान ‘पायनियर-10‘ सौरमण्डल से आगे निकल कर अंतरिक्ष की अतल गहराईयों में विलीन हो गया है। ....लेकिन प्रथ्वेतर जीवन संधान के क्रम में आदमी के हाथ कुछ नहीं लगा। ...ये सारे नवीनतम तथ्य इस संचार युग में किसी से छिपे नहीं रहे। अतः अब इन मृत प्रसंगों का दुहराव अतिरंजना है।‘‘ (विज्ञान प्रगति, सितम्बर 2008, पृष्ठ-16)
उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि पृथ्वेतर जीवन एक बासी और उबाऊ कल्पना है। ऐसी कल्पनाएं लेखक की वैज्ञानिक समझ पर सवाल खड़े करती हैं। अतः इस प्रकार के प्रसंगों का उपयोग सोच-समझ कर किया जाना चाहिए।
4. सम्पादकीय त्रुटियाँ- हिन्दी बाल विज्ञान कथाओं का आज जो स्वरूप दिखाई देता है, उसमें संपादकीय नासमझी का बहुत बड़ा योगदान है। अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन‘ का संग्रह ‘बंटी का कम्प्यूटर‘, जिसे विज्ञान कथा संग्रह बताया गया है, किन्तु है वह लेखों का संग्रह। उक्त संग्रह का सम्पादन कमला वर्मा द्वारा किया गया है। यहां पर सवाल यह उठता है कि यदि लेखक ने अज्ञानतावश लेखों को विज्ञान कथा के नाम पर प्रस्तुत किया है, तो क्या सम्पादक को इस ओर नहीं ध्यान देना चाहिए? ध्यान देने वाली बात यह है कि यह संग्रह प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है और हाल ही में इसे भारतेन्दु पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है। इस घटना से पता चलता है कि लेखक से लेकर पुरस्कार कमेटी तक यह अज्ञानता पसरी हुई है कि विज्ञान कथा है क्या। यह एक गम्भीर स्थिति है, जिसपर विज्ञान कथाकारों को विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है।
इसी प्रकार हाल ही में रमाशंकर द्वारा संपादित एक पुस्तक ‘विज्ञान बाल कथाएं‘ के नाम से प्रकाशित हुई है। इस संग्रह में विज्ञान कथा के नाम पर बातचीत की शैली में लिखे गये वैज्ञानिक लेखों को शामिल किया गया है। ये लेख हैं- नानी मां और सूर्य ग्रहण (मालती बसंत), हम चांद पर हैं (राधेलाल नवचक्र) और जल ही जीवन है (अखिलेष श्रीवास्तव ‘चमन‘)। रमाशंकर युवा रचनाकार हैं और हाल ही में उन्होंने विज्ञान कथाओं में रूचि दिखाई है। विज्ञान कथा में उनका स्वागत है, लेकिन विज्ञान कथा लिखने से पहले उन्हें (एवं अन्य लेखकों को भी) यह पता कर लेना चाहिए कि विज्ञान कथा है क्या, अन्यथा भविष्य में भी उनसे इसी प्रकार की त्रुटियां होती रहेंगी और पाठक इसी प्रकार भ्रमित होते रहेंगे।
हाल ही में शुकदेव प्रसाद के संपादन में ‘बाल विज्ञान कथाएं‘ शीर्षक से एक वृहद संकलन प्रकाशित हुआ है। इसमें विज्ञान कथा लेखन की शुरूआत से आज तक सक्रिय रचनाकारों की चुनिंदा 51 कहानियों को संकलित किया गया है। शुकदेव प्रसाद की सामान्य छवि एक गम्भीर अध्येता के रूप में रही है। लेकिन इस संग्रह ने उनकी उक्त छवि को तार-तार कर दिया है। कारण इस संग्रह में उन लोगों की रचनाओं को तो स्थान दे दिया गया है, जिन्होंने एक-आध विज्ञान कथाएँ लिखी हैं, पर हिन्दी बाल विज्ञान कथा के तीन मुख्य हस्ताक्षरों के जानबूझकर छोड़ दिया गया है। ये नाम हैं- साबिर हुसैन, राजीव सक्सेना और जाकिर अली ‘रजनीश‘। ध्यातव्य है कि इन तीनों रचनाकारों के स्वतंत्र रूप से तीन-तीन विज्ञान कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
इसके अतिरिक्त संपादक ने इस संग्रह में कुछ ऐसी रचनाओं को भी स्थान प्रदान किया है, जो बच्चों के लिए नहीं लिखी गयी हैं। जैसे भूगर्भ की यात्रा, कालयंत्र, सुंदरी मनोरमा की करूण कथा अथवा एंद्रजालिक ऐनक, दिल्ली मेरी दिल्ली, जीवन की पुर्नउत्पत्ति और कम्प्यूटर की मौत। इससे यह सिद्ध होता है कि सम्पादक द्वारा रचनाकरों के चयन की यह बाजीगरी किन्ही गुप्त उद्देश्यों को ध्यान में रखकर की गयी है। विज्ञान कथा, जोकि अपनी पहचान के लिए पहले से ही संघर्षरत है, उसमें इस तरह का प्रयास घोरनिन्दा का पात्र है। इस तरह के प्रयत्न न सिर्फ लेखकीय समर्पण का अपमान है, वरन साहित्यालोचकों को भी भ्रमित करते हैं। इसलिए ऐसे रचनाकारों की आलोचना अवश्यमभावी हो जाती है।
उम्मीद की किरण:- बाल विज्ञान कथाओं में ऐसा नहीं है कि सब कुछ हताश और निराश करने वाला ही है। इसमें बहुत कमुछ ऐसा भी है, जो अच्छा और अनुकरणीय है। न सिर्फ समर्पित विज्ञान कथाकारों बल्कि अन्य रचनाकारों ने भी कुछेक बहुत अच्छी विज्ञान कथाओं का सृजन किया है।
बाल विज्ञान कथा के पिछले सौ साल के इतिहास में ऐसे तमाम लोग हैं, जिन्होंने उसके विकास में महत्वर्ण योगदान दिया है। ऐसे रचनाकारों में हरिकृष्ण देवसरे (लावेनी, डा0 बोमा की डायरी, एक और भूत, दूसरे ग्रहों के गुप्तचर), सुशील कपूर (मंगल की सैर, शुक्र की खोज), ओम प्रकाश (चांद से आगे, सोने का गोला), कैलाश शाह (अंतरिक्ष के पार, हरे दानवों का देश), मोहन सुंदर राजन (अंतरिक्ष का वरदान, अंतरिक्ष यान के कारनामे), साबिर हुसैन (पीली धरती, वेनिक ग्रह की सैर, नुपुर नक्षत्र), अरूण रावत सूर्यसारथी, जाकिर अली ‘रजनीश‘ (चमत्कार, समय के पार, विज्ञान की कथाएँ, प्रतिनिधि बाल विज्ञान कथाएँ), राजीव सक्सेना (अंतरिक्ष के चोर, धरती के कैदी, अंतरिक्ष का संदेश), विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं।
इनके अतिरिक्त भी ऐसे बहुत से रचनाकार हैं, जिन्होंने छिटपुट रूप में ही सही पर विज्ञान कथाओं की धारा को आगे बढाने में मदद दी है। ऐसे रचनाकारों में विभा देवसरे (शनिलोक की यात्रा), योगेश गुप्त (रेडियो का सपना), सत्येन्द्र शरत (प्रोफेसर सारंग), कैलाश कल्पित (वैज्ञानिक गोरिल्ला), सुरजीत (अंतरिक्ष से आने वाला), चंद्र विजय चतुर्वेदी (सितारों के आगे), विनोद अग्रवाल (शुक्र ग्रह के मेहमान), सुरेश आमेटा (उड़नतश्तरी का रहस्य), विजय कुमार बिस्सा (अंतरिक्ष की सैर), डा0 अरविंद मिश्र (राहुल की मंगल यात्रा), हरीश गोयल (शुक्र ग्रह की राजकुमारी), इरा सक्सेना (कम्प्यूटर के जाल में), संजीव जायसवाल ‘संजय‘ (मानव फैक्स मशीन), जीशान हैदर जैदी, नीलम राकेश (यह कैसा चक्कर), कल्पना कुलश्रेष्ठ, रमाशंकर (अंतरिक्ष का स्वप्निल लोक), रमेश सोमवंशी, पृथ्वीनाथ पाण्डेय (अनोखे ग्रह के विचित्र प्राणी), अमित कुमार, नाहिद फरजाना आदि के नाम मुख्य रूप से लिये जा सकते हैं।
3. विषय का दुहरावः- हिन्दी की बाल विज्ञान कथाओं को पढते समय जो चीज सबसे ज्यादा खटकती है, वह है विषय की मौलिकता। ज्यादातर विज्ञान कथाएँ ऐसी हैं, जो सीधे अंतरिक्ष यात्रा से जुडी हुई हैं। ऐसी कहानियों में किसी नये गृह की खोज, एलियंस से मुठभेड़ ही मुख्य विषय होता है। इस तरह की कहानियों में दो चीजें कॉमन होती हैं, या तो वे हमें सुधारने का उपदेश देकर चले जाते हैं या फिर धरती के प्राणी तकनीक में पीछे होने के बावजूद एलियंस को मात देने में कामयाब हो जाते हैं।
इस सम्बंध में हाल ही में प्रकाशित तीन बाल विज्ञान कथा संग्रहों को देखना एक दिलचस्प अध्ययन हो सकता है। ‘अंतरिक्ष का स्वप्निल लोक‘ रमाशंकर का पहला विज्ञान कथा है, जिसमें कुल 10 कहानियाँ संकलित हैं। इनमें से 4 कहानियाँ अंतरिक्ष पर केन्द्रित हैं, 4 कहानियाँ अपराध पर आधारित हैं और सिर्फ 2 सामान्य कहानियाँ हैं। बच्चों के एक चर्चित विज्ञान कथाकार हैं राजीव सक्सेना। हाल ही में ‘अंतरिक्ष का संदेश‘ नामक उनका बाल विज्ञान कथा संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में तेरह कहानियाँ हैं, जिनमें से सिर्फ एक कहानी क्लोनिंग पर आधारित है। बाकी की 12 कहानियाँ अंतरिक्ष और उसके कल्पित एलियंस से पटी पड़ी हैं।
दिल्ली प्रेस की एक लोकप्रिय बाल पत्रिका है ‘सुमन सौरभ‘, जिसमें समय-समय पर विज्ञान कथाओं का प्रकाशन होता रहता है। हाल ही में उसमें प्रकाशित कहानियों को संकलित करके ‘मिशन आकाशगंगा‘ नामक संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में कुल 22 कहानियाँ हैं, जिसमें से 19 कहानियाँ अंतरिक्ष में चक्कर लगा रही हैं। कुछ कहानियों के शीर्षक भी लाजवाब हैं- ट्यूनिक के शैतान, यूके्रस ग्रह से यूरेनियम, टैमटो का संदेश, ब्रहस्पति ग्रह पर पीछा, नरभक्षी मानवों का ग्रह, पृथ्वी से चंद्रमा की रोमांचक यात्रा, शुक्र ग्रह और अंतरिक्ष लुटेरा।
एलियंस के नाम पर इस तरह की ऊल-जलूल कल्पना पढकर निराशा होना स्वाभाविक है। ये कहानियाँ विज्ञान कथाओं को बदनाम करती हैं। ऐसी कहानियाँ न तो वैज्ञानिक दृष्टि से और न ही साहित्यिक दृष्टि से खरी उतरती हैं। इस सम्बंध में विज्ञान कथा लेखक शुकदेव प्रसाद का कथन समीचीन है-
‘‘जीवन की खोज में आज से प्रायः तीन दशकों पूर्व निकला नासा का यान ‘वायेजर-1‘ विगत 6 नवम्बर 2003 को अपने सौरमण्डल की परिधि से बाहर निकल गया है। ...लेकिन अपने पूरे 26 वर्षीय अभियान में सौरमण्डल के किसी कोने से भी जीवन के स्पंदनों की धड़कन उसे नहीं सुनाई पड़ी। इसी प्रकार आज से साढ़े तीन दशकों पूर्व नासा की ही ओर से प्रेषित अन्तरिक्षयान ‘पायनियर-10‘ सौरमण्डल से आगे निकल कर अंतरिक्ष की अतल गहराईयों में विलीन हो गया है। ....लेकिन प्रथ्वेतर जीवन संधान के क्रम में आदमी के हाथ कुछ नहीं लगा। ...ये सारे नवीनतम तथ्य इस संचार युग में किसी से छिपे नहीं रहे। अतः अब इन मृत प्रसंगों का दुहराव अतिरंजना है।‘‘ (विज्ञान प्रगति, सितम्बर 2008, पृष्ठ-16)
उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि पृथ्वेतर जीवन एक बासी और उबाऊ कल्पना है। ऐसी कल्पनाएं लेखक की वैज्ञानिक समझ पर सवाल खड़े करती हैं। अतः इस प्रकार के प्रसंगों का उपयोग सोच-समझ कर किया जाना चाहिए।
4. सम्पादकीय त्रुटियाँ- हिन्दी बाल विज्ञान कथाओं का आज जो स्वरूप दिखाई देता है, उसमें संपादकीय नासमझी का बहुत बड़ा योगदान है। अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन‘ का संग्रह ‘बंटी का कम्प्यूटर‘, जिसे विज्ञान कथा संग्रह बताया गया है, किन्तु है वह लेखों का संग्रह। उक्त संग्रह का सम्पादन कमला वर्मा द्वारा किया गया है। यहां पर सवाल यह उठता है कि यदि लेखक ने अज्ञानतावश लेखों को विज्ञान कथा के नाम पर प्रस्तुत किया है, तो क्या सम्पादक को इस ओर नहीं ध्यान देना चाहिए? ध्यान देने वाली बात यह है कि यह संग्रह प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है और हाल ही में इसे भारतेन्दु पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है। इस घटना से पता चलता है कि लेखक से लेकर पुरस्कार कमेटी तक यह अज्ञानता पसरी हुई है कि विज्ञान कथा है क्या। यह एक गम्भीर स्थिति है, जिसपर विज्ञान कथाकारों को विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है।
इसी प्रकार हाल ही में रमाशंकर द्वारा संपादित एक पुस्तक ‘विज्ञान बाल कथाएं‘ के नाम से प्रकाशित हुई है। इस संग्रह में विज्ञान कथा के नाम पर बातचीत की शैली में लिखे गये वैज्ञानिक लेखों को शामिल किया गया है। ये लेख हैं- नानी मां और सूर्य ग्रहण (मालती बसंत), हम चांद पर हैं (राधेलाल नवचक्र) और जल ही जीवन है (अखिलेष श्रीवास्तव ‘चमन‘)। रमाशंकर युवा रचनाकार हैं और हाल ही में उन्होंने विज्ञान कथाओं में रूचि दिखाई है। विज्ञान कथा में उनका स्वागत है, लेकिन विज्ञान कथा लिखने से पहले उन्हें (एवं अन्य लेखकों को भी) यह पता कर लेना चाहिए कि विज्ञान कथा है क्या, अन्यथा भविष्य में भी उनसे इसी प्रकार की त्रुटियां होती रहेंगी और पाठक इसी प्रकार भ्रमित होते रहेंगे।
हाल ही में शुकदेव प्रसाद के संपादन में ‘बाल विज्ञान कथाएं‘ शीर्षक से एक वृहद संकलन प्रकाशित हुआ है। इसमें विज्ञान कथा लेखन की शुरूआत से आज तक सक्रिय रचनाकारों की चुनिंदा 51 कहानियों को संकलित किया गया है। शुकदेव प्रसाद की सामान्य छवि एक गम्भीर अध्येता के रूप में रही है। लेकिन इस संग्रह ने उनकी उक्त छवि को तार-तार कर दिया है। कारण इस संग्रह में उन लोगों की रचनाओं को तो स्थान दे दिया गया है, जिन्होंने एक-आध विज्ञान कथाएँ लिखी हैं, पर हिन्दी बाल विज्ञान कथा के तीन मुख्य हस्ताक्षरों के जानबूझकर छोड़ दिया गया है। ये नाम हैं- साबिर हुसैन, राजीव सक्सेना और जाकिर अली ‘रजनीश‘। ध्यातव्य है कि इन तीनों रचनाकारों के स्वतंत्र रूप से तीन-तीन विज्ञान कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
इसके अतिरिक्त संपादक ने इस संग्रह में कुछ ऐसी रचनाओं को भी स्थान प्रदान किया है, जो बच्चों के लिए नहीं लिखी गयी हैं। जैसे भूगर्भ की यात्रा, कालयंत्र, सुंदरी मनोरमा की करूण कथा अथवा एंद्रजालिक ऐनक, दिल्ली मेरी दिल्ली, जीवन की पुर्नउत्पत्ति और कम्प्यूटर की मौत। इससे यह सिद्ध होता है कि सम्पादक द्वारा रचनाकरों के चयन की यह बाजीगरी किन्ही गुप्त उद्देश्यों को ध्यान में रखकर की गयी है। विज्ञान कथा, जोकि अपनी पहचान के लिए पहले से ही संघर्षरत है, उसमें इस तरह का प्रयास घोरनिन्दा का पात्र है। इस तरह के प्रयत्न न सिर्फ लेखकीय समर्पण का अपमान है, वरन साहित्यालोचकों को भी भ्रमित करते हैं। इसलिए ऐसे रचनाकारों की आलोचना अवश्यमभावी हो जाती है।
उम्मीद की किरण:- बाल विज्ञान कथाओं में ऐसा नहीं है कि सब कुछ हताश और निराश करने वाला ही है। इसमें बहुत कमुछ ऐसा भी है, जो अच्छा और अनुकरणीय है। न सिर्फ समर्पित विज्ञान कथाकारों बल्कि अन्य रचनाकारों ने भी कुछेक बहुत अच्छी विज्ञान कथाओं का सृजन किया है।
बाल विज्ञान कथा के पिछले सौ साल के इतिहास में ऐसे तमाम लोग हैं, जिन्होंने उसके विकास में महत्वर्ण योगदान दिया है। ऐसे रचनाकारों में हरिकृष्ण देवसरे (लावेनी, डा0 बोमा की डायरी, एक और भूत, दूसरे ग्रहों के गुप्तचर), सुशील कपूर (मंगल की सैर, शुक्र की खोज), ओम प्रकाश (चांद से आगे, सोने का गोला), कैलाश शाह (अंतरिक्ष के पार, हरे दानवों का देश), मोहन सुंदर राजन (अंतरिक्ष का वरदान, अंतरिक्ष यान के कारनामे), साबिर हुसैन (पीली धरती, वेनिक ग्रह की सैर, नुपुर नक्षत्र), अरूण रावत सूर्यसारथी, जाकिर अली ‘रजनीश‘ (चमत्कार, समय के पार, विज्ञान की कथाएँ, प्रतिनिधि बाल विज्ञान कथाएँ), राजीव सक्सेना (अंतरिक्ष के चोर, धरती के कैदी, अंतरिक्ष का संदेश), विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं।
इनके अतिरिक्त भी ऐसे बहुत से रचनाकार हैं, जिन्होंने छिटपुट रूप में ही सही पर विज्ञान कथाओं की धारा को आगे बढाने में मदद दी है। ऐसे रचनाकारों में विभा देवसरे (शनिलोक की यात्रा), योगेश गुप्त (रेडियो का सपना), सत्येन्द्र शरत (प्रोफेसर सारंग), कैलाश कल्पित (वैज्ञानिक गोरिल्ला), सुरजीत (अंतरिक्ष से आने वाला), चंद्र विजय चतुर्वेदी (सितारों के आगे), विनोद अग्रवाल (शुक्र ग्रह के मेहमान), सुरेश आमेटा (उड़नतश्तरी का रहस्य), विजय कुमार बिस्सा (अंतरिक्ष की सैर), डा0 अरविंद मिश्र (राहुल की मंगल यात्रा), हरीश गोयल (शुक्र ग्रह की राजकुमारी), इरा सक्सेना (कम्प्यूटर के जाल में), संजीव जायसवाल ‘संजय‘ (मानव फैक्स मशीन), जीशान हैदर जैदी, नीलम राकेश (यह कैसा चक्कर), कल्पना कुलश्रेष्ठ, रमाशंकर (अंतरिक्ष का स्वप्निल लोक), रमेश सोमवंशी, पृथ्वीनाथ पाण्डेय (अनोखे ग्रह के विचित्र प्राणी), अमित कुमार, नाहिद फरजाना आदि के नाम मुख्य रूप से लिये जा सकते हैं।
Vugyan katha ke bare men aalochnatmak lekhan ka prarambh to huaa
ReplyDeleteआशा है विज्ञान कथाओं के विकास में यह लेख सहायक होगा।
ReplyDeleteहिन्दी बाल विज्ञान कथाओं का आलोचनात्मक अध्ययन
ReplyDeleteपढ़कर सुखद अनुभूति हुई!
जाकिर अली रजनीश जी को बधाई!
यह आलेख तो लिखा ही इसलिये गया है कि बाल-कथा सन्ग्रह में ज़ाकिर जी का नाम नहीं है, यह स्वयम अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनने वाली बात है ।
ReplyDelete----ज़ाकिर जी ,सन्ख्या से अधिक गुण वत्ता की महत्ता होती है, ’उसने कहा था’ नामक एक कहानी से ही लेखक कालजयी होगया, सुना है या नहीं?
अन्तिम पेरा में आपने जो भी कथाये गिनायी हैं वे विग्यान कथायें नहीं विग्यान की खोजों के वर्णन हैं।
Achchha Lekh.
ReplyDeleteआदरणीय श्याम जी, हालाँकि “तस्लीम” और “साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन” पर अक्सर आपके नकारात्मक कमेंट आते रहते हैं, इसलिए हम आपकी ऊंट पटांग टिप्पणियों के अभ्यस्त हो गये हैं। लेकिन आपका यह कमेंट क्योंकि सीधे मुझसे सम्बंध रखता है, इसलिए मुझे लगा कि इसका जवाब दिया जाना चाहिए।
ReplyDeleteहालाँकि मेरे 4 बाल विज्ञान कथा संग्रह प्रकाशित हैं, पर मैं यहाँ पर सिर्फ 1 की ही बात करूंगा, क्योंकि आपने “उसने कहा था” का चर्चा किया है।
“समय के पार” की पाण्डुलिपि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से वर्ष 1991 में भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार (निर्णायक मण्डल अध्यक्ष-प्रभाकर श्रोत्रीय) से पुरस्कृत है। उस समय श्रोत्रीय जी भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका “वागर्थ” के सम्पादक थे और “समय के पार” को “वागर्थ” में प्रकाशित करना चाहते थे, लेकिन उक्त पुस्तक प्रकाशन विभाग से प्रकाशनाधीन होने के कारण ऐसा सम्भव नहीं हो सका था। पुस्तक प्रकाशन के बाद उस पुस्तक को हिन्दी बाल साहित्य का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार “रतनलाल शर्मा बाल साहित्य पुरस्कार” (निर्णायक मण्डल अध्यक्ष-विष्णु प्रभाकर) एवं उ0प्र0 हिन्दी संस्थान का सर्जना पुरस्कार भी मिला। लगे हाथ रतन लाल शर्मा पुरस्कार से जुड़ी एक और बात जान लीजिए। जब यह किताब विष्णु प्रभाकार जी ने पढी़, तो उसके तुरंत बाद उन्होंने कहा था- अब अन्य किसी किताब को पढ़ने की आवश्यकता मैं नहीं समझता क्योंकि बाल साहित्य में इस तरह की पुस्तक आज तक नहीं लिखी गयी।
यदि आप मा0 विष्णु प्रभाकर और प्रभाकर श्रोत्रीय जी के बारे में जानते होंगे, तो फिर आपको “समय के पार” का महत्व समझ में आ गया होगा।
लगे हाथ आपको इससे सम्बंधित आपको एक और रोचक तथ्य बता दूँ कि यह हिन्दी सहित्य के इतिहास की इकलौती पुस्तक है, जिसको बाल साहित्य के तीनों सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। और शुकदेव प्रसाद जी ने जान बूझकर (आखिर उनसे कम उम्र के लेखक को ये पुरस्कार कैसे मिल गये?) समय के पार के लेखक की कहानी उक्त संग्रह में नहीं शामिल की। यह एक जानबूझ कर की गयी शरारत थी, जिसे पाठकों को बताया जाना जरूरी था।
साथ ही एक बात आप और जान लें कि यह पुस्तक आज से तीन-चार वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी, और इतना तो आप भी जानते होंगे कि प्रतिक्रिया जताने के लिए कोई भी व्यक्ति तीन-चार साल का समय नहीं लेता?
इसके अलावा आपने एक और बात लिखी है कि अन्तिम पैरा में गिनाये गये नाम विज्ञान कथाएं नहीं हैं, विज्ञान खोजों के वर्णन हैं। इस सम्बंध में इतना ही कहूंगा कि विज्ञान कथाएँ क्या होती हैं, इस बारे में मुझे किसी से सीख नहीं चाहिए। कम से कम उस व्यक्ति से तो नहीं ही, जिसने एक अदद विज्ञान कथा तक न लिखी हो।
Monday, December 07, 2009
ReplyDeleteDr. shyam gupta said...
रज़्नीश जी आपने हडबडी में गलत पोस्ट पर टिप्पणी की है। कोई बात नहीं । पुरष्कार कैसे मिलते हैं- नोबुल पुरस्कार तक--सब जानते हैं , यह कोई क्वालिटी की गारन्टी नहीं । तुलसी. कबीर. प्रेमचन्द को तो पुरुष्कार नहीं मिले , वे आज क्या हैं। विरुद्ध बात को तो सदा ही ऊट-पटांग कहा जाता है, मेरे लिये नया कुछ नहीं ।
Monday, December 07, 2009
Dr. shyam gupta said...
और हां किसी बात को हांजी-हांजी कहना बहुत आसान व सुविधाज़नक है- न कहना ही अधिक कठिन होता है, न कहना ही सीखना कठिन है। क्योंकि उसमे विचार चाहिये।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteShyam ji, Maine galat nahi, sahi jagah jawab diya hai.
ReplyDeleteEk baat aur, Jab aapko Vishnu Prabhakar Aur Prabhakar Shotreey ki garima hi nahee maaloom, to fir aapse baat karna vyarthta hai.
आपका ब्लॉग सर्व जन हिताय को चरितार्थ करता है |
ReplyDeleteहुज़ूर पहले ठीक से पढा करें ---आपने यह टिप्पणी मेरे ब्लोग द बर्ल्ड ओफ़ माई थोट्स पर ’ राजधानी की पहचान.....’ पर की थे जो हडबडी का परिचायक है, वह तो मैने आपकी पोस्त व अपनी पोस्त दोनों पर ही टिप्पणी दी है ।-- गरिमा व विचार वैविध्यता , विचार भिन्नता , विचार सत्यता अलग अलग वस्तुएं हैं । गरिमा मानने का अर्थ समर्थन या पिछलग्गू होना या अन्ध विश्वासी समर्थन नहीं होता।
ReplyDeleteGupta ji, Wo tippadi HADBADI ki parachayak bilkul nahi thi. Maine JAANBOOJH KAR wahan tippadi dee thee, jisse aapko pata chal sake ki aapki baat ka uttar de diya gaya hai.
ReplyDelete"......... कोई बात नहीं । पुरष्कार कैसे मिलते हैं- नोबुल पुरस्कार तक--सब जानते हैं , यह कोई क्वालिटी की गारन्टी नहीं । ......"
ReplyDeleteवाह...वाह....!
आपने तो सारी पोल ही स्वयं खोल दी!
अब मुझे खूब समझ में आ रहा है कि
आपने पुरस्कार कैसे हाँसिल किये होंगे?
इसको वाद तो........को ही पर्याप्त मानें!
शास्त्रीजी, यही तो सारी बात है- मुझे तो आज तक किसी ने पुरस्कार ही नहीं दिया । क्या आपने भी वैसे ही.....।
ReplyDeleteaap bahut achchha likhate ho mere blog par aap ka swagat hain .
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